पुण्यार्कवास्तुमंजूषा-64

गतांश से आगे....अध्याय १४.मुख्य द्वार-विशेष विचार -भाग आठ

अब आगे राहुमुख स्थिति के अनुसार मुख्यद्वार-स्थापन की चर्चा करते हैं-
   नभस्यादिषु मासेषु त्रिषु त्रिषु यथाक्रमम्।
 पूर्वादिदिक्शिरो वास्तु कुर्यात्तद्दिङ्मुखं गृहम्।।
 प्रतिकूलमुखं गेहं दुःखशोकभयप्रदम्।
 सर्वतो मुखगेहानामेष दोषो न विद्यते।।(ज्योतिर्निबन्ध,वास्तुरत्नाकर)
मास
शिर की दिशा
भादो,आश्विन,कार्तिक
पूर्व
अगहन,पौष,माघ
दक्षिण
फाल्गुन,चैत्र,वैशाख
पश्चिम
ज्येष्ठ,आषाढ़,श्रावण
उत्तर
 अर्थात् भाद्रपद से प्रारम्भ कर क्रमशः तीन-तीन महीने राहु का शिर पूर्वादि दिशाओं के क्रम से भ्रमण करता है।राहु के शिर की दिशा में ही भवन का मुख बनाना चाहिए।विपरीत दिशा में बनाने से दुःख,शोक और भय की प्राप्ति होती है। विशेष बात यह है कि सभी दिशाओं में यदि द्वार रखना हो तो इस व्यवस्था का प्रतिबन्ध नहीं है।इसे चक्र से भी स्पष्ट से किया गया है।

अब वत्सचक्र की चर्चा की जा रही है -
सूर्यराशि
वत्समुख
कन्या,तुला,वृश्चिक
पूर्व
धनु,मकर,कुम्भ
दक्षिण
मीन,मेष,वृष
पश्चिम
मिथुन,कर्क,सिंह
उत्तर
ध्यातव्य है कि-
(क)राहुमुख के अनुकूल और वत्समुख के प्रतिकूल भवनमुख होना चाहिए।
(ख)राहुचक्र में मास-गणना है,जबकि वत्सचक्र में सूर्य-राशि-गणना है।इसे अपने  विवेक से समझना चाहिए,अन्यथा आशंका होगी।
(ग)चारो दिशाओं में द्वार बनाना हो तो राहु वा वत्स चक्र का प्रतिबन्ध नहीं लगता।
वत्सचक्र के सम्बन्ध में शास्त्रादेश-
  कन्यादित्रिषु पूर्वतो यमदिशि त्याज्यं च चापादितः।
  द्वारं पश्चिमतस्त्रिके जलचरात्सौम्ये रवौ युग्मतः।।
 तस्माद्व्यस्तदिशामुखं तु भवनद्वारादिकं हानिकृत्।
 सिंहे चाऽथ वृषे च वृश्चिकघटं याते हितं सर्वतः।।(वास्तुराजवल्लभ,वास्तुरत्नाकर)
अर्थात् कन्या,तुला,वृश्चिक राशि के सूर्य रहने पर पूर्व दिशा में,धनु,मकर,कुम्भ राशि के सूर्य रहने पर दक्षिण दिशा में,मीन,मेष,वृष राशि के सूर्य रहने पर पश्चिम दिशा में,एवं मिथुन,कर्क,सिंह राशि के सूर्य रहने पर उत्तर दिशा में वत्स का मुख होता है।द्वार निर्देश है कि वत्स के मुख की दिशा में भवन का मुख नहीं होना चाहिए।किन्तु चारो दिशाओं में यदि द्वार बनाने की बात हो तो इस नियम का प्रतिबन्ध नहीं है।
क्रमशः...

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