पुण्यार्कवास्तुमंजूषा-31

अध्याय१२.वास्तुमण्डल-साधन 
(1)       
    (धन-ऋणादि-साधन-सूत्र-सारणी अथवा पिण्ड-साधन)
    हर तरह से छानबीन कर, भूखण्ड का निश्चय हो जाने के बाद अब वास्तु- मण्डल की सीमा का निर्धारण करना चाहिए।इसके लिए सामान्यतः, किसी भी पंचाग में दिये गये दीर्घ-विस्तार पिण्ड-सारणी का उपयोग किया जा सकता है। इसके अन्तर्गत कुछ संभावित पिण्डों को उनके परिणाम सहित दर्शाया गया है।
वास्तुशास्त्री को इसके आन्तरिक तथ्य का भी ज्ञान होना चाहिए,इस विचार से इस सारणी के तथ्यों पर प्रकाश डालने का प्रयास किया जा रहा है।वास्तुराज वल्लभ में इसके औचित्य पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है-    आयर्क्षव्ययतारकांशकविधोराशिं गृहाद्ये तथा।
    धान्यं सौख्ययशोभिवृद्धिरधिका यस्मादतः कथ्यते।
    आयास्तु ध्वजधूमसिंहशुनका गौरासभेभाः क्रमात्।
    ध्वांक्षस्त्वष्टम आयकेषु विषमाः श्रेष्ठाः सुराणां गृहे।। (३-१)
अर्थात् आय,नक्षत्र(तारा,राशि),अंश,द्रव्य,ऋण,तिथि,योग,आयु आदि के शुभत्व से गृहादि में सौख्य,धान्य,यशादि की वृद्धि होती है।अतः इसका सतर्कता से विचार करना चाहिए।
    प्रसंगवश, साधन के मूल आधार(मापन)के सम्बन्ध में वहीं अगले श्लोक में कहते हैं-मानं देवगृहादिभूपसदने शास्त्रोक्तहस्तेन तत् ,
       गेहे कर्मकरस्य नाथकरतः स्यात्तार्णछाद्येगृहे।
      आयो दण्डकाराङ्गुलादिमपितो हस्ताङ्गुलैरंशतः,
      क्षेत्रस्याप्यनुमानतोऽपि नगरे दण्डेन मानं पुरे।। (३-२)
अर्थात् देवता और राजा का गृह शास्त्रोक्त हाथ से बनाना चाहिए।सामान्य जन के लिए शिल्पी(कारीगर,वास्तुकार)के हाथ से और अति साधारण(तृणादि-आछादित)घर में गृहेश के हाथ से मापन करना चाहिए।आगे कहते हैं कि नगर और ग्रामयोजना का मापन दण्ड से ही होना चाहिए।
अन्यश्चः- स्वामीहस्तप्रमाणेन ज्येष्ठपत्नीकरेण वा।
        ज्येष्ठपुत्रकरेणाऽपिकर्मकारकरेण च।(इस श्लोक में बहुपत्नी और बहुपुत्र का भी शंका समाधान करते हुए निर्देश देते हैं कि प्रथमा पत्नी और प्रथम पुत्र का ही हस्तप्रमाण लिया जाए,न कि अन्य का।
दूसरी बात ध्यान रखने की है, कि मापन का आधार एक तरह का हो। दण्ड(पुराना नाप- कठियावांस,जरीब आदि),आधुनिक नाप- फीट/मीटर आदि से, या स्वामी के हाथ,वित्ता,वा अंगुल से- जो भी पैमाना लिया जाय,पूरे निर्माण कार्य में उसका ही उपयोग हो।इस नियम का शास्त्रीय और व्यावहारिक लाभ दोनों है।मान लिया कि आपने जिस भूखण्ड का चुनाव किया है, उसे हाथ से मापने पर आय-वारादि-साधन करने पर संतोषजनक फल नहीं आ रहा है,ऐसी स्थिति में अंगुल-माप का उपयोग कर देखा जा सकता है।इसी तरह युगानुसार फीट/मीटर आदि पैमाने भी लिए जा सकते हैं।ध्यान सिर्फ इस बात का रखना है कि पूरे कार्य में पैमाना एक हो।ऐसा नहीं कि आय साधन हाथ से कर लें और धन साधन अंगुल से और अंश साधन फीट से....।वैसे स्वामीहस्त सर्वोत्तम माप है।
   अब साधन-विधि की चर्चा करते हैं।इस सम्बन्ध में मुहूर्तचिन्तामणि के वास्तु प्रकरण में कहा गया है-
    पिण्डे नवाङ्काङ्गगजाग्निनागनागाब्धिनागैर्गुणिते क्रमेण।
    विभाजिते नागनगाङ्क-सूर्य-नागर्क्षतिथ्यृक्ष-खभानुभिश्च।
    आयो वारोंऽशको द्रव्यमृणमृक्षं तिथिर्युतिः।
    आयुश्चाथ गृहेशर्क्षगृहभैक्यं मृतिप्रदम्।।
अर्थात् वांछित भूखण्ड के लम्बाई और चौड़ाई को गुणा करने से जो पिण्ड बने, उसे सुविधा के लिए नौ स्थानों पर लिखे।अब क्रमशः (बारीबारी से) उसमें ९,९,६,८,३,८,८,४,८- इन अंकों से गुणा करे।अब, इस प्रकार प्राप्त नौ प्रकार के गुणनफलों में फिर से क्रमशः ८,७,९,१२,८,२७,१५,२७,१२० से भाग दे।इस क्रिया से हमें नौ प्रकार के शेषफल प्राप्त होगें।आगे का अभीष्ट ये शेषफल ही हैं,जो क्रमशः आय,वार,अंश,धन,ऋण,नक्षत्र,तिथि,योग,और आयु कहे जाते हैं।
इस पर अभी विस्तार से चर्चा होगी,किन्तु पहले कुछ अन्य पुस्तकों की बातें कर लें।
    आधुनिक काल की पुस्तक- नेमीचन्द्र शास्त्री रचित भारतीय ज्योतिष में सारी बातें तो मुहूर्तचिन्तामणि जैसी ही हैं,किन्तु पिण्डेनवाङ्काङ्गगजाग्नि के अंकक्रम में अन्तर है- प्रारम्भिक ९,९ के स्थान पर १,२ कहे गये हैं।मूल श्लोक की चर्चा नहीं है।अतः छापे की भूल की आशंका है।गीताप्रेस से प्रकाशित भवनभास्कर में आयादि नौ में छः की ही चर्चा है
    अब ऊपर के सूत्र को विस्तार से समझें -
उदाहरणार्थः- भूस्वामी के हाथ(कोहनी से अनामिका अंगुली तक का नाप) से पन्द्रह हाथ लम्बे और बारह हाथ चौड़े भूखण्ड पर उक्त सूत्र का साधन करते हैं।
अब १५ हाथ×१२ हाथ=१८० हाथ का गृहपिण्ड हुआ।इस निश्चित पिण्डमान से ही आगे की सारी क्रियायें सम्पन्न होंगी।
सूत्र में पहला है आय-साधन,जिसका गुणांक है- ९,और भाजकांक है- ८।
अतः पिण्डांक १८० × ९ = १६२०
अब,प्राप्त गुणनफल १६२० ÷ ८ = २०२ लब्धि,और शेष(लब्धि को त्याग कर शेष मात्र ग्रहण करेंगे)।ज्ञातव्य है कि आय आठ प्रकार का होता है।यथा- १.ध्वज,२.धूम्र, ३.सिंह,४.श्वान,५.वृष,६.खर,७.गज,और ८.उष्ट्र।इसीलिए आठ से ही भाजित किया गया है पिण्डांक के गुणनफल को।यहां दो बातें और जान लेने योग्य हैं- उष्ट्र को कोई विद्वान काक भी सम्बोधित करते हैं,इससे भ्रमित नहीं होना चाहिए।फल दोनों का एक ही है।और दूसरी बात यह कि इस तरह कहीं भी वास्तु गणित में भाजकांक तुल्य शेष को भी शामिल किया गया है।जैसे यहीं हम देख रहे हैं कि भाजकांक ८ है,ऐसी स्थिति में आठ शेष कैसे होगा?जब भी होगा तो शून्य होगा।यानी भाजकांक तुल्य शेष का अर्थ हुआ- शून्य शेष।वास्तु-ज्योतिष के नये अभ्यासियों को इससे भ्रमित नहीं होना चाहिए।
अव मूल विषय पर आते हैं- विषम आय वाला गृह शुभ,एवं सम आय वाला गृह अशुभ होता है।दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि ध्वज,सिंह,वृष,और गज आय शुभ, तथा धूम्र,श्वान,खर और उष्ट्र वा काक आय अशुभ होता है।
अब इसी भांति पूर्व पिण्डमान से वार-साधन करें।वार(दिन) सात होते हैं।
 पिण्डांक १८० × ९ = १६२०
 अब,प्राप्त गुणनफल १६२० ÷ वारांक ७ = २३१ लब्धि,और शेष।तीन शेष का अर्थ हुआ रव्यादि वारक्रम में तीसरा यानी मंगलवार।वार-साधन का फल है कि सूर्य और मंगल के वार त्याज्य होते हैं,शेष ग्राह्य।यथा-सूर्यारवारराश्यंशाः सदा वह्निभयप्रदाः।शेषग्रहाणां वारांशाः कर्तुरिष्ठार्थसिद्धिदाः।(वास्तुरत्नाकर५/३१)
     अब इसी भांति पूर्व पिण्डमान से अंश-साधन करेंगे।अंशसाधन का सम्बन्ध ग्रहों से है(इसमें सूर्य और मंगल का अंश त्याज्य है,शेष ग्राह्य,जैसा कि पूर्व श्लोक से स्पष्ट है)।यथा-
    गृहपिण्डं रसैर्गुण्यं ग्रहैश्चापिविभाजितम्,
    यच्छेषं तद्भवेदंशस्तस्येशाश्चापि कीर्तिताः।
    अर्कश्चन्द्रः कुजो राहुर्जीवमन्दज्ञकेतवः,
    भृगुपुत्रः क्रमेणैते अंशाधीशाः प्रकीर्तिताः। (वास्तुरत्नाकर५/३२,३३)
     पिण्डांक १८० × ६ = १०८०    
अब,प्राप्त गुणनफल १०८० ÷ ९ = १२० भागफल और शेष।
ज्ञातव्य है कि अंश में रवि और मंगल के अंश(१-३)त्याज्य हैं,शेष ग्राह्य।
      अब इसी भांति पूर्व पिण्डमान से धन-साधन करेंगे।
पिण्डांक १८० ×    ८= १४४०        
अब,प्राप्त गुणनफल १४४० ÷ १२ = १२० लब्धि,  शेष(यानी १२ शेष)
  अब इसी भांति पूर्व पिण्डमान से ऋण-साधन करेंगे।
पिण्डांक १८० × ३ = ५४०
अब,प्राप्त गुणनफल ५४० ÷ ८= ६७ लब्धि,शेष।
ज्ञातव्य है कि धन और ऋण का परिणाम दोनों की न्यूनाधिक स्थित के अनुसार किया जाता है।नियमतः धन-साधन का शेष अधिक होना चाहिए और ऋण-साधन का शेष कम।क्योंकि व्यवहार में भी देखा जाता है कि आय का साधन अधिक होना चाहिए,और व्यय कम,तभी संचय की स्थिति बनती है,अन्यथा नहीं।
    अब इसी भांति पूर्व पिण्डमान से नक्षत्र-साधन करेंगे-
पिण्डांक १८० ×    ८= १४४०        
अब,प्राप्त गुणनफल १४४० ÷ २७    = ५३ लब्धि, ९ शेष।  
सत्ताइस नक्षत्रों में अश्विनी से गणना करने पर नौवां नक्षत्र होता है- अऽलेषा। इसमें सिर्फ इस बात का ध्यान रखना है कि गृहस्वामी का भी जन्म नक्षत्र अऽलेषा न हो,यानी स्वामी और गृह का नक्षत्र एक न हो।समान होने से मृत्यु योग होता है।अतः त्यागना चाहिए।तीन,पांच और सात शेष- यानी कृत्तिका, मृगशिरा,और पुनर्वसु नक्षत्र भी गृह का नहीं होना चाहिए।कृत्तिका से धन नाश, मृगशिरा से यश नाश और पुनर्वसु से स्वामीनाश होता है। अतः इन्हें भी त्यागना चाहिए।

    नक्षत्रों के आधार पर ही राशि का निर्धारण होता है।उदाहरण पिण्ड का नक्षत्र अऽलेषा है,जिसकी राशि कर्क होगी।राशि की समानता त्याज्य नहीं है। हाँ,द्विःद्वादश(दो और बारह) नहीं होना चाहिये,यानी गृह की राशि से गृहस्वामी की राशि दूसरे स्थान पर न हो।यथा- कर्क से दूसरा है सिंह,इस प्रकार सिंह से बारहवां होगा कर्क। इसी तरह नौ-पंचम्,और षडाष्टक भी त्याज्य हैं।द्विर्द्वादश से धननाश,नौपंचक से संताननाश,और षडाष्टक से अन्य अनिष्ट की आशंका होती है।अतः इन तीनों प्रकार के सम्बन्धों का त्याग करना चाहिए। ध्यातव्य है कि विवाह काल में भी इस तरह से वर-कन्या का गणना विचार किया जाता है। वैवाहिक नियमों से थोड़ी ही भिन्नता है- गृह-निर्माण में।

क्रमशः...

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