अध्याय ११.(ख)
वास्तुभूमि-परीक्षण-शोधन
पूर्व प्रसंग में
वास्तु-भूमि-चयन-विचार विभिन्न दृष्टिकोणों से किया गया। परीक्षण भी वस्तुतः चयन
का ही अंग है,क्यों कि चुनाव की मुहर तभी लग पायेगी जब कि परीक्षण में भी खरी
उतरेगी- चयनित भूमि।
आजकल आधुनिक वैज्ञानिक
विधियों से भूमि की आर्द्रता,कसाव आदि की परीक्षा की जाती है।भूकम्प,दलदल आदि का
ज्ञान किया जाता है।चुम्बकीय और विद्युतीय,रेडियोधर्मीय ऊर्जा प्रवाह को
आंका-मापा-परखा जाता है।फिर भी हमारे मनीषियों ने कुछ विधियाँ इंगित की हैं,जिन पर
एक नजर डाल लिया जाय।
वास्तुप्रदीप श्लोक १९,तथा
१००,१०१,वास्तुराजवल्लभ १/१६, ज्योतिर्निबन्घ, वृहत्संहिता ५२/९०से ९३,विश्वकर्मप्रकाश,वृहद्वास्तुमाला
१०६,१११, वास्तुरत्नाकर ७० से ७८ तक इस विषय की विशेष चर्चा है।यथा-
मध्ये गृहे हस्तमितं
खनित्वा समपूरयेत्पांशुभिराश्रुतस्य।
सम्पूरयित्वाऽधिकतामुपेतः
पांशुर्यदा तद् गृहमुत्तमं स्यात्।।
समे
समं न्यूनतरे सदोषं न कारयेत्तत्र गृहं कदाचित्।।
जिस भूखण्ड को भवन-निर्माणार्थ चयनित किया गया है- पूर्व नियमों से
परीक्षा करके,उसके मध्य भाग में भूस्वामी के हाथ से नाप कर, एक घन हाथ(एक हाथ
लंबा,एक हाथ चौड़ा,एक हाथ गहरा) गड्ढा खोदे।फिर उस निकाली गयी मिट्टी को
पुनः उसी गड्ढे में यत्न पूर्वक भर दे।मिट्टी यदि शेष बच जाय तो भूमि को अति उत्तम
जाने,ना बचे तो मध्यम और घट जाय तो अधम समझे।
कर्तुश्च हस्तप्रमितं
खनित्वा खातं पयोभिः परिपूरितं चेत्।
वसेत्सुखार्थी
परिपूरितं स्य़ाच्छुष्कं भवेत्तत्क्षणमेव नाशः।।
स्थिरे
जले वै स्थिरता गृहस्य स्याद्दक्षिणावर्तजलेन सौख्यम्।
प्रियं
जलं शोषयतीह खातो मृत्युर्हिवामेन जलेन मृत्यः।।
पूर्वोक्त विधि से ही(१×१×१ हाथ)[हाथ का प्रमाण है केहुनी से अनामिका
अंगुली पर्यन्त-इस परिमाण को अरत्रि कहते हैं।इस प्रकार चौबीस अंगुल का एक
हाथ माना गया है] गड्ढा खोद कर उसे जल से
पूरित करे,और गौर से परीक्षा करे- यहाँ दो बातों का ध्यान रखना है- जल डालते समय
जलप्रपात का(गिरने का) जो स्वाभाविक वर्तुल बनता है,वह वामावर्त है या दक्षिणावर्त(Clockwise or anticlockwise)-वामावर्त का फल है- अशुभ और दक्षिणावर्त
शुभ है।दूसरी बात गौर करने की है- जल का ठहराव कैसा है।इस सम्बन्ध में ऊपर के
श्लोक में तो कुछ नहीं कहा गया है,किन्तु अगले श्लोक में समय का संकेत है-
खाते भूमिपरीक्षणे करमितं तत्पूरयेत्तन्मृदा,
हीने हीनफलं समे समफलं लाभो रजोवर्धने।
तत्कृत्वा जलपूर्णमाशतपदं गत्वा परीक्ष्यं पुनः,
पादोनेऽर्धविहीनकेऽथ निभृते मध्याऽधमेष्टाम्बुभिः।।
तथाच- श्वभ्रं
हस्तुमितं खनेदिह जलं पूर्णं निशास्ये न्यसेत्।
प्रातर्दृष्टजलं स्थलं सदजलं मध्यं
त्वसत्स्फाटितम्।।
ऊपर के तीनों प्रसंगों में गड्ढा खोदने की क्रिया की समानता है।अन्तर
है सिर्फ कि एक में मिट्टी पुनः भर देना है,दूसरे में जल भरने की बात की जा रही
है, और आगे भरे गये जल के टिकाऊपन का विचार किया जा रहा है।ऋषि का आदेश है कि सौ
पद चल कर जाये,और वापस आकर देखे कि भरे गये जल की क्या स्थिति है- जल का स्तर
ज्यों का त्यों हो तो अति उत्तम,चौथाई घट गया हो तो उत्तम,आधा घट गया हो तो
मध्यम,और चौथाई मात्र शेष रह गया हो तो अधम कोटि का भूखण्ड समझना चाहिए।
तथानिशादौ तत्कृत्वा
पानीयेन प्रपूरयेत्।
प्रातर्दृष्टे जले वृद्धिः समः पङ्के व्रणे क्षयः।।
यहां भी सारी प्रक्रिया उपर
के समान ही है,अन्तर है सिर्फ परीक्षण-काल का-यानी गड्ढा सायं काल में खोदे,और
जल-पूरित कर के रात भर छोड़ दे।प्रातः काल परीक्षण करने पर यदि जल किंचित मात्र भी
शेष हो तो भूखण्ड को अति उत्तम जाने,कीचड़ बचा रहे तो मध्यम जाने,और सूख कर दरार
पड़ी हो तो अधम समझना चाहिए।
इसी प्रक्रिया में एक और
परीक्षण करने का सुझाव कुछ विद्वानों ने दिया है-गड्ढे के तल में चारो कोनों पर
एक-एक प्रज्ज्वलित घृत-दीप अक्षत पर स्थापित कर दे।ध्यातव्य है कि सभी दीयों में
घी की मात्रा समान हो। दीपक के प्रज्ज्वलन का काल-मापन करे।सभी दीपक एक साथ बुझे
तो उत्तम, दक्षिण-पश्चिम का दीपक पहले बुझे तो मध्यम,और पूरब-उत्तर का दीपक पहले बुझे
तो अधम भूखण्ड जाने।दीपक-परीक्षा की इसी विधि में एक और रहस्य भी छिपा हुआ है- वर्णार्थ-भूमि-ज्ञान,अर्थात
पूर्व दिशा का दीपक अधिक देर तक जलता रहे तो इसे ब्राह्मणार्थ उत्तम भूमि
जाने,उत्तर दिशा का दीपक अधिक देर तक जलता रहे, तो इसे क्षत्रियार्थ उत्तम भूमि
जाने,पश्चिम दिशा का दीपक अधिक देर तक जलता रहे, तो इसे वैश्यार्थ उत्तम भूमि
जाने,और दक्षिण दिशा का दीपक अधिक देर तक जलता रहे तो इसे शूद्रार्थ उत्तम भूमि
जाने।यदि सभी दीपक समान रुप से जलता रहे तो ऐसी भूमि को सबके लिए उत्तम कहना
चाहिए। (इसमें छिपा हुआ अर्थ यह भी प्रतीत होता है कि जिस-जिस दिशा का दीपक अधिक
देर तक जलता रहे,उस-उस वर्ण के लिए उत्तम कहा जाय।जैसे- उत्तर-पश्चिम दिशा का दीपक
देर तक जलता रहा-इससे यह समझा जाय कि क्षत्रिय और वैश्य के लिए भूमि उत्तम है,और
ब्राह्मण-शूद्र के लिए त्याज्य।
इस प्रकार के
दीपक-प्रयोग से चारो वर्णों के लिए भूखण्ड के योग्यायोग्य का परीक्षण करना,वाराहमिहिर
के मत से भी प्रसस्त है।साथ ही उपर कहे गये अन्य तथ्य भी परीक्षित होते हैं,तथा
कुछ और बातों की भी परीक्षा हो जाती है।यथा-
गृहमध्ये हस्तमितं
खात्वा परिपूरितं पुनः स्वभ्रम्।
यद्यूनमनिष्टं
तत्समे समं धन्यमधिकं यत्।।
स्वभ्रमथवाम्बुपूर्णं
पदशतमित्वा गतस्य यदि नोनम्।
तद्धन्यं
यच्च भवेत्पलानि पांश्वाढकं चतुष्षष्टिः।।
आम्रे
वा मृत्पात्रे स्वभ्रे दीपवर्तिरभ्यधिकम्।
ज्वलति
दिशि यस्य शस्ता सा भूमिस्तस्य वर्णस्य।।
श्वभ्रोषितं
न कुसुमं यस्य प्रम्ल्लायतेऽनुवर्णसमम्।
तत्तस्य
भवति शुभदं यस्य च यस्मिन्मनोरमते।।
वाराहमिहिर के इन
परीक्षण-सूत्रों में ऊपर वर्णित अन्य परीक्षा-विधि-वर्णित तथ्यों के अतिरिक्त कुछ और
बातें समाहित हैं-
१. गड्ढे से निकाली गयी
मिट्टी को तौलने की भी बात आती है।तौलने का तरीका भी अद्भुत है-गड्ढा विलकुल सही
माप का हो-एक घन हाथ मात्र।इस आकार के बने बरतन को, महान गणितज्ञ भास्कराचार्य की
लीलावती नामक ग्रन्थ में मागधकारिका कहा गया है।इस मागधकारिका के चौंसठवे
भाग को आढ़क कहते हैं।यदि निकाली गई मिट्टी का एक आढ़क बराबर चौंसठ पल हो
तो भूमि को अति उत्तम कहना चाहिए।कम हो तो अधम।
२.ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य,शूद्र के लिए क्रमशः श्वेत,रक्त,पीत और नील
वा श्याम वर्णी पुष्प लेकर उस गड्ढ़े में सायं काल स्थापित कर दे।प्रातः काल देखने
पर जो पुष्प अपेक्षाकृत कम कुम्हलाया हुआ हो,उस वर्ण के लिए भूमि प्रसस्त जाने।
३वाराहमिहिर ने एक और बहुत ही महत्त्वपूर्ण युगानुरूप बात का संकेत
दिया है- यस्य च यस्मिन्मनोरमते-
जहाँ जिसका मन रम जाय(रहने में अच्छा लगे)वही उसके लिए उत्तम है।(अब भला
किसी जुआरी-शरावी को वृन्दावन धाम में मन थोड़े जो लगेगा।)
शास्त्रों में एक और उपयोगी
और व्यावहारिक परीक्षण-विधि की चर्चा है-चयनित भूखण्ड को साफ-सुथरा कर,हल से
जोतवाकर- पंचान्न(धान,गेहूं,मूंग,जौ, और तिल) बो दे।मौसम के अनुकूल सिंचाई भी कर
दे।अब उन बीजों के अंकुरण पर विचार करे।तीन दिनों में अंकुरित हो जाय तो उत्तम,पांच
दिनों में अंकुरित हो तो मध्यम,और सात वा अधिक दिनों में अंकुरित हो तो अधम भूमि
जाने।प्रत्यक्षतः इस विधि से भूमि की उर्वरा-शक्ति की परीक्षा हो रही है, किन्तु
इसमें भी तात्त्विक भेद छिपा है।विद्वान बन्धु जिन्हें तत्वों का रहस्य ज्ञात
है,इस विधि से सहज ही भूमि की गहन परीक्षा कर लेंगे।
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वास्तुभूमिशोधनः-
भूमि-परिग्रह क्रम में
अब बारी है- शोधन की।इस शोधन-प्रक्रिया में भी परीक्षण का एक अति महत्त्वपूर्ण
तथ्य छिपा है,जिसके बिना- ऊपर कहे गये सभी परीक्षण व्यर्थ हो जा सकते हैं।वस्तुतः
अब तक आकृति,प्रलम्ब, प्लवत्व, संकोचादि जो भी परीक्षण कहे गये – वे सब के सब
वाह्य परीक्षण ही हैं,ठीक वैसे ही जैसे कोई चिकित्सक किसी रोगी का चेहरा और शरीर
देख कर कुछ रोग-निदान करे; किन्तु जब तक उसका नाड़ी-परीक्षण,मल-मूत्र-रक्तादि के
साथ-साथ एक्स-रे आदि गहन जांच नहीं हो जाता,तब तक समुचित जांच कैसे कहा जा सकता है?
यानी वाह्य परीक्षण के साथ-साथ आन्तरिक परीक्षण भी अति आवश्यक है। मनुमहाराज ने
पांच क्रियाओं का निर्देश दिया है।यथा-
सम्मार्जनोपाञ्जनेन
सेकेनोल्लेखनेन च।
गवां
च परिवासेन भूमिः शुद्ध्यति पञ्चभिः।।(मनुस्मृति ५/१२४)
१. सम्मार्जन- जमीन की सम्यक् सफाई(घास-फूस,झाड़-झंखाड़) होनी चाहिए।
२. इसके बाद जल,गंगाजल,गोमूत्र,गोबर आदि का छिड़काव करना चाहिए।(यहां
पंचगव्य की चर्चा नहीं है)
३. कम से कम एक अहोरात्र(चौबीस घंटे- एक सूर्योदय से दूसरे सूर्योदय
तक) गायों के समूह को उस भूखण्ड पर ठहराना चाहिए।
४. उस अन्तराल में एकत्र मल-मूत्र से भूमि का लेपन करना चाहिए।
५. खनन- इस क्रिया के अन्तर्गत विधान है कि पूरे भूखण्ड की
पुरूष-प्रमाण मिट्टी काट कर अन्यत्र फेंक दे।पुरूष यानी १२०अंगुल (१२अंगुल = १ बित्ता, १०बित्ता=१ पुरूष)।
पुरूष-प्रमाण की खुदाई
का तात्पर्य यह है कि उसके बाद की गहराई में यदि किसी प्रकार का शल्यादि दोष है,
तो भी भूमि दोषपूर्ण नहीं है-"पुरूषाधः स्थितं शल्यं न गृहे दोषदं
भवेत्"।किन्तु ध्यान रहे- यह बिलकुल सामान्य सा नियम है।सामान्य शल्यादि
दोष का सिर्फ निवारण होता है,इस खनन विधान से। विशेष स्थिति में क्रमशः तीन वा पाँच
पुरूष-प्रमाण खनन का विधान भी बतलाया गया है।(हालांकि यह विशेष क्रिया अन्य
शल्य-परीक्षण-विधि अपनाने पर यदि संशय-संकेत दे तब,अन्यथा नहीं)
खनन के समय निकलने वाले
पदार्थों के आधार पर भूखण्ड का गुणागुण वर्णन शास्त्रकारों ने इस प्रकार किया है-
काष्ठेष्टिकातुषाङ्गारपाषाणाऽस्थिसरीसृपान्।
हलाग्रेणोद्धृतान्दृष्ट्वा
तत्र विद्यादिदं फलम्।
काष्ठेष्वग्निभयं
विद्यादिष्टिकासु धनागमः।
अङ्गारेषु तथा रोगं
तुषेष्वेव धनक्षयः।।
पाषाणेष्वपि कल्याणं
कुलनाशं तथाऽस्थिषु।
सरीसृपेषु सर्वेषु
तादृग्भ्यो भयमादिशेत्।।
(वास्तुरत्नाकर-भूमिपरिग्रहप्रकरणम् ८०-८२)
अर्थात्- भूमिशुद्धि करते समय हल-प्रवहण अथवा खनन में यदि लकड़ी का
टुकड़ा विशेष मात्रा में मिले तो भविष्य में अग्नि-भय का संकेत है।पुरानी ईँटे
मिलें तो धन की प्राप्ति का योग है।राख या कोयला मिले तो धन का नाश समझे। पत्थर
मिले तो कल्याण समझें।और हड्डी निकले तो कुल का विनाश समझे।अन्य प्रकार के जीव
जन्तु- विच्छु,सर्प,गिरगिट,मेढक,चूहा, नेवला,आदि के पूर्व वास का संकेत मिले तो
तत्ततभांति जीवों से क्लेश का संकेत जाने।
कुछ इसी प्रकार का
फल-संकेत अन्य ग्रन्थों में भी मिलता है।यथा-
खाते यदाश्मा लभते
हिरण्यं तथेष्टिकायां च समृद्धिरत्र।
द्रव्यं
च रम्याणि सुखानि धत्ते ताम्रादिधातुर्यदि तत्र वृद्धिः।।
पिपीलिका षोडशपक्षनिद्रा भवन्ति चेत्तत्र
वसेन्न कर्ता।
तुषास्थिचीराणि
तथैव भश्मान्यण्डानि सर्पा मरणप्रदास्युः।।
वराटका
दुःखकलिप्रदात्री कार्पास एवातिददाति दुःखम्।
काष्ठं
प्रदग्धं त्वतिरोगभीतिर्भवेत्कलिः खर्परदर्शनेन।।
लौहेन
कर्तुर्मरणं निगद्यं विचार्य वास्तु प्रवदन्ति धीराः।।
(वास्तुरत्नाकर भू.प.८३-८५,वास्तुप्रदीप १०४-१०६)
अर्थात-
खोदते समय यदि पत्थर मिले तो सुवर्णादि धन-वृद्धि,ईंट मिले तो नाना
प्रकार की सम्पत्ति का लाभ,धन मिले तो नाना तरह के सुख,ताम्र आदि धातु मिले तो
अनेक प्रकार से वृद्धि और लाभ,पिपीलिका(चींटी,दीमक)मेढक मिले तो सुख-वास में
ह्रास,भूसी,हड्डी,चिथड़े,भस्म,अण्डे,सर्प इत्यादि मिले तो मरण तुल्य दुःख सद्यः
मरण,कौड़ी मिले तो दुःख और कलह,कपास मिले तो अति दुःख,जली हुयी लकड़ी या कोयला
मिले तो लड़ाई-झगड़े की सम्भावना,और लोहा मिले तो सद्यः मृत्यु जाने।अतः इन बातों
की परीक्षा बुद्धिमानी पूर्वक करके ही भवन निर्माण कार्य करना चाहिए।
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