पुण्यार्कवास्तुमंजूषा-46

गतांश से आगे...
अध्याय १३(ख)संरचना सम्बन्धी विशेष बातें(2) 

२.परिसर - मुख्य वास्तुमंडल को चारों ओर से दीवारों की घेराबन्दी करनी हो तो उसका प्रारम्भ अग्निकोण से करते हुए क्रमशः दक्षिणावर्त (Clockwise) परिभ्रमण करते हुए(अ.द.नै.प.वा.उ.ई.अ.)के क्रम से कार्य पूरा करना चाहिए, यानी अग्नि से प्रारम्भ कर अग्नि पर ही समाप्त करना चाहिए। वस्तुतः यह नियम बाहर-भीतर किसी भी निर्माण के लिए माना जाना चाहिए।बाहरी सीमा-बन्धन के लिए तो और भी महत्त्वपूर्ण हो जाता है।
   दूसरी बात यह कि चारदीवारी चारो ओर समान ऊँचाई और मोटाई में हो न्यूनाधिक नहीं।समानता से ही उचित परिसर-बन्धन होता है,अन्यथा बन्धन खण्डित रह जायेगा,और भविष्य में बाहरी विघ्नों का प्रकोप हावी होगा।दक्षिण और पश्चिम को तो कभी नीचा और पतला नहीं होना चाहिए।
     विशेष वास्तु बल देना चाहते हों,या आवश्यकता प्रतीत हो तो पुनः चारो कोनों को पूर्व ऊँचाई के तृतीयांश और ऊँचा कर दें।इससे पूरे मंडल को अद्भुत वास्तु-बल मिल जाता है ।जैसा कि काराविभाग का नियम है- जेलों का परिसर चारो कोनों पर कुछ ऊँचा किया हुआ रहता है।इसके पीछे गहन वास्तु-विज्ञान छिपा है।जेलों में प्रायः खूंखार अपराधी कैद रहते हैं।वहाँ मंगल,शनि,राहु की विकट स्थितियों का जमघट होता है।आकाश तत्त्व पर्याप्त होते हुए भी संतुलन बनाने में परेशानी होती है।क्यों कि वहाँ निरंतर तमोगुणी ऊर्जा का संचार होते रहता है।ऐसे में चारो कोनों की ऊँचाई से आकाश को और बलवान करने का वास्तुविज्ञान है यह बनावट।
    परिसर की विशेष सुरक्षा हेतु दीवार के ऊपरी भाग में विभिन्न प्रकार के ग्रील, कांटेदार तार का घेरा,वज्र, अंकुश,त्रिशूल आदि लगाने की प्रथा है।इस सम्बन्ध में भी वास्तुशास्त्र का कुछ खास मार्गदर्शन है।चारो ओर अपनी आवश्यकता और स्थिति के अनुसार चाहे जो भी करें,किन्तु विशेष सुरक्षा के लिए सभी दिशाओं (दसों)में दिक्कपाल-स्थापन करा दें।
स्थापना की संक्षिप्त विधि – परिसर की ऊँचाई के अनुसार(नौ,ग्यारह,चौदह, सोलह,अठारह,चौबीस वा अठाईस अंगुल लम्बी गोलसरिया(छड़)से दश अंकुश बनावें।प्रयास हो कि अंकुश बनाने का यह कार्य किसी शनिवार को किया जाय। अब, दक्ष वास्तुज्ञाता उसे शनिवार को ही संध्या समय घर लाकर गंगाजल से अभिषिक्त करके काठ की चौकी पर स्थापित करे।उन दशों अंकुशों की विधिवत (इन्द्रादि दश दिक्कपालों की) प्राणप्रतिष्ठा करके,पंचोपचार पूजन करें। तदपश्चात् पूर्व निर्देशानुसार(वास्तु विशेषज्ञ पात्रता-विचार अध्याय में बताये गये नियम से) साधित मंत्र का कम से कम एक सहस्र और आवश्यकतानुसार अधिकाधिक (पांच,ग्यारह,इक्कीश सहस्र)(सुविधानुसार नित्य विभाजित क्रम में) जप करे। संकल्पित जप सम्पन्न हो जाने के बाद यजमान के हाथों से पुनः पंचोपचार पूजन और दशांश होम कराकर किसी रवि,मंगल,शनिवार को(पंचांग शुद्धि विचार करके) अपराह्न में(पूर्वाह्न में कदापि नहीं) परिसर के दशो दिशाओं में(वास्तुमंडल में दिक्कपालों के यथास्थान)दीवार पर स्थापित करा दें।अंकुशों को गाड़ते समय ध्यान रखें कि उनका अंकुश वाला भाग बाहर की ओर रहे- मानों बाहरी उर्जा को खींच कर अपने में समाहित कर रहा हो,जैसा कि आगे के चित्रों में दिखलाया गया है। स्थापना के बाद सभी अंकुशों को आपस में तांबें के चौदह या सोलह नंबर तार से जोड़ कर अन्तिम शिरा परिसर के अग्निकोण, नैऋत्यकोण या मध्य दक्षिण-मंगल-क्षेत्र में जमीन से लगाकर मजबूती पूर्वक गाड़ दें।तदपश्चात् दही और काला साबूत उड़द, प्रज्ज्वलित दीपक,एवं जल-पुष्पादि लेकर, यथास्थान दिक्कपालों के निमित्त बलि विधान सम्पन्न करें।इस प्रकार यह रक्षाविधान सम्पन्न हुआ।
पुराने समय में महलों पर इस प्रकार की क्रियायें आवश्यक रुप से सम्पन्न होती थी।वैज्ञानिक व्याख्याकार इसे महज तड़ितरोधक क्रिया समझ लेते हैं,किन्तु वस्तुतः यह तड़ित-रोधन के साथ-साथ विकट वास्तु-बन्धन भी करता है।यह अद्भुत प्रयोग बिना परिसर वाले भवन के ऊपरी मंजिल की रेलिंग में भी करके भवन को सभी प्रकार के बाहरी विघ्नों से रक्षित किया जा सकता      है।अस्तु।


क्रमशः...

Comments

  1. प्रणाम प्रभु, आठ दिशाओं का अंकुश तो ठीक है पर आकाश और पाताल का अंकुश कैसे स्थापित करें. कृपया मार्गदर्शन करें

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  2. आशीष सहित शुभकामना। लगता है आपने सिलसिलेवार नहीं पढ़ा है,अन्यथा दिशाओं की चर्चा और परिचय में ही ये जवाब मिल गया होता। आकाश-पाताल की दिशा वाला पोस्ट देखिये। वहाँ और भी बहुत सी बातें मिलेंगी। तत्व,ग्रह और दिशाओं का ही तो खेल है सारा वास्तु। अतः इसे ठीक से समझना जरुरी है। ईशान और पूर्व के बीच आकाश का स्थान है वास्तु मंडल में तथा नैऋत्य और पश्चिम के बीच पाताल का स्थान है । नवग्रहवेदी पर भी इन्हें इसी रुप में स्थान देते हैं पूजा करते समय।

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