पुण्यार्कवास्तुमंजूषा-40

गतांश से आगे...
अध्याय १३.वास्तु मण्डल- (क) अन्तःवाह्य संरचना(कहां क्या?) - आठवां भाग
 अध्ययनकक्ष- अध्ययनकक्ष के लिए पश्चिम एवं नैऋत्य के बीच का भाग सर्वश्रेष्ट होता है।इस कक्ष का द्वार पूरब,पश्चिम या उत्तर दिशा में सुविधानुसार खुलने वाला हो सकता है।खिड़कियां पूरब या उत्तर में ही अनुकूल होती हैं। दक्षिण दिशा के द्वार या खिड़कियाँ मन की एकाग्रता तो बाधित करती हैं। लाचारी वश यदि बनाना ही पड़े तो कम से कम रात्रि में उन्हें बन्द कर दिया जाय।कुर्सी-मेज पूरब या उत्तर में तथा पुस्तकों की आलमारी आग्नेय और नैऋत्य को छोड़कर सुविधानुसार कहीं भी रखा जा सकता है।
      आधुनिक अध्ययन कक्ष का आवश्यक अंग हो गया है- कम्प्यूटर या लैपटॉप।इसे अग्निक्षेत्र(कोण की अनिवार्यता नहीं)में रखा जा सकता है।

     कमरे में सामने की ओर दीवार पर या मेज पर ही सुविधानुसार विद्या की अधिष्टात्री सरस्वती,अधिष्ठाता गणेश,अपने इष्ट देव,गुरु आदि की तस्वीर रखी जा सकती है।

  कोषागार- कोष का अर्थ यहाँ खजाना है,न कि भण्डार।जलभंडारण को जैसे धड़ल्ले से लोग ईशान में स्थान दे देते हैं,उसी तरह कोष को वायु यानी भण्डार कोण पर उचित मान लेते हैं।ध्यातव्य है कि जलभंडारण जलस्रोत नहीं है,उसी तरह "कोष" भंडार नहीं है।दोनों की प्रकृति भिन्न है।कोष को उत्तर-मध्य में रखना चाहिए।इस दिशा के स्वामी- व्यापार के स्वामी बुध हैं,और इस स्थान के अधिष्ठाता देव कुबेर हैं,जिन्हें देवताओं का कोषाध्यक्ष कहा जाता है।कोषेश्वरी भले ही लक्ष्मी हैं,किन्तु कोष की जिम्मेवारी कुबेर को है,अतः उन्हीं के अधीन अपना कोष भी सौंपना उचित है।वायु कोण पर कोष यदि रखेंगे तो वायु देव उसे उड़ाते रहेंगे,यानी टिकाऊ नहीं होगा,और विलासी चन्द्रमा- जो उस स्थान के ग्रह हैं, भोग विलास में कोष को नष्ट करने की प्रवृत्ति देकर कोष का स्थायित्व हनन करेंगे।
    दूसरी बात ध्यान में यह रखने की है कि भंडार दैनिक उपयोग का स्थान है,रोज वहाँ आदान-प्रदान होते रहता है प्रायः।किन्तु कोष को अपेक्षाकृत कम छेड़ा जाता है।हाँ किसी बैंक को अपना सामान्य खजाना रखना हो जिसका प्रतिदिन जमा-निकासी हो तो भंडार कोण में भी चलेगा,किन्तु स्थायी प्रकृति का लॉकर आदि उत्तर दिशा में ही स्थापित करना चाहिए।गौर तलब है कि कोषागार में एक मात्र मजबूत दरवाजा रखना चाहिए.रौशनदान,खिड़की आदि व्यावहारिक दृष्टि से उचित नहीं है।कोषागार में तिजोरी को दक्षिणी या अभाव में पश्चिमी दीवार के सहारे ऐसे स्थापित करें ताकि उत्तर या पूरब की ओर खुले।हाँ इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि कोषागार के आन्तरिक बनावट के अनुसार उसके ईशान क्षेत्र में तिजोरी न स्थापित हो जाय,जैसा कि पहले भी अन्य प्रसंग में कहा जा चुका है कि ईशान जल तत्व है,यहाँ कोष में तरलता आ जायेगी, उसका अपव्यय होने लगेगा।अतः इससे बचा जाय।
   वैसे सामान्य गृह में अलग से कोषागार की आवश्यकता नहीं हैं।इसके लिए शयनकक्ष में कोष-व्यवस्था सम्बन्धी दिये गये निर्देशों का पालन करना चाहिये। व्यापारी वर्ग अपनी दुकान या व्यापारिक प्रतिष्ठान में आवश्यकता और स्थिति के अनुसार अपने से दाहिने या सामने तिजोरी रखें,जिसका द्वार पूरब या उत्तर की ओर खुले।तिजोरी के अन्दर सोने,चाँदी,रत्न,करेंसी नोट,सिक्के आदि को रखने में भी कुछ बातों का ध्यान रखना जरुरी है।सोने-चाँदी को एक खाने में,रत्नों को अलग खाने में और नोटों तथा सिक्कों को अलग-अलग खानों में रखेंगे तो स्थायित्व आयेगा।सोने, चाँदी, रत्न आदि के साथ लोहे के आधुनिक सिक्के तो कदापि न रखें।सूर्य, चन्द्रमा, शनि-राहु सबको एक साथ रखना कतयी उचित नहीं हैं।इसी भांति रत्नों में भी ग्रहों का विचार आवश्यक है।प्रसंगवश ग्रह-धातु-रत्न सारणी यहाँ प्रस्तुत है-


क्रमांक
ग्रह
धातु
रत्न
सूर्य
तांबा,सोना
माणिक
चन्द्रमा
चाँदी
मुक्ता(मोती)
मंगल
तांबा,सोना
प्रवाल(मूंगा)
बुध
कांसा,सोना
पन्ना
वृहस्पति
पीतल,सोना
पुखराज
शुक्र
चाँदी,सोना
हीरा
शनि
लोहा,सोना
नीलम,नीली
राहु
लोहा,रांगा,शीशा(लेड)
गोमेद
केतु
लोहा,सोना,तांबा
लाजावर्त

इसके अलावे इस बात का भी ध्यान रखा जाय कि तिजोरी में लापरवाही वश कुछ अन्य सामान न रख दिये जायें।लोहे या स्टील के पात्र में सोने-चांदी के सिक्के या कोई भी रत्न न रखे जायें।कुछ भी रखने में ग्रह-धातु-रत्न-सम्बन्ध पर विचार कर लिया जाय।शत्रु ग्रहों का आपसी तालमेल न बैठाया जाय।इसके लिए ज्योतिष के ग्रहमैत्री चक्र का सहयोग लिया जाय,जिसे अगले अध्याय में स्पष्ट किया जायेगा।          
                    
क्रमशः......

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