पुण्यार्कवास्तुमंजूषा-33

अध्याय १३.वास्तु मण्डल-
(क)      अन्तःवाह्य संरचना(कहां क्या?)
    अब तक के प्रसंगों में वास्तु-योग्य भूमि के चयन पर सर्वविध गहन विचार किया गया।शास्त्रानुकूल एवं मनोनुकूल भूमि का चयन हो जाने के बाद गृह निर्माण की योजना की बात आती है।
प्राचीन समय में भूमि का वाहुल्य था,साथ ही सामाजिक रहन-सहन और स्थितियाँ भी अब से काफी भिन्न थी।राजा-महाराजाओं के भव्य भवन तो होते ही थे,सामान्य जन के घर भी काफी बड़े हुआ करते थे। संयुक्त परिवार का चलन था।फलतः कम से कम सोलह कमरों का वास्तु-मंडल चयनित किया जाता था।चारों ओर से आवश्यकतानुसार कमरे और उनके बाद चारो ओर से चौड़े बरामदे,और बीच में बड़ा सा आंगन रखा जाता था।इस प्रकार कम से कम दो कट्ठे का एक वास्तुमंडल लिया जाता था।
    वास्तुशास्त्रों में महाराजा,राजा,सामंत,सेनापति,सैनिक,महामंडलेश्वर, मंडलेश्वर, ग्राम-प्रमुख,पुरोहित,आचार्य,वृत्तेश्वर,याज्ञिक,आदि के आवासों के निर्माण का विशद वर्णन मिलता है।इनमें बहुत सी बातें समीचीन हैं।आज भी राष्ट्राध्यक्ष,प्रधानमंत्री, मंत्री,सांसद,राज्यपाल,मंडलाधीश,सामान्य राजकर्मचारी,आदि की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए सरकार द्वारा भवन निर्माण कराये जाते हैं।
    निर्माण सरकार द्वारा हो या व्यक्तिविशेष द्वारा,आवास का जो औचित्य और प्रयोजन है- वह तो वही रहेगा।व्यक्ति अपने पारिवारिक,सामाजिक,आर्थिक,धार्मिक आदि सभी दायित्वों का समुचित निर्वहन करते हुए सुख-शान्ति-आनन्द प्राप्त करे- यही तो अभीष्ट है।दिन भर का थकान घर पहुँच कर दूर होने के वजाय और बढ़ जाय यदि,तो वह घर किस काम का?
    हमारे मनीषियों ने सुदीर्घ अनुभव के आधार पर कुछ नियमों का निर्धारण किया है।घर के अन्दर-वाहर का समुचित ध्यान रखा है।स्नान,ध्यान,भोजन, शयन,पठन,वार्ता,यहां तक कि दण्ड,रूदन और रति-काम तक का विचार किया गया है वास्तुशास्त्रों में।इन संरचना-विधानों में सिर्फ धर्म ही नहीं,प्रत्युत समाज और विज्ञान भी छिपा हुआ है।
    विश्वकर्मप्रकाश या अन्यान्य वास्तुग्रन्थों में आवासीय वास्तु की समस्त गतिविधियों की प्रकृति एवं प्रक्रिया के अनुरुप प्राकृतिक शक्तियों का सुनियोजित निर्देश है।पिछले अध्यायों में अबतक इन बातों पर काफी कुछ कहा जा चुका है। निर्दिष्ट विवेचनों पर ध्यान देने के बाद यह संशय नहीं रह जाता कि रसोई घर अग्नि कोण पर ही क्यों बनाया जाय।इसी भांति अन्य कक्षों की भी बात है। अबतक हम जान चुके हैं कि तत्त्वसंतुलन और ऊर्जासंतुलन ही मुख्य रहस्य है।
   वृहत्संहिता,नारदसंहिता,वास्तुरत्नाकर,वास्तुराजवल्लभ,विश्वकर्मप्रकाश आदि मानक ग्रन्थों में आवासीय वास्तु मंडल को, दिशा-विदिशा का ध्यान रखते हुए  सोलह कक्षों में विभाजित किया गया है।इसे प्रायः सर्वसम्मत पक्ष कहा जा सकता है।
इसे अगले चक्र में दर्शाया जा रहा है,साथ ही स्वतन्त्र रुप से सारणी भी दी जा रही है,ताकि योजना अत्यधिक स्पष्ट हो सकेः-
                    चित्रांक एक और दो(इन दोनों में योजनाओं का फर्क नहीं है,अन्तर है सिर्फ मंडल के आकार का)

क्रमांक
दिशायें
कक्ष
.
ईशान
पूजाकक्ष
.
ईशान और पूर्व के मध्य
भण्डारगृह
.
पूर्व
स्नानगृह(शौचालय नहीं)
.
आग्नेय एवं पूर्व के मध्य
दधिमंथनकक्ष
.
आग्नेय
पाकशाला
.
आग्नेय एवं दक्षिण के बीच
घी,तेल आदि संग्रह-कक्ष
.
दक्षिण
शयनकक्ष
८.
दक्षिण एवं नैऋत्य के बीच
शौचालय(स्नान सहित)
९.
नैऋत्य
शस्त्रादि भारी वस्तु-भंडार
१०.
नैऋत्य एवं पश्चिम के बीच
अध्ययन कक्ष
१.
पश्चिम
भोजनकक्ष
२.
पश्चिम एवं वायव्य के बीच
दण्ड,रोदन
३.
वायव्य
पशुशाला
४.
वायव्य एवं उत्तर के बीच
रतिकामगृह(दम्पतिकक्ष)
५.
उत्तर
कोषागार
१६.
उत्तर एवं ईशान के बीच
औषधिकक्ष              

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