गतांश से आगे....
अध्याय १३.वास्तु मण्डल-(क) अन्तःवाह्य संरचना(कहां क्या?)
पुनः किंचित अद्यतनः-
आधुनिक भवन-योजना के अन्तर्गत वास्तु-मंडल के
नौ खण्डों में कक्ष-विन्यास को नीचे के चक्र क्रमांक "घ" में
प्रदर्शित किया जा रहा है।छोटे आकार के भूखण्डों के लिए यह योजना अधिक उपयोगी हो
सकती है।
वा. उत्तर ई.
बैठक
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बालकक्ष
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पूजा,जल
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भोजनकक्ष
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लॉबी/आँगन
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स्नान
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विविधभण्डार
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शयनकक्ष
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रसोई
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नै. दक्षिण अ.
कक्षों की आन्तरिक संरचनाःःविशेष विचारः-
अब आगे क्रमशः,
कमरों की आन्तरिक संरचना पर कुछ विचार कर लें,किन्तु सबसे पहले सर्वाधिक विचारणीय है- सेफ्टीटैंक।
१.सेफ्टीटैंक-वास्तुशास्त्र प्राकृतिक नियमों पर आधारित
एक सनातन शास्त्र है। अरण्य सभ्यता से नगरीय सभ्यता तक का विवेचन है इस शास्त्र
में;किन्तु घोर परिवर्तित आधुनिक समय में समुचित भूखण्डों के अभाव,और रहन-सहन के
तौर-तरीके में विशेष परिवर्तन के कारण पुराने वास्तु नियमों का सम्यक् पालन बहुत
कठिन पड़ रहा है।सेफ्टीटैंक के लिए तो मुख्य वास्तु मंडल के वाह्य परिसर(बाउण्ड्री)
में ही(मुख्य मंडल से कम से कम सात फीट हट कर) उपयुक्त स्थान का चयन होना
चाहिए,किन्तु छोटे आकार के भूखण्ड में सबसे बड़ी समस्या होती है,जहाँ परिसर का
सवाल ही नहीं है।किसी तरह जोड़-तोड़ कर, गुजारा करने के लिए चार दीवारें और छत बना
लेना है। फिर भी इसके निर्णय में जरा भी लापरवाही नहीं होनी चाहिए।
मैंने
अपने अनुभव में पाया है कि ९०%छोटे मकान इस समस्या से ग्रस्त होते हैं,और
बने-बनाये मकान में इसका स्थायी निदान ढूढ़ना भी लगभग असम्भव सा होता है। सामान्य
तौर पर किए जाने वाले वास्तुदोष निवारण के कठोर तान्त्रिक उपचार भी दीर्घकालीन
सफलता नहीं दे पाते।दोष का अंकन भी एक समान तो होता नहीं, न्यूनतम नौ खण्ड करके विचार करें,तो भी नौ तरह के दोष
हो सकते हैं, जिनका दुष्प्रभाव क्षेत्रानुसार होता है।अतः निर्माण के समय ही
बारीकी से सोच-विचार कर सेफ्टीटैंक का निर्धारण करना चाहिए। इसके लिए सारणी-ग
का सहयोग लेना उचित होगा।प्रसंगवश यहाँ एक बात और भी स्पष्ट कर दूँ कि मूल समस्या
सेफ्टीटैंक की ही है,शौचालय(पैन) को तो थोड़ी देर के लिए बच्चों का पॉटी मान ले
सकते हैं,जैसे कि सुविधानुसार कहीं भी रखकर बच्चों को शौच के लिए बैठा दिया जाता
है।किन्तु इसका यह अर्थ भी न लगाया जाय कि रसोई घर,या पूजाघर से सटे दीवार में
शौचालय रख दिया जाय।आधुनिक समय में प्रत्येक कमरे में संलग्न शौचालय का चलन है।यह बहुत
बुरा नहीं तो कोई खास अच्छा भी नहीं है।शौचालय की साफ-सफाई,दरवाजे का
बार-बार खुलना आदि क्रियायें संलग्न शयनकक्ष के अन्तः वास्तु को एक बार झकझोरता तो
जरुर है।अतः ऐसे संलग्न शौचालय के रख-रखाव पर विशेष ध्यान रखना जरुरी है।सुरक्षा
के तौर पर एक काम अवश्य किया जाय कि ऐसे संलग्न शौचालय के दरवाजे पर (कमरे की ओर
से) कत्थई(मेरुन)(लाल और काला का मिश्रित रंग)का थोड़ा मोटा पर्दा लगाया जाय,और हो
सके तो सप्ताह में दो बार उसे धोया जाय।
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गौरतलब
है कि ऊपर के चित्र में पूरे वास्तुमंडल को पांच गुने पांच के वर्ग में ही विभाजित
किया गया है,जिनमें हरे रंग के चार क्षेत्र निरापद कहे गये हैं। पीले रंग के चार
क्षेत्र अपेक्षाकृत अल्प निरापद हैं,और शेष लाल रंग के खंड सर्वथा वर्जित क्षेत्र
हैं।ये तीन सिगनल के समान हैं।
दूसरे
चित्र में शौचालय की आन्तरिक सज्जा दर्शायी गयी है।ध्यायव्य है कि शौच के लिए बैठते
समय मुंह उत्तर-दक्षिण होना चाहिए।बाहरी व्यवस्था में यह नियम रात्रि और दिन के
लिए विहित था,किन्तु कक्षीय शौचालय में जहाँ स्थायी वेसिन(कवोर्ड)का उपयोग करना
है- रात और दिन के लिए दो अलग-अलग नहीं बनाये जा सकते,अतः एक ही से काम चलाना
है।फिर भी इतना ध्यान रखना जरुरी है कि बैठने की मुद्रा पूरब-पश्चिम न हो।चित्र
में हरे रंग को उत्तम और पीले रंग को अधम के रुप मे दर्शाया गया है। ठीक बीच में
भी वेसिन रखना उचित नहीं है,चाहे उसकी कोई भी दिशा हो।अन्ततः शौचालय कक्ष के
केन्द्रीय भाग को भी बचाना है।पाश्चात्य सभ्यता के हिमायती होकर कुर्सीनुमा कबोर्ड
का चलन हो गया है।सच पूछा जाय तो योगशास्त्र,शरीरशास्त्र आदि के अनुसार यह मुद्गा
शौच के लिए कदापि उचित नहीं है।चुकमुक बैठकर ही मलत्याग होना चाहिए।(रोगी,लाचार के
लिए अलग बात है)।
प्रायः
लोग सुविधा की दृष्टि से सीढ़ी,प्रवेश-द्वार और सेफ्टीटैंक तीनों के लिए एक
ही स्थान का चुनाव कर लेते हैं।सीढ़ी के आधे भाग में प्रवेश-द्वार निकाल लेते
हैं,सीढ़ी के दूसरे भाग में या पूरे भाग में सेफ्टीटैंक वना लेते हैं,और मोटर सायकिल
आदि खड़ा करने का जगह भी निकल आता है।या शौचालय बना लेते हैं।ये सभी बातें अति
हानिकारक हैं।सीढ़ी के नीचे बना सेफ्टीटैंक या शौचालच न सिर्फ निचली मंजिल को
प्रभावित करता है,बल्कि ऊपरी मंजिल को पूरी तरह से वास्तुदोष पीड़ित कर देता
है।टैंक पर चढ़कर भवन में प्रवेश के कारण निचला भाग भी पीड़ित होता है।इसके दोष की
मात्रा और घनत्व दिशा और स्थिति पर निर्भर करती है,जिसे दिशा,ग्रह और तत्व
के विवेचन वाले प्रसंग से और अधिक स्पष्ट किया जा सकता है।
अतः
सीढ़ी के नीचे सेफ्टीटैंक और शौचालय तो भूल कर भी न बनायें।सिर्फ प्रवेश द्वार रखा जा सकता है- यदि
अन्य बातें अनुकूल हुयी।इसे प्रवेशद्वार मुख्य विवेचन के प्रसंग में और
स्पष्ट किया जायेगा।
शौचालय
के खिड़की-दरवाजे दक्षिण दिशा में न खुले तो अच्छा है।शौचालय में संगमरमर का उपयोग
न किया जाय।फर्श का ढलान ईशान,पूरब,या उत्तर की ओर हो तो अच्छा है।जल व्यवस्था भी
इसी दिशा में होना चाहिए।
शौच
के समय सिर अनिवार्य रुप से ढका होना
चाहिए।वैसे कठोर नियम है कि ब्राह्मण का सिर सिर्फ शौच के समय ही ढका जाय,शेष समय
नहीं।पूजा-कर्मकाण्ड आदि में सिर ढकना ब्राह्मणेत्तर वर्णों के लिए प्रसस्त है।
शौच हेतु शास्त्र वचन है-
उदङ् मुखोदिवामूत्रं विपरीतमुखो निशि।(वि.पु.३/११/१३)
दिवा सन्ध्यासु कर्णस्थब्रह्मसूत्र उदङ्
मुखः।
कुर्यान्मूत्रपुरीषे तु रात्रौ च
दक्षिणामुखः।।(याज्ञवलक्यस्मृति
१-१६)
उभे मूत्रपुरीषे तु दिवा कुर्यादुदङ् मुखः।
रात्रौ कुर्याद्दक्षिणास्य एवं ह्यायुर्न
हीयते।।(वसिष्ठस्मृति
६-१०)
यह शरीरविज्ञान-सम्मत भी है कि प्रातः पूर्व मुँख
एवं रात्रि में पश्चिममुख मल-मूत्रादि त्याग करने से सिर सम्बन्धि व्याधियाँ सताती
हैं।
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क्रमशः...
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