पुण्यार्कवास्तुमंजूषा- 62

गतांश से आगे...
अध्याय १४.मुख्य द्वार-विशेष विचार -भाग छः

अब, पुनः मुख्यद्वार सम्बन्धी कुछ अन्य बातों की चर्चा करते हैः-आगे दो सारणियाँ दी जारही हैं,जिनमें द्वादश राशियों के अनुसार मुख्यद्वार-दिशा-निर्देश-है।सारणी क और ख में किंचित भेद है,फिर भी अभेद जैसा है।

दिशायें
राशियाँ (ख)
उत्तर
मेष,सिंह,धनु
दक्षिण
वृष,कन्या,मकर
पश्चिम
मिथुन,तुला,कुम्भ
पूर्व
कर्क,वृश्चिक,मीन
 क--------ख


दिशायें
राशियाँ (क)
उत्तर
मेष,सिंह,धनु
पूर्व
कर्क,वृश्चिक,मीन
दक्षिण
मिथुन,कन्या,मकर
पश्चिम
वृष,तुला,कुम्भ








सारिणी "क" की प्रस्तुति ज्योतिर्निबन्ध के आधार पर है।भारतीय वास्तुशास्त्र में दोनों की चर्चा है।दोनों का अपने आप में महत्त्व है।किसी को भी स्वविवेक से अपनाया जा सकता है।सारणी ख की साम्यता नीचे के वर्ण सारिणी से है- यह भी विचारणीय है।
अब चार वर्णों के आधार पर मुख्यद्वार-दिशा-निर्देश-
पूर्वे ब्राह्मणराशीनां वैश्यानां दक्षिणे शुभम्।
शूद्राणां पश्चिमे द्वारं नृपाणामुत्तरे स्मृतम्।। (वृहद्दैवज्ञरंजन-८६-३५४)(वास्तुरत्नाकर८-४)
वर्ण
द्वारदिशा
ब्राह्मण
पूर्व
क्षत्रिय
उत्तर
वैश्य
दक्षिण
शूद्र
पश्चिम
आय
द्वारदिशा
ध्वज
चारों दिशायें
सिंह
पूर्व,उत्तर,दक्षिण
गज
पूर्व,दक्षिण
वृषभ
पूर्व
        
साथ ही विभिन्न आयों में   चार तरह के आय के आधार पर भी मुख्यद्वार-दिशा-निर्देश यहाँ सारिणी में दिया गया है।ध्यातव्य है कि आय निर्धारण के विषय में बारहवें अध्याय में ही कहा जा चुका है।पुनः स्मरण दिला दें कि भूखण्ड की लम्बाई-चौड़ाई को आपस में गुणा करके आठ से भाजित करे।शेष क्रमशः ध्वज,धूम्र,सिंह,श्वान,गौ (वृष),खर,गज और काक नामक आय होते हैं।इनमें ध्वज,सिंह,गज और वृष ही ग्राह्य हैं।शेष चार त्याज्य हैं।अतः उनकी चर्चा यहाँ सारणी में नहीं की गयी  है।इस सम्बन्ध में शास्त्र वचन है-
     विस्तारेण हतं दैर्घ्यं विमणेदष्टभिस्ततः।
     यच्छेषं स भवेदायो ध्वजाद्यास्ते स्युरष्टधा।।
     सर्वद्वार इह ध्वजो वरुदिग्द्वारं च हित्वा हरिः।
     प्राग्द्वारो वृषयो गजो यमसुरेशा शामिमुखःस्याच्छुभः।।
                 
                                                (वृहद्वास्तुमाला १५०)
समान मत की चर्चा ज्योतिर्निबन्ध,एवं वास्तुरत्नाकर में भी की गयी है।यथा-                                                                
        सर्वद्वारो ध्वजो देयः पश्चिमास्यं विना हरिः।
        प्राङ्मुखे दक्षिणे चैव गजः पूर्व मुखे वृषः।।
तथाच-                                                              
       ध्वजे परास्यं विप्राणां राज्ञां सिंहेप्युदङ्मुखम्।
       गजे शूद्रस्य याम्यास्यं विशः पूर्वमुखं वृषे।।(वास्तुरत्नाकर ८-७)
अर्थात् ध्वज आय वाले मकान में ब्राह्मण के लिए पश्चिम दिशा में,सिंह आय वाले मकान में क्षत्रिय को उत्तर दिशा में,गज आय वाले मकान में शूद्र को दक्षिण दिशा में,तथा वृष आय वाले मकान में वैश्य को पूर्व दिशा में मुख्यद्वार बनाना चाहिए।
क्रमशः....

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