पुण्यार्कवास्तुमंजूषा-48

गतांश से आगे...
अध्याय १३.वास्तु मण्डल-(ख)अन्तःवाह्य संरचना(कहां क्या?) -4

४.द्वाररक्षक,रात्रि-प्रहरी का स्थान-रक्षक और प्रहरी मंगलग्रह के प्रतीक होते हैं, अतः इन्हें वास्तुमंडल में मंगल के स्थान यानी मध्य दक्षिण के दायें-वायें सुविधा जनक किसी स्थान पर जगह देना चाहिए।द्वार-रक्षणार्थ लघुकक्ष(गुमटी, केविन)का निर्माण प्रवेश द्वार के दायें-बायें गोलाकार रुप में बनाना चाहिए, जिसके बाहरी भाग में भी गवाक्ष(छोटा झरोखा) होना आवश्यक है,ताकि दूरस्थ आगन्तुक पर दृष्टि डाली जा सके।इस कक्ष में आवश्यक दण्ड,शस्त्र आदि नैऋत्य कोण में रखा जाना चाहिए।प्रहरी के वस्त्रों में लाल,लाल-काला,लाल-काला-नीला आदि रंगों की प्रधानता होनी चाहिए।
५.अन्य सेवकों का स्थान-सेवक शनि का प्रतिनिधित्व करते हैं।इन्हें हमेशा आदर और स्नेह मिलना चाहिए,अन्यथा अनजाने में ही शनि प्रकुपित होते रहते हैं,जिसका दुष्प्रभाव झेलना पड़ता है।सेवकों के लिए कमरे(आउटहाउस)परिसर के दक्षिणी-पश्चिमी भाग में यथास्थान बनाना चाहिए,किन्तु ठीक नैऋत्य में कदापि न बनाया जाय,अन्यथा वहाँ रहकर सेवक उदण्ड हो जायेंगे,और स्वामी की अवज्ञा हेतु तत्पर रहेंगे।समय-समय पर सेवकों को वेतन के अतिरिक्त अन्न, वस्त्रादि प्रदान करते रहना चाहिए,इससे शनिदेव प्रसन्न रहते हैं।सामान्य घरों में भी प्रायः जहाँ सेवकों को कष्ट दिया जाता है,समय पर उन्हें समुचित पारिश्रमिक नहीं दिया जाता,वहाँ स्वामी अनजाने ही शनि का कोपभाजन बनते हैं।

क्रमशः...

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