पुण्यार्कवास्तुमंजूषा-37

गतांश से आगे...
अध्याय १३.वास्तु मण्डल-(क)अन्तःवाह्य संरचना(कहां क्या?) 5

२.पूजाघर- आधुनिक समय में पूजा और पूजाघर एक फैशन की तरह हो गया है।पहले के समय में सभी वर्णों के मकान में मात्र कुलदेवता(कुलदेवी)का अनिवार्य रुप से स्थान होता था।समयानुसार उनकी पूजा होती थी।उनके मर्यादा का बड़ी गम्भीरता से पालन परिवार का हर सदस्य करता था।इसके अतिरिक्त पर्व-त्योहार,उत्सव आदि विशेष समय में,या कुछ लोग, नियमित रुप से भी ग्रामदेवी,क्षेत्रपाल(डिहवार),आदि की पूजा-अर्चना,आसपास के अन्य देवस्थलों में जाकर किया करते थे।सामान्य गृहस्थ के घर में वैसे भी विशेष मूर्ति की स्थापना शास्त्रसम्मत नहीं है।घर के अन्दर मन्दिर-निर्माण तो बिलकुल ही निषिद्ध है।द्विज वर्गों में साम्प्रदायिक भेद से शालग्राम,शिवलिंग,काली,गणेश, आदि की छोटी(अधिकतम आठ अंगुल)की मूर्ति रखने का विधान या चलन है, जिसकी विशिष्ट मर्यादा का निर्वहण किया जाता था,किया जाना भी चाहिए। किन्तु आज पूजा भी फैशन और प्रदर्शन बन गया है।
अशास्त्रविहितं घोरं तप्यन्ते ये तपो जनाः।
दम्भाहंकारसंयुक्ता कामरागबलान्विताः।।(श्रीमद्भगवद्गीता १७/५)
     तदनुसार तरह-तरह के आडम्बरी की भरमार है।असंख्य नये देवी-देवता उत्पन्न हो गये।शास्त्र और नियम भी अपने-अपने अंदाज में गढ़े जा रहे हैं।पूजा शब्द का अर्थ और अभिप्राय भी विखण्डित हो गया है।अस्तु।
    यहां मेरा अभिप्राय सिर्फ यही है कि कोई आवश्यक नहीं है कि हर घर में पूजाघर बनाया ही जाय,और यदि बनाते हैं तो उसकी सम्यक् मर्यादा का ख्याल रखें।ध्यान,जप,भजन,कीर्तन घर के किसी भी मनोनुकूल स्थान में बैठकर किया जा सकता है(कुछखास अपवाद को छोड़कर)।
    दूसरी बात यह कि आये दिन अल्पज्ञ तथाकथित वास्तुकारों से उलझना पड़ जाता है। मेरे विचार से, कोई जरुरी नहीं कि पूजाघर ईशान में ही हो।
इसके लिए वास्तुमंडल में अन्य क्षेत्र भी हो सकते हैं।हाँ, ईशानपति शिव के आराधकों के लिए ईशान कोण आवश्यक है।सूर्य,विष्णु,गणेश,दुर्गा,काली आदि के लिए ईशान की अनिवार्यता नहीं है।मगब्राह्मणों में कुलदेवता का स्थान अग्नि कोण में विहित है(अग्निकोण में,पश्चिमी दीवार में,ताकि देवता पूर्वाभिमुख हों, पूजक पश्चिमाभिमुख हो)।वैसे भी शास्त्रों का स्पष्ट संकेत है- स्थायी-स्थापन पूर्वाभिमुख एवं अस्थायी स्थापन(आवाहन)पश्चिमाभिमुख होना चाहिए।कुछ स्थानों में आश्चर्यजनक चलन भी है- कुलदेवता का स्थान नैऋत्य कोण में, दक्षिणी दीवार या पश्चिमी दीवार में स्थापित हैं।राजस्थान के रजवाड़ों में भी कहीं-कहीं यह नियम देखा जाता है।इसका अपना एक अलग रहस्य है।तामसिक शक्तियों के उपासक अपना पूजास्थल नैऋत्य में ही रखें तो अच्छा है।सामान्य जन के लिए कुछ वैकल्पिक व्यवस्था- नीचे के चित्र से स्पष्ट करने का प्रयास किया जा रहा है- 

     यहाँ वास्तुमंडल को नौ खंडों में विभाजित करके अनुकूल पूजा-क्षेत्र को दिखलाया गया है।पीले रंग वाले क्षेत्र को प्रथम श्रेणी में रखा गया है,और नीले रंग वाले क्षेत्र को द्वितीय श्रेणी में।गौरतलब है कि पीले रंग में केन्द्रीय भाग- ब्रह्मस्थान भी समाहित है।यहाँ पूजा स्थल रखने से इस महत्त्वपूर्ण स्थल की मर्यादा की विशेष रक्षा भी हो जायेगी।अस्तु।
पूजाघर से सम्बन्धित एक और बात का ध्यान दिलाना चाहता हूँ कि अति सामान्य ढंग से इसे व्यस्थित करें।व्यर्थ के कैलैण्डरों, तस्वीरों और मूर्तियों की भीड़ न लगायें।खंडित,जीर्ण तस्वीरें और मूर्तियाँ घर में वास्तुदोष पैदा करती है।प्रायः,काली का मुण्डमात्र(शीर्षभाग)मूर्ति-चित्र लोग घरों में रखते हैं,इस सम्बन्ध में मूर्तिकार तो अनभिज्ञ है,वास्तुकार को समझना जरुरी है। छिन्नमस्ता की मूर्ति रखना और बात है,और काली का मुण्डमात्र बिलकुल अलग बात - इस रहस्य को समझने का प्रयास करें।
  पूजाघर अधिक बड़ा भी न रखें।आम तौर पर पूजाघर में ही पुराने पीतल, तांबे,फूल,कांसे आदि के वरतन,जो बहुत कम ही व्यवहृत होते हैं,पड़ें रहते हैं। उनकी साफ-सफाई भी नियमित नहीं होती है।ये सब अनजाने में वास्तु-दोष पैदा करते रहते हैं।अतः पूजा के खास सामान,और पात्र के अतिरिक्त व्यर्थ का जमावड़ा पूजाघर में न लगायें।
 पूजाघर में देवी-देवताओं की मूर्ति-चित्र आदि ऐसे व्यवस्थित करें ताकि आप पूर्वाभिमुख उनके सामने बैठ सकें।तख्त,चौकी आदि इस तरह से भी रख सकते हैं,कि आवश्यकतानुसार उत्तराभिमुख भी बैठा जा सके।सायं कालीन की नियमित पूजा उत्तर या पश्चिम मुख बैठकर ही करना चाहिए। हाँ,विशेष अवसर की पूजा रात्रि में भी पूर्वाभिमुख ही होनी चाहिए।
   
   पूजाकक्ष में आवश्यक सामग्री रखने के लिए पश्चिमी या दक्षिणी भाग का उपयोग किया जाना चाहिए।प्रज्वलित दीपक,हवन कुण्ड आदि अग्निकोण में हों तो उत्तम है।धूप-अगरबत्ती वायुकोण में रखें(ध्यातव्य है कि इसमें अग्नि के परोक्ष में वायुतत्व की प्रधानता है)।
आजकल दरवाजे पर चौखट गायब होते जा रहे हैं।इसका भवन पर बुरा प्रभाव पड़ता है।पूजाघर के दरवाजे पर चौखट अवश्य लगायें।किवाड़ दो पल्ले का हो तो अधिक अच्छा है।एक पल्ले की लाचारी हो तो इतना ध्यान रखें कि दक्षिणावर्त(Clockwise) खुले।
पूजाघर के ऊपर या बगल में  शौचालय ,एवं शौचालय के ऊपर या बगल में पूजाघर कदापि न बनायें।             

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क्रमशः...

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