गतांश से आगे...
अध्याय १३.वास्तु मण्डल-(क) अन्तःवाह्य संरचना(कहां क्या?)-छठा भाग
३.रसोईघर-
पाकशाला अग्नितत्व का प्रतीक है,अतः इसे सीधे अग्निकोण में ही बनाने की बात
की जाती है,किन्तु इसका दूसरा विकल्प पूर्व दिशा भी हो सकता है।नीचे के
चित्र में इसे स्पष्ट किया गया है।
रसोईघर
में चूल्हा,स्टोव,हीटर,ओवन जो भी हो पूर्व से अग्निकोण के अन्तर्गत सुविधानुसार
रखे जायें।इसके लिए अनुकूल पटिया(स्लैब) पूर्व से दक्षिण की ओर यथासम्भव बनाये
जायें,जिसमें पूर्वी खण्ड में चूल्हा आदि रखे जायें,और दक्षिणी खण्ड में अन्य भारी
सामान(मिक्चर,ग्राईन्डर)आदि। रसोई बनाते समय मुंह पूरब की ओर होना चाहिए।ठीक पीछे
दरवाजा होना उचित नहीं है,किन्तु दरवाजे की व्यवस्था ऐसी हो कि किसी दुर्घटना के
समय यथाशीघ्र बाहर निकला जा सके।चूल्हे से दायीं ओर(ठीक अग्निकोण में)गैस सिलिन्डर
रखा जाय।नल का(सिंक),वासवेसिन ईशान कोण में बनाया जाय।भारी सामान- चावल,आटा,दाल,मसाले
आदि के डब्बे सुविधानुसार पश्चिम से दक्षिण की ओर बने आलमीरे,रेक आदि में रखे जा
सकते हैं। प्रयास करें कि उत्तर का भाग अधिक से अधिक खाली हो।यदि रसोईघर बड़ा
है,और अन्य बातों की अनुकूलता है तो यहां भोजन का मेज लगाया जा सकता है।प्रायः लोग
रसोईघर की पवित्रता को प्रमुखता देते हुये,वहां भोजन न कर,पास में ही लॉबी/डायनिंग
स्पेश का उपयोग करते हैं।ध्यातव्य है कि यदि ब्रह्मस्थान का वह क्षेत्र हो (मंडलब्रह्म
अथवा केन्द्रीय ब्रह्म)तो बड़ा ही अशुभ प्रभाव पड़ता है।नित्य ब्रह्मस्थान को जूठा
करना अति निन्दनीय है।इससे कहीं अच्छा है कि रसोईघर में ही भोजन किया जाय।रसोईघर
में उत्तराभिमुख भोजन करने का तान्त्रिक महत्व अद्भुत है।बहुतों का कल्याण हुआ है-
इस निर्देशन से।
प्रसंगवश,यहाँ भोजन सम्बन्धी
कुछ शास्त्रवचनों पर दृष्टिपात करलें। विष्णुपुराण ३/११/७८,वामनपुराण १४/५१,स्कन्धपुराण
प्रभास खंड २१६/४१, पद्मपुराण सृष्टिखंड ५१-१२८,महाभारत,अनुशासनपर्व ९०/१९,वशिष्ठस्मृति
१२/१५, पराशरस्मृति १/५९ आदि में भोजन की मुद्रा,दिशा और स्थिति पर विस्तृत प्रकाश
डाला गया है।पूरब या उत्तर मुख भोजन को श्रेष्ठ कहा गया है।दक्षिण मुख करके,सिर
ढांपकर,जूते आदि पहने हुए,बिना स्नान के,बिना हाथ धोये भोजन को सीधे चाण्डाल अथवा
प्रेत-भोजन कहा है।शुद्ध,सात्त्विक भोजन भी ऐसी स्थिति में तामसी प्रभावकारी हो
जाता है।पश्चिम दिशा को भी उचित नहीं कहा गया है।इससे स्वास्थ्य प्रभावित होता
है।अतः प्राङ्गमुखोदङ् मुखोवापि का
सूत्र ही सर्वसम्मत है।
अब, रसोईघर सम्बन्धी एक और अत्यावश्यक बात कर ली
जाय- आजकल ग्रेनाइड पत्थर का स्लैब लगाने का चलन है।ध्यान रहे कोई भी पत्थर का
उपयोग हो किन्तु रंग लाल,कथ्थई(मेरुन),दूधिया,लाल और गुलाबी का मिश्रित रंग- ही
उचित है।काले रंग का उपयोग रसोईघर में कदापि न करें।यह स्थान अग्नि,सूर्य,इन्द्र,
शुक्र और मंगल के प्रभाव-क्षेत्र में आता है,चन्द्रमा बुध,और गुरु का भी परोक्ष
प्रभाव है।अतः इनकी अनुकूलता का ध्यान रखा जाना चाहिए।
मेजी
सभ्यता
में भोजन के लिए विविध आकार के मेजों का चलन है, जिनमें चौकोर ही सर्वोत्तम है।अण्डाकार
सर्वथा त्याज्य है।
आजकल
स्टील को भी पीछे छोड़, फाईबर और चाइनावोन को पात्र के रुप में प्रयोग कर रहे
हैं।ध्यान रहे ये उत्तरोत्तर घातक हैं।हमारी संस्कृति और सभ्यता के बिलकुल विपरीत
है।अतः कम से कम पाक,भोजन,और जल पात्र को शुद्ध रखने का प्रयास किया जाय।
एक खास बात- रसोईघर में पूर्वी दीवार पर अन्नपूर्णा
अथवा पार्वती की तस्वीर टांगे और नित्य प्रातः-सायं घी का दीपक अवश्य
जलायें।अद्भुत लाभ अनुभव करेंगे।
अब अगले चित्र में रसोईघर की आन्तरिक व्यवस्था
पर प्रकाश डाला
जा रहा हैः-
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क्रमशः...
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