गतांश से आगे...अध्याय 12 का शेषांश
वास्तुमंडल साधन II
अब इसी भांति पूर्व पिण्डमान से तिथि-साधन करेंगे-
पिण्डांक १८० × ८= १४४०
अब,प्राप्त गुणनफल १४४०
÷ १५ = ९६ लब्धि,० शेष।
तिथियों मे
चतुर्थी,नवमी,चतुर्दशी,और आमावश्या वर्जित है। शून्य का अर्थ हुआ आमावश्या,अतः यह
पिण्ड ग्रहण-योग्य नहीं हैं।
अन्यश्चः- तिथिसाधन
हेतु चौदह से गुणा करके तीस से भाग देने का निर्देश भी मिलता है,जोकि इस नियम की
अपेक्षा अधिक स्पष्ट है।साधक संशयरहित होकर किसी भी एक सूत्र को अपना सकते हैं।
अब इसी भांति पूर्व पिण्डमान से योग-साधन
करेंगे-
पिण्डांक १८० × ४
= ७२०
अब,प्राप्त गुणनफल
७२० ÷ २७ = २६ लब्धि,१८ शेष है।
योगों में अठारह
क्रमांक है-वरीयान का,जिसका फल शुभ होता है।
नक्षत्रों की तरह
योगों की संख्या भी सत्ताइस ही है,सिर्फ नाम-भेद है।इनमें गण्ड,अतिगण्ड,शूल,विषकुम्भ,व्याघात,वज्र,व्यतिपात,
और वैधृत्ति नितान्त त्याज्य हैं,शेष प्रायः ग्राह्य हैं।
इसके लिए एक और सूत्र
है-
गृहपिण्डं गजैर्हत्वा भक्तं नक्षत्रसंख्यया।
विष्कम्भादियुतिरज्ञेया नाम
तुल्य फलं विदुः।।
अतिगण्डो धृतिः शूलं
गण्डव्याघातवज्रकाः।
परिघश्च व्यतीपातोवैधृतिर्वर्जिता
गृहे।।
कुयोगे धनधान्यादिनाशः पातश्च
मृत्युदः।
वैधृती सर्वनाशाय
नक्षत्रैक्ये तथैव च।। वास्तुरत्नाकर५/४१-४३.
अब इसी
भांति पूर्व पिण्डमान से आयु-साधन करेंगे।सूत्र है-
गृहस्य
पिण्डं करिभिर्विगुण्यं विभाजितं शून्यदिवाकरेण।
यच्छेषमायुः
कथितं मुनीन्द्रैरायुष्यपूर्णे भवनं शुभं स्यात्।। वास्तुरत्नाकर५/४४.
पिण्डांक १८० × ८= १४४०
अब,प्राप्त गुणनफल १४४०
÷ १२० = १२ लब्धि,० शेष।जैसा कि पहले भी गणित का नियम स्पष्ट किया जा चुका है-
यहां शून्य का अर्थ १२० समझना चाहिए।
आयुसाधन-विशेषसूत्रः-
हस्तात्मकं
क्षेत्रफलं गजाहतं संवत्सरैर्भाजितलब्धकं यत्।
तत्खेन्दुगुण्यं भवनस्य जीवितं यच्छेषकं
भूतहृतं विलीयते।।
पृथिव्यापोऽनलोवायुराकाश
इति पञ्चभिः।
गृहस्यायुषि
सम्पूर्णे विनाशो भवति ध्रुवम्।।
जीर्णं
पतति भूतत्त्वे तोयाग्न्योः स्यात्तदुद्भवम्।
वायौ
रोगस्तथाऽऽकाशे शून्यतामेति मन्दिरम्।।
(वास्तुराजवल्लभ ३/२४-२६,वास्तुरत्नाकर५/४५-४७)
अर्थात् क्षेत्रफल(पिण्डांक)को आठ से गुणा करके
साठ से भाजित कर,लब्धि को पुनः दश से गुणा करने से जो संख्या प्राप्त हो,वही
गृहायु होता है।शेष को पांच से भाजित करने से जो शेष बचे उससे पृथ्वी आदि
पंचतत्त्वों के कारण गृह का विनाश जानना चाहिए।(एक शेष-पृथ्वी से विनाश,यानी
पुराना होकर गिरना,इसी भांति
दो-जल,तीन-अग्नि,चार-वायु,पांच-आकाश)
अब, सूत्रानुसार आगे की क्रिया करें- पिण्डांक १८० × ८= १४४०
अब,प्राप्त गुणनफल १४४० ÷ ६० = २४ लब्धि,शून्य
शेष
अब २४ लब्धि × १० = २४० वर्ष गृह की आयु
सिद्ध हुयी इस सूत्र से।
अब, ० शेष ÷ ५ = ० = ५ यानी पृथ्वी से पाँचवा(आकाश) तत्त्व से गृह का
नाश होगा,यानी मकान अपनी पूरी आयु भोग चुका।
आयु के सम्बन्ध में विचार
के लिए और भी सूत्र हैं.जो सीधे ज्योतिषीय गणना पर आधारित हैं।इनकी चर्चा गृहारम्भ
प्रकरण में करेंगे,क्यों कि इनका सीधा सम्बन्ध गृहारम्भ-मुहूर्त से है।उस समय की
लग्न-कुण्डली बना कर गृह का भविष्य-निर्णय किया जाता है।
इस प्रकार आयादि नौ प्रकार से वास्तु-पिण्ड
का फलाफल विचार किया गया।वास्तुविशेषज्ञ को गम्भीरता पूर्वक इन सभी साधनों का
प्रयोग करना चाहिए।
किंचित विद्वानों का मत है कि ग्यारह
हाथ से बत्तीस हाथ तक दीर्घ-विस्तार वाले गृह का आय-व्यय विचार करना आवश्यक है,यानी
इससे भिन्न पिण्ड में आवश्यक नहीं है।यथाः-एकादशकरादूर्ध्वं
यावद्वात्रिशद्धस्तकम्। तावदायादिकं चिन्त्यं तद्धूर्ध्वं नैव चिन्तयेत्।।(विश्वकर्मप्रकाश,वास्तुरत्नाकरादि)
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नोटः-दीर्घ-विस्तार पिण्डसारणी प्रायः प्रत्येक
पञ्चांग में दिया रहता है। अनुकूल पिण्ड-निर्धारण करने में वहाँ से सहयोग लिया जा
सकता है।
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