अध्याय ११. (ग)
– शल्योद्धार
वास्तुशास्त्र में शल्य
का अर्थ है- अस्थि(हड्डी),कील,काष्ठ,खर्पर,भस्मादि- जो भी भूमि के अन्दर दबे पड़े
हैं,जिनसे गृहस्वामी को क्षति हो सकती है;किन्तु कुछ ऐसे भी पदार्थ-संकेत
हैं,जिनसे लाभ ही लाभ है।इन सभी बातों की चर्चा वास्तुशास्त्र के
शल्योद्धार-प्रकरण का विषय है।
भूखण्ड चयन के पश्चात्
शोधन की विधि बतलायी गयी,तदन्तर्गत शल्य की भी चर्चा हुयी।इसी प्रसंग मे अब आगे
शल्य-शोधन(शल्योद्धार) की बात आती है।यूँ तो सीधे कह दिया गया कि पुरूष-प्रमाण
मिट्टी खोद कर अन्यत्र फेंक दे- सभी प्रकार के शल्य-दोष से मुक्ति मिल गयी;किन्तु
बात इतने से ही समाप्त नहीं हो जाती।अतः शल्योद्धार का ज्ञान भी वास्तुशास्त्री के
लिए अनिवार्य है।शल्योद्धार करने के लिए शल्य-ज्ञान की विधि का ज्ञान
आवश्यक है।सच पूछा जाय तो यह खुदाई के बिना असम्भव सा है,और पूरे भूखण्ड की पूरी
खुदाई भी असम्भव नहीं, तो कम से कम कठिन अवश्य है।अतः इस दुसाध्य कार्य को सरल
बनाने हेतु मनीषियों ने कुछ सूत्र सुझाये हैं।प्रसंग वस उनकी चर्चा कर ली जाय-
प्रश्नत्रयं
वापि गृहाधिपेन देवस्य वृक्षस्य फलस्य चापि।
वाच्यं
हि कोष्ठाक्षरसंस्थितेन शल्यं विलोक्यं भवनेषु सृष्ट्या।।
आ
का चा टा ए त शा पा य वर्गाः,
प्राच्यादिस्थे
कोष्ठके शल्यमुक्तम्।
केशाङ्गाराःकाष्ठलौहास्थिकाद्यं,
तस्मात्
कार्यं शोधनं भूमिकायाः।।
शल्ये
गवां भूपभयं हयानां रूजः शुनां वै कलहप्रणाशौ।
खरोष्ट्रयोर्हानिमपत्यनाशं
नृणामजस्याग्निभयं तनोति।।
(वास्तुराजवल्लभ-१९,२०,२१ एवं
वास्तुरत्नाकर-शल्योधारप्रकरणम्२४-२६)
अर्थात् पवित्र और श्रद्धावनत भूस्वामी से प्रश्न कराकर क्रमशः तीन
नाम- देवता, वृक्ष और फूल का पूछें।उसके उच्चरित शब्द पर ध्यान दें।प्रथमाक्षर पर
विचार करें-किस कोष्ठक में पड़ा है,तदनुसार फल कथन करें।अन्तिम श्लोक में विभिन्न
शल्यों का प्रभाव बतलाया गया है।इस सूत्र को निम्न चक्रों से स्पष्ट किया जा रहा
है- चक्रांक एक में शल्य की दिशा और चक्रांक दो में शल्य-प्रभाव दर्शाया गया है।
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चक्रांक
-१
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ईशान
प फ ब भ म
|
पूर्व
अ इ उ ऋ ॡ
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क ख ग घ ङ
|
|
उत्तर
श ष स ह
|
मध्य
य र ल व
|
दक्षिण
च छ ज झ ञ
|
|
वायव्य
त थ द ध न
|
पश्चिम
ए ऐ ओ औ
|
नैऋत्य
ट ठ ड ढ ण
|
चक्रांक- २
ऊपर के सूत्र में कुछ अभाव या विषय-लोप परिलक्षित होता है।अतः शंका
होती है- १) सभी वर्ण(स्वर-व्यंजन)चक्र में आगये हैं(स्वरों में तीनोंदीर्घ-आ,ई,ऊ
मूल ह्रस्वस्वर में ही समाहित हैं,तथा क्ष,त्र,ज्ञ तो संयुक्ताक्षर हैं)वक्ता कोई
भी वर्ण उच्चारित करेगा,तो उसे कोष्ठक में स्थान मिल ही जायेगा।तो क्या शल्य मुक्त
भूमि होगी ही नहीं?
२) चक्रांक दो में गिनाये
गये छः शल्य-प्रकार से भिन्न शल्य(जैसे हाथी, वन्दर,व्याघ्र..)क्या दोष
मुक्त कहे जांये?
३) देवता,वृक्ष वा फल- क्या
तीनों नाम ले?फिर तीनों के तीन कोष्ठक होंगे।तो क्या परिणाम मिश्र होगा?
अतः अब अन्य सूत्र पर विचार करें-
गृहस्य पिण्डिका
चैव कृत्वा च नव खण्डिका।
तेषु-तेषु च
भागेषु पूर्वादिक्रमतो बुधः।। (वास्तुरत्नाकर-शल्योद्धार-२७)
तथा च ज्योतिर्निबन्ध,वास्तुरत्नाकर,वास्तुरत्नावली-
स्पृत्वेष्टदेवतां
प्रष्टुर्वचनस्याद्यमक्षरम्।
गृहीत्वा
तु ततः शल्याशल्यं सम्यग्विचार्यते।।
अ
क च ट त प य हया वर्गा पूर्वादिमध्यान्ताः।
शल्यकरा
इह नाऽन्ये शल्यगृहे निवसतां दोषः।।
पृच्छायां
यदि अः प्राच्यां नरशल्यं तदा भवेत्।
सार्धहस्तप्रमाणेन
तच्च मानुषमृत्युकृत्।।
आग्नेयां
दिशि कः प्रश्ने खरशल्ये करद्वये।
राजदण्डो
भवेत्तत्र भयं चैव प्रवर्त्तते।।
याम्यायां दिशि चः प्रश्ने कुर्यादाकरि
संस्थितम्।
नरशल्यं
गृहे तस्य मरणं चिररोगतः।।
नैऋत्यां
दिशि टः प्रश्ने सार्धहस्तादधस्तले।
शुनोऽस्थि
जायते तच्च बालानां जनयेन्मृतिम्।।
तः
प्रश्ने पश्चिमायां तु शिशोः शल्यं प्रजायते।
सार्धहस्ते
गृहस्वामी न तिष्ठति सदा गृहे।।
वायव्यां
दिशि पः प्रश्ने तुषाङ्गाराश्चतुष्करे।
कुर्वन्ति
मित्रनाशं च दुःस्वप्नदर्शनं सदा।।
उदीच्यां
दिशि यः प्रश्ने विप्रशल्यं कटेरधः।
तच्छीघ्रं
निर्धनत्वाय कुबेरसदृशस्य हि।।
ऐशान्यां
दिशि हः प्रश्ने गोशल्यं सार्धहस्ततः।
तद्गोधनस्य
नाशाय जायते गृहमेधिनः।।
हपया
मध्यमे कोष्ठे वक्षोमात्रे भवेदधः।
नृकपालं
कचा भश्म लोहं तत्कुलनाशनम्।।
उक्त श्लोकों के भावार्थ को स्पष्ट करने के लिए निम्न चक्रों का
अवलोकन करना चाहिए-
चक्रांक 3.
|
उक्त विधि अपेक्षाकृत सरल,और तर्क-संगत प्रतीत होती है।इस विधि से
शल्य-ज्ञान करने के लिए प्रातः स्नानादि से निवृत्त होकर, स्वस्तिवाचन,पुण्याहवाचन,
इष्टदेव,कुलदेवादि का संक्षिप्त रीति से पूजन करने के बाद वास्तु-ज्ञाता भूस्वामी
से प्रश्न करे।चारो वर्णों के लिए क्रमशः- ब्राह्मण से किसी फूल का नाम,क्षत्रिय
से नदी का नाम,वैश्य से देवता का नाम और शूद्र से फल का नाम पूछे।भूस्वामी के मुख
से उच्चारित शब्द के आद्यक्षर को ऊपर के कोष्ठक के अनुसार विचार कर शल्य-निर्धारण
करे।इस सूत्र में अन्य संशय तो नहीं, किन्तु प और य वर्ण दो कोष्ठकों में
आया है।ऐसी स्थिति में युक्ति-संगत है कि दोनों क्षेत्रों की परीक्षा करे(किन्तु
पहले मध्य-क्षेत्र की)।
प्रख्यात ज्योतिर्विद नेमीचन्द्र
शास्त्री ने अपने ग्रन्थ- भारतीय ज्योतिष में शल्य-ज्ञान हेतु एक अति सरल सूत्र
बतलाया है।व्यावहारिक रुप से मुझे लगता है कि पहले इसी सूत्र का प्रयोग करना
चाहिए।पुनः अन्य सूत्रों का।
विधि है- वर्णानुसार पुष्प,देवता,नदी,और फल का नाम गृहस्वामी के पूछा
जाय। उच्चारित शब्द के अक्षरों को दो से गुणित करे,और मात्राओं को चार से गुणित
करे।पुनः दोनों को एकत्र कर योगफल में नौ का भाग दे दे।शेष से फल विचार करे।सम शेष
भूखण्ड के निःशल्या का द्योतक है,और विषम शेष शल्यता का।इस प्रयोग में शल्य का
संकेत मिल जाने पर अन्य सूत्र द्वारा शल्य की अन्य सूचनायें लेने में सुविधा होगी।
अब
यहाँ ऊपर के चक्र को विस्तृत सारणी से स्पष्ट किया जारहा है -
चक्रांक चार
दिशा
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अक्षर
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प्रकार
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स्थिति
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प्रभाव
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पूर्व
|
अ
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मनुष्यशल्य
|
डेढ हाथ नीचे
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मृत्यु
|
अग्नि
|
क
|
गर्दभशल्य
|
दो हाथ नीचे
|
राजदण्ड-भय
|
दक्षिण
|
च
|
मनुष्यशल्य
|
कटि पर्यन्त
|
दुसाध्यरोग,मृत्यु
|
नैऋत्य
|
ट
|
श्वानशल्य
|
डेढ़ हाथ नीचे
|
बालकों की मृत्यु
|
पश्चिम
|
त
|
शिशुशल्य
|
डेढ़ हाथ नीचे
|
प्रवास योग
|
वायव्य
|
प
|
तुष,कोयला
|
चार हाथ नीचे
|
मित्रनाश,दुःस्वप्न
|
उत्तर
|
य
|
ब्राह्मणशल्य
|
कटि पर्यन्त
|
घोर दरिद्रता
|
ईशान
|
श
|
गौशल्य
|
डेढ़ हाथ नीचे
|
पशुक्षय
|
मध्य
|
ह-प-य
|
नरकपाल,
केश,भस्म,
लौहादि
|
छाती पर्यन्त
|
कुलनाश
|
प्रसंगवश एक बात और स्पष्ट कर देना उचित प्रतीत होता है- इस क्षेत्र
में अल्पक्षों और पाखण्डियों की भरमार है।कई बार तो सुना है कि रक्तमांसादि-लिप्त
अस्थि प्राप्त हुआ।मैं ऐसे कई पेशेवरों के सम्पर्क में आया हूँ,जो छल-बल का प्रयोग
कर भोले और आस्थावान लोगों को ठगते हैं।इससे एक ओर शास्त्र की बदनामी होती है,और
दूसरी ओर हम ठगी का शिकार होते हैं।अतः सावधानी की आवश्यकता है।रक्तमांसादि लिप्त
ताजा अस्थि भूगर्भ में कैसे पड़ा हो सकता है- यह सोचने वाली बात है।भूस्वामी को
चाहिए कि सावधान रहकर अपने समक्ष खुदाई कराये,और मजदूरों पर ध्यान रखे।पाखंडी लोग
प्रायः मजदूरों को ही मिला-फुसला कर अपना उल्लु सीधा करते हैं।दूसरी बात यह कहना
चाहूँगा कि शल्योद्धार-कार्य कोई बहुत कठिन कार्य नहीं है।अपने योग्य कुलपुरोहित
से यह कार्य कराया जा सकता है,वशर्ते कि शल्योद्धार-साधना-सिद्ध हों।
शल्योद्धार-साधनाः- वास्तुशास्त्र-मर्मज्ञों ने एक अद्भुत
मन्त्र-निर्देश किया है-
ऊँ धरिणी विदारिणी भूत्यै नमः स्वाहा।इसका उपयोग सिर्फ भूगत शल्यज्ञान के लिए
ही नहीं,प्रत्युत भूगत धन-सम्पदा,जलस्रोत आदि विभिन्न प्रकार के भूगर्भीय ज्ञान
में सहयोगी होता है।आगे अहिबलचक्र,धराचक्र,उदकार्गल आदि के प्रयोग के समय इसकी
विशेष आवश्यकता पड़ेगी।अतः इसकी एक आवृति की साधना तो अवश्य ही कर लेनी चाहिए।बाद
में अलग-अलग प्रयोगों में अलग-अलग संख्या में पुनर्साधना की आवश्यकता होती है। शल्योद्धार-साधक
को चाहिए कि नवरात्र या अन्य शुभ मुहूर्त में उक्त मन्त्र की विधिवत साधना कर ले।सवालाख
मन्त्र- जप यथासंख्या नित्य क्रम से सम्पन्न करने के बाद, तत्दशांश तिलादि शाक्ल्य
से होमादि सम्पन्न करें।
पुनः, प्रयोग के समय वांछित भूखण्ड के
मध्य में पूर्व या उत्तर मुख बैठ कर सायंकाल में तीन हजार जप करे।अगले दिन यजमान
से स्वस्तिवाचनादि कराकर प्रश्न करे।इस प्रकार शल्य-शोधन सिद्ध होता
है।प्रयोग-क्रम में ऐसा भी हो सकता है कि निर्दिष्ट स्थान पर प्रत्यक्षतः शल्य न
भी मिले,क्यों कि छोटे अंशों की सही पहचान कठिन हो जाता है।फिर भी क्रिया का
औचित्य और महत्त्व तो है ही।अतः शंका-समाधान आवश्यक है।अस्तु।
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