पुण्यार्कवास्तुमंजूषा-59

गतांश से आगे...
अध्याय १४.मुख्य द्वार-विशेष विचार- भाग तीन 
ऊपर के(गत पोस्ट) चित्रांक "ग"और "छ" में आंशिक अन्तर है- दक्षिण और उत्तर दिशा में,शेष समान हैं।वैसे देखा जाय तो इन सभी चक्रों में किंचित ही भिन्नता है। अन्तिम चक्र छ मुहूर्तगणपति के श्लोक ९३,९४ के अनुसार है-
आयामे नवधा भक्ते द्वारमेंकांश मानतः।
प्राच्यां तूर्ये तृतीयेवा रुद्रकोणाद् विधीयते।।
याम्यां षष्ठे तृतीये वा तुरीयेंशेऽथ पञ्चमे।
उदीच्यां च प्रतीच्यां वा सव्यमार्गेण धीमता।।
हालांकि मुख्य द्वार-स्थापन में मतान्तर भी बहुत है।यही कारण है कि  इस महत्त्वपूर्ण बात के लिए हमें एक स्वतन्त्र अध्याय की आवश्यकता प्रतीत हुयी।
वास्तुशात्रों में मुख्यद्वार निर्णय के लिए सिर्फ वास्तुमंडल के पदों का ही नहीं, प्रत्युत गृहस्वामी की राशि,वर्ण,तथा ध्वजादि आय से भी द्वार चयन का निर्देश है।आगे इसे विभिन्न सारणियों के माध्यम से अधिकाधिक स्पष्ट करने का प्रयास किया जा रहा है,किन्तु सबसे पहले कोणों के निर्देश को जान लें।वैसे तो पूर्ब प्रसंगों में कोणों की चर्चा हुयी ही है,फिर भी पुनः इसकी वरीयता का ध्यान दिलाया जा रहा हैः-
विभिन्न कोनों पर बने मुख्यद्वार का परिणाम
ईशान
धनलाभ,किन्तु पिता-पुत्र में तनाव
अग्नि
अकारण तनाव
नैऋत्य
रोग,प्रेतवाधा,भ्रम
वायु
उद्वेग,वायुविकार,उच्चाटन










ऊपर की सारणी में विभिन्न कोणों में भवन के प्रवेश द्वार की चर्चा की गयी।अब अागे प्रवेश की चर्चा...

क्रमशः... 

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