गतांश से आगे...
अध्याय १३.वास्तु मण्डल-(क) अन्तःवाह्य संरचना(कहां क्या?)- (का अगला अंश)
अध्याय १३.वास्तु मण्डल-(क) अन्तःवाह्य संरचना(कहां क्या?)- (का अगला अंश)
१.
शयनकक्ष- शयनकक्ष के सम्बन्ध में विशेष
बात यह है कि गृहस्वामी का स्थान दक्षिण-पश्चिम में हो,किन्तु सीधे नैऋत्य में
नहीं।ध्यातव्य है कि नैऋत्य का दक्षिणार्ध मृगपद है,और पश्चिमार्ध पितृपद।पितृपद
उचित है।मृगपद वर्जित। यहाँ नैऋत्य दोष हावी रहेगा,जिसके कारण मानसिक अशान्ति
रहेगी।वैसे यह कक्ष भारी सामानों और शस्त्रादि के लिए प्रसस्त है।किन्तु इसी कक्ष
में मालिक का स्थान बनाना हो तो सीधे नैऋत्यकोण पर शैय्या न लगायें।वैसे वुजुर्गों
के लिए ईशान के दायें-बायें(उत्तर या पूर्व) का स्थान सर्वोत्तम है।बच्चों और युवा
दम्पतियों के लिए वायव्य एवं उत्तर का स्थान सर्वोत्तम है,क्यों कि चन्द्रमा का
यहां आधिपत्य है।सीधे ईशान या अग्नि कोण में भी शयन कक्ष नहीं बनाना चाहिए।क्योंकि
ईशान- धन-हानि,कार्यबाधा,कन्याओं के विवाह में रुकावट पैदा करता है,तो आग्नेय
दाम्पत्य कलह और अकारण चिन्तायें देता है। अपरिहार्य स्थिति में सीधे ईशानकोण को
बचाते हुए बुजुर्ग को स्थान दिया जा सकता है। नवदम्पति के लिए तो सर्वदा वर्जित
है।
शयनकक्ष में शैय्या व्यवस्था ऐसी हो कि
पूरब या दक्षिण की ओर सिर करके सोया जा सके।उत्तर दिशा में सिर करके सोना सर्वथा-सर्वदा
वर्जित है,और पश्चिम दिशा में सिर करना सन्तति हानिकर,और चिन्ताकर है।शयन सम्बन्धी
कुछ शास्त्रीय वचन-
नोत्तराभिमुखः
सुप्यात् पश्चिमाभिमुखो न च। (व्यासस्मृति२-८८)
उत्तरे पश्चिमे चैव न
स्वपेद्भि कदाचन।
स्वप्नादायुःक्षयं याति
ब्रह्महा पुरूषो भवेत्।
न कुर्वीत ततः स्वप्नं
शस्तं च पूर्वदक्षिणम्।।
(पद्मपुराण सृ.ख.५१)
प्राच्यां दिशि
शिरश्शस्तं याम्यायामथ वा नृप।
सदैव स्वपतः पुंसो
विपरीतं तु रोगदम्।।
(विष्णुपुराण ३-११-१११)
प्राक्शिरः शयने
विद्याद्धनमायुश्च दक्षिणे।
पश्चिमे प्रबला चिन्ता
हानिमृत्युरथोत्तरे।। (विश्वकर्मप्रकाश,आचारमयूख)
स्वगेहे प्राक्छिराः
सुप्याच्छ् वसुरे दक्षिणाशिराः।
प्रत्यक्छिराः प्रवासे तु नोदक्सुप्यात्कदाचिन।।
(विश्वकर्मप्रकाश,आचारमयूख)
अर्थात् पूरब की ओर सिर करके
सोने से विद्या की प्राप्ति होती है।दक्षिण की ओर सिर करके सोने से धन और
आयु की वृद्धि होती है।पश्चिमाभिमुख सोने से प्रबल चिन्ता होती है,तथा उत्तराभिमुख
सोने से मृत्यु/मृत्युतुल्य कष्ट होता है। यानी आयु क्षीण होती है।
पुनः कहते हैं- अपने घर में पूरब की ओर सिर
करके सोना चाहिए,ससुराल में दक्षिण की ओर सिर करके सोना उचित है।यात्रा काल में
अथवा परदेश में या
दूसरे के घर में पश्चिम
मुख सोये,तथा उत्तराभिमुख शयन कदापि न करे।
शयन कक्ष के सम्बन्ध में एक और बात का ध्यान रखना चाहिए कि
देवस्थल,गौशाला,रसोईघर,भण्डारघर आदि के ऊपर भी शयनकक्ष नहीं बनाना चाहिए।
शयनकक्ष का द्वार दक्षिणमुख न हो तो अच्छा।कक्ष में खिड़कियाँ पूरब,
उत्तर में प्रसस्त है।संलग्न शौचालय-स्नानागार आदि बनाना हो तो उत्तर या पश्चिम
में ही बनाना चाहिए।शयन कक्ष का नैऋत्यकोण बिलकुल रिक्त न रहे। उस स्थान को आलमीरा
या भारी फर्नीचर से भरा जाय।ड्रेसिंग टेबल का स्थान ऐसा हो कि उसके आईने का विम्ब
शैय्या पर न पड़े।ऐसा यदि सम्भव न हो तो इस बात का ध्यान रखा जाय कि दम्पति के
सोते समय उस पर पर्दा डाल दिया जाय- यह नियम खास कर दम्पति-शयन के लिए है।एकल शयन
में कोई आपत्ति नहीं।दम्पति के शयन कक्ष में पक्षियों(खास कर कबूतर का
जोड़ा),युद्ध, विकराल दृष्य,देवी-देवताओं आदि के चित्र तथा मूर्तियां कदापि न रखी
जायें।वस एक मात्र अपने इष्टदेव या गुरुदेव का चित्र विशेष परिस्थिति में लगा सकते
हैं।
शैय्या(पलंग) कक्ष के
बिलकुल मध्य में न हो,थोड़ा इधर-उधर रहे,ताकि केन्द्रीय भाग मुक्त रहे।
शयनकक्ष में यदि छत में वीम हो (लकड़ी का शहथीर नहीं)तो ठीक
उसके नीचे शैय्या न लगाया जाय।आवश्यकतानुसार नगदी,आभूषण आदि रखने के लिए आलमारी या
छोटी तिजोरी यदि रखना हो तो कोषागार नियमानुसार इसे दक्षिणी या पश्चिमी दीवार के
सहारे इस प्रकार रखे कि उत्तर या पूरब की ओर खुले।दक्षिण की ओर खुलने से धन का
क्षय और पश्चिम की ओर खुलने से संचय में ह्रास होता है।महत्त्वपूर्ण कागजात नैऋत्य
कोण वाली आलमारी में न रखें।इसके लिए कोषागार नियम का ही पालन होना चाहिए।
शयनकक्ष में विजली के
उपकणः- टी.वी.हीटर,इन्वर्टर आदि अग्नि कोण या अग्निक्षेत्र में रखे जाये,तथा
कूलर,एयरकण्डीशनर,वस्त्रों की आलमारी वायव्य या नैऋत्य क्षेत्र में रखने चाहिए।इस
कक्ष के अन्दर पढ़ने-लिखने का मेज यदि लगाना हो तो पश्चिम में कहीं ऐसी जगह दें
जहां पूर्व या उत्तरमुख बैठा जा सके।ड्रेसिंगटेबल के लिए पूरब दिशा ही अनुकूल है।
खराब,बन्द पड़े या कम
उपयोगी विजली और इलेक्ट्रोनिक सामान वैसे तो घर के किसी भी भाग में रह कर नुकसान
ही देते हैं- इससे राहु-शनि दोष हावी होता है,किन्तु खास कर शयनकक्ष में तो इन्हें
भूल कर भी न रखें।कुछ ऐसे सामान जो कम उपयोग में आते हों,किन्तु सही-सलामत स्थिति
में हैं,तो इतना ध्यान रखें कि सप्ताह में एकाध बार उन्हें विजली की धारा से
संलग्न अवश्य करा दें।विद्युत-धारा प्रवाहित हो जाने पर उनके दोष का पूर्ण मार्जन
तो नहीं हो जाता,पर आंशिक शुद्धि अवश्य हो जाती है।उदाहरण के लिए पहले से घर में
यदि ब्लैक एड वाइट टी.वी. है,और अब रंगीन टी.वी. आ जाने के कारण उसका उपयोग बन्द
हो गया है, तो इससे शयनकक्ष वास्तुदोष पीड़ित होगा।अतः दो-चार दिन पर कुछ देर के
लिए उसे अवश्य चालू कर दिया करें।
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क्रमशः.....
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