पुण्यार्कवास्तुमंजूषा-58

गतांश से आगे...
अध्याय १४.मुख्य द्वार-विशेष विचार (भाग दो)
इस प्रकार, दी गयी सूची का अनुशरण करने से लाभ ही लाभ है।यथासम्भव मतान्तर वाले स्थानों से भी परहेज करना चाहिये।यहाँ कुछ चित्रों के माध्यम से इसे स्पष्ट किया जा रहा है-






ऊपर के चित्रांक "क" और "ख" में क्रमांक समान है,यानी सीमावर्ती क्षेत्रों में वास करने वाले देवताओं की संख्या बत्तीस ही है,किन्तु गौरतलब है कि ग्रहों की स्थापना का क्रम भिन्न है।चित्रांक "क" में सूर्य की अवस्थिति ईशान कोण में है,और क्रमिक रुप से दक्षिणावर्त परिभ्रमण क्रम से शेष नौग्रहों की स्थापना हुयी है,जबकि चित्रांक "ख" में सूर्य की अवस्थिति अग्निकोण में है,और तद्भांति ही क्रमिक रुप से दक्षिणावर्त परिभ्रमण क्रम से शेष नौग्रहों की स्थापना हुयी है। परिभ्रमण का प्रारम्भण क्रमशः ईशान और अग्नि से होने के कारण ग्रहों का स्थान बिलकुल ही बदल गया है,किन्तु गौरतलब है कि गुरु की स्थिति यथावत है।
 द्वारस्थापन का नियम है कि किसी भी दिशा में बुध,गुरु और शुक्र के स्थान में
ही द्वार होना चाहिए।अपवाद स्वरुप दक्षिण दिशा में (चूंकि गुरु के इस स्थान में ही यम भी हैं) निषेध किया गया है,जबकि कुछ विद्वान इसे भी प्रसस्त ही मानते हैं।
    प्रश्न ये है कि सूर्य की स्थिति दो तरह से क्यों?वस्तुतः इसका दो कारण है- एक तो दो विद्वानों का मत है,और दूसरी बात है- उत्तरायण और दक्षिणायण सूर्य की स्थिति,यानी यदि निर्माण कार्य उत्तरायण सूर्य की स्थिति में करते हैं, तो द्वारस्थापन हेतु चित्रांक "क" का पालन करें,और दक्षिणायण सूर्य में चित्रांक "ख" का।हालांकि इससे अन्तर कोई खास नहीं आता,द्वार की स्थिति वही रह जाती है,सिर्फ अधिष्ठाता ग्रह में परिवर्तन होता है(वह भी गुरु में नहीं)।
वास्तुरत्नाकर-द्वारप्रकरण में विस्तृत रुप से इसकी चर्चा है।सर्वप्रथम वास्तुमंडल के सीमावर्ती क्षेत्र में स्थित बत्तीस देवताओं के नाम और उन स्थानों में बनाये जाने वाले मुख्यद्वार का फलविमर्श प्रस्तुत करते हैं,जिन मूल निर्देशों के आधार
पर ऊपर की सारणी और तत्पूर्व का विवरण प्रस्तुत किया गया।यथा-
शिखिपर्यन्यजयन्तेन्द्रसत्या भृशोऽन्तरिक्षश्च।
ऐशान्यादि क्रमशो दक्षिणपूर्वेऽनिलः कोणे।।
पूषावितथबृत्क्षतयमगन्धर्वाख्यभृङ्गराजमृगाः।
पितृदौवारिकसुग्रीवकुसुमदन्ताऽम्बुपत्यसुराः।।
शोषोऽथ पापयक्ष्मा रोगः कोणे ततोहिमुख्यौ च।
भल्लाटसोमभुजगास्ततोऽदितिदितिरिति क्रमशः।।(वास्तुरत्नाकर८-१८,१९,२०)
एकाशीपद वास्तुमंडल के वाह्य सीमापर अवस्थित उक्त बत्तीस देवों के नाम ऊपर के श्लोकों में गिनाये गये।
अब आगे उन स्थानों में द्वारफल कहते है-
नवगुणसूत्रविभक्तान्यष्टगुणेनाऽथ वा चतुःषष्ठेः।
द्वाराणि यानि तेषामनलादीनां फलोपनयः।।
अनिलभयं स्त्रीजननं प्रभूतधनतां नरेन्द्रवाल्लभ्यम्।
क्रोधपरता नृतत्वं क्रौर्यं चौर्यं च पूर्वेण।।
अल्पसुतत्वं प्रैष्यं नीचत्वं भैक्ष्यपानसुतवृद्धिः।
रौद्रं कृतघ्नमधनं सुतवीर्यघ्नं च याम्येन।।
सुतपीड़ा रिपुवृद्धिर्न सुतधनाप्तिः सुतार्थफलसम्पत्।
धनसम्पन्नपतिभयं धनक्षयो रोग इत्यपरे।।
वधवन्धो रिपुवृद्धिः सुतधनलाभः समस्तु गुणसम्पत्।
पुत्रधनाप्तिर्वैरं सुतेन तौषाः स्त्रियां नैस्व्यम्।।(वास्तुरत्नाकर ८-२३ से २७)
   द्वार स्थापन सम्बन्धी कुछ और भी आवश्यक बातें जानने योग्य है।भवन का मुख्यद्वार सिर्फ भवनद्वार ही नहीं है,प्रत्युत वास्तुशास्त्र के नियमानुसार गृह स्वामी की सफलता का भी द्वार है।वास्तुशास्त्रियों का कथन है कि भवन निर्माण सर्वविध सही होने पर भी यदि मुख्यद्वार(प्रवेशद्वार)किसी निषिद्ध स्थान पर स्थापित हो गया तो नानाविध संकटों को आमन्त्रित कर देगा।अतः इस कार्य में बहुत सावधानी की आवश्यकता है।
    ज्योर्निबन्ध में बड़ा ही सुगम निर्णय दिया गया है-
     नवभागं गृहं कुर्यात् पञ्च भागं तु दक्षिणे।
     त्रिभागमुत्तरे कृत्वा शेषे द्वारं प्रकल्पयेत्।।
अर्थात् जिस दिशा में मुख्यद्वार बनाना हो उसकी लम्बाई को नौ भागों में बाँट दे।अब इसमें पांच भाग दाहिने और तीन भाग बांयें छोड़ दे।शेष भाग में द्वार स्थापन करे।
    अब यहाँ एक शंका होगी कि दाहिने-बांये किसका? किधर से?इसके लिए लोगों में वैचारिक मतभेद है।कोई कहते हैं- भवन में घुसते समय दांयें ज्यादा हो,और बांयें कम(यानी अधिक लेकर घर में प्रवेश करें,और कम लेकर बाहर निकलें,अर्थात संचय हो)किन्तु यह बचकानी बात है।इसका सरल निर्णय है कि भवन का मुख विचार करना है।यहाँ आय-व्यय का विचार नहीं हो रहा है।इस प्रकार भवन यदि पूर्वाभिमुख है तो हम पूरब मुख करके खड़े हो जायें-यानी भवन की ओर पीठ करके।अब मेरा जो दायां-बायां हो वही भवन का दांया-वायां हुआ,और इसी हिसाब से ऊपर से सूत्र को लागू करें।
    कुछ ग्रन्थों में इसी नौ विभाग को मानते हुए भी भिन्न दिशाओं में भिन्न भाग को स्वीकृति देते हैं।इसकी चर्चा वास्तुरत्नाकर में भी है-
दैर्घ्ये नवांशात्पदमत्र सव्याद्द्वारं शुभं प्राक् त्रिचतुर्थभागे।
चतुर्थषष्ठे दिशि दक्षिणस्यां पश्चाच्चतुः पञ्चमके तथोदक्।
अर्थात् पूरब दिशा में लम्बाई के तीसरे और चौथे नवांश में,दक्षिण दिशा में चौथे और छठे नवांश में,तथा पश्चिम और उत्तर दिशा में चौथे और पांचवें नवाश में मुख्य द्वार बनाना चाहिए।इसे नीचे के चित्र में स्पष्ट किया जा रहा है।साथ ही कुछ मतान्तर चित्र और सारणियाँ भी प्रस्तुत हैं।

क्रमशः...

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