गतांश से आगे...
अध्याय १३.वास्तु मण्डल-(ख)अन्तःवाह्य संरचना(कहां क्या?) -भाग पांच
अध्याय १३.वास्तु मण्डल-(ख)अन्तःवाह्य संरचना(कहां क्या?) -भाग पांच
६.भवन में कुत्ते का स्थान-पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव से अंधे होकर
कुत्ते की प्रतिष्ठा घर के बजुर्ग से भी अधिक हो गयी है,यह बड़ा ही निन्दनीय और
चिन्तनीय है।कुत्ता रखना अच्छी बात है,किन्तु उसकी शोभा द्वार-रक्षक के रुप में ही
है,न कि उसे शयन-कक्ष का प्रतिनिधि बना दें।इससे वैज्ञानिक और धार्मिक दोनों तरह
की हानि है।लाख सफाई की व्यवस्था रखने पर भी ये जन्तु मनुष्येतर जीवाणुओं के वाहक
हैं,जिनसे तरह-तरह के रोग पैदा होते हैं।धार्मिक दृष्टि से कुत्ता केतुग्रह का
प्रधान प्रतिनिधि है।वैसे परिसर में यह जहाँ कहीं भी रहे,घूमे,किन्तु इसके भोजन का
स्थान भवन या परिसर के नैऋत्य कोण में ही होना चाहिए।भवन के अन्तः कक्षों में
यथासम्भव इसके प्रवेश की वर्जना होनी चाहिए,अन्यथा भवन पर केतु का प्रभुत्व बढ़ता
है,जिसके कारण अनजाने मानसिक तनाव,रोष,क्रोध,झगड़े,आपसी सम्बन्धों में दरार आदि की
सम्भावना उत्पन्न होती है।
७.छाद्य(छज्जा)- प्रायः मुख्य दीवार से अतिरिक्त दो-चार
फीट छत की ढलाई को बाहर निकाल कर स्थान-विस्तार कर लिया जाता है,इससे दीवार एवं
बाहरी चौखटों की सुरक्षा होती है,किन्तु इसका दूसरा प्रभाव भी वास्तु मंडल पर
पड़ता है- अवांछित प्रलम्ब के रुप में।अतः अलग-अलग दरवाजों और खिड़कियों पर
छोटे-छोटे छज्जे निकाल कर सुरक्षा का काम लिया जाना अधिक उपयुक्त है,वैसे भी वे
चौखट-स्तर(door level)पर निकाले जाते हैं,जब कि ऊपरी छज्जा- छत
का विस्तार होता है।यह विस्तार चारो ओर समान रुप से हो तो कम हानि- कारक है,किन्तु
सिर्फ दक्षिण-पश्चिम में होता है, तो अधिक दोषपूर्ण है।
सबसे
ज्यादा नुकसान तो तब होता है,जब उस प्रलम्बित(बढ़े हुए)भाग में कुछ (वाथरुम आदि) निर्माण
कर देते हैं,या सीधे ऊपरी कमरों का आकार ही
बढ़ा लेते हैं- ऐसा कदापि नहीं करना
चाहिए।
क्रमशः...
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