पुण्यार्कवास्तुमंजूषा-65

गतांश से आगे....
अध्याय १४.मुख्य द्वार-विशेष विचार -भाग नौ,


अब गेहारम्भ-तिथि के अनुसार मुख्यद्वार का चयनः-
पूर्णिमातोऽष्टमीयावत्पूर्वास्यंवर्जयेद्गृहम्।उत्तरस्यांनकुर्वीतनवम्यादिचतुर्दशीम्।।
अमातश्चाष्टमी यावत्पश्चिमास्यं विवर्जयेत्।
नवम्यादौ दक्षिणास्यं यावच्छुक्लचतुर्दशीम्।।(वास्तुरत्नाकर८-१५,१६)
अर्थात् गृहारम्भ यदि पूर्णिमा से लेकर कृष्णाष्टमी के बीच हुआ हो तो मुख्यद्वार पूर्व दिशा में न बनाया जाये।कृष्ण नवमी से चतुर्दशी के बीच हुआ हो तो उत्तर दिशा में मुख्यद्वार न बनावे।आमावश्या से शुक्लाष्टमी के बीच हुआ हो तो पश्चिम दिशा में मुख्यद्वार न बनावे;एवं शुक्ल नवमी से चतुर्दशी के बीच हुआ हो तो दक्षिण दिशा में मुख्यद्वार न बनावे।इसे निम्न चक्र में दर्शाया जा रहा हैः-
निषिद्धदिशा
गृहारम्भ की तिथि
पूरब
पूर्णिमा से कृष्णाष्टमी तक
उत्तर
कृष्ण नवमी से चतुर्दशी तक
पश्चिम
आमावश्या से शुक्लाष्टमी तक
दक्षिण
शुक्ल नवमी से चतुर्दशी तक

द्वारपाल-निर्णय- द्वारदिशा-विनिश्चय के पश्चात् अब द्वारपाल की चर्चा करते हैः-
दिशश्चस्वरमादाय ग्रामनामेति गण्यते।
अष्टभिस्तु हरेद्भागं शेषं च द्वारपालकाः।।
रविश्चन्द्रःकुजःसौम्यःशनिर्जीवस्तमोभृगुः।
शुभग्रहे शुभं नित्यं पापे दुःखं प्रजायते।।(वास्तुरत्नाकर ८-३१,३२)
अर्थात् जिस दिशा में द्वार हो उस दिशा का,गृहस्वामी का,एवं ग्राम का स्वर गणना करके सबका योग करे,पुनः उस योगफल में आठ का भाग देकर शेष से द्वारपाल निश्चय करे।यथा- १.सूर्य,२.चन्द्रमा,३.मंगल,४.बुध,५.शनि,६.वृहस्पति,७.राहु एवं ८.शुक्र द्वारपाल होते हैं।केतु का इसमें स्थान नहीं है।सूर्य,मंगल,शनि,राहु द्वारपाल हों तो सदा दुःख और चन्द्रमा,बुध,गुरु,शुक्र द्वारपाल हों तो सुख की प्राप्ति होती है।
इसी भांति एक और सूत्र है-
सम्मुखे स्वरमादाय ग्रामनामसमन्वितः।
अष्टभिस्तु हरेद्भागं शेषं द्वारं विनिर्दिशेत्।।
निर्धनःधनवान् चैव दाता चैव नुपंसकः।
लक्ष्मीपतिर्धनाढ्यश्च सर्वशून्यं दरिद्रता।।(उक्त ३३,३४)
पूर्व श्लोकानुसार ही यहां भी द्वारदिशा,गृहस्वामी,और ग्राम के स्वरों का योग करके आठ से भाग देना है।शेष से फल विचार करना है,जो इस प्रकार हैं- १.निर्धन,२.धनवान,३.दाता,४.नपुंसक,५.लक्ष्मीपति(यानी विशेष धनी),६.धनाढ्य, ७.सर्वशून्य और ८.दरिद्रता।इस प्रकार एक,चार,सात,आठ शेष अशुभ और दो, तीन,पांच,सात शुभ हैं।
द्वारपाल-आनयन हेतु कुछ और भी प्रयोग है।यथा-
दक्षिणे गृहवाणघ्नं पतिनामाक्षरैर्युतम्।
नवभिस्तु हरेद्भागं शेषं द्वाराधिपाः स्मृताः।।
रवौ सन्तान हानिः स्याच्चन्द्रे कन्या कुजे शिखी।
बुधे धनं शनौ रोगं गुरौ पुत्रं त्वगौ रिपुः।।
भृगौ सौख्यं मृतिः केतो द्वारस्य नवभेदकम्।।(वास्तुरत्नाकर८-३५से३७)
अर्थात् घर में प्रवेश करते समय दाहिने(निकलते समय वांये)भाग में पिण्डशेष के माप को पांच से गुणा करे,और गृहस्वामी के नामाक्षर को जोंड़ कर नौ से भाग दे।शेष से द्वारपाल का फल विचार करे।यथा- मिथिलेश का मकान उत्तर- दक्षिण सत्ताईस हाथ है,जिसमें पूर्वाभिमुख द्वार अग्निकोण से पन्द्रहवें हाथ से अठारहवें हाथ तक है,यानी ईशान से द्वारदेश तक नौ हाथ शेष है,जो प्रवेश के समय दाहिने और निकास के समय बांयें पड़ेगा।
पुनः, ९×५=४५ में मिथिलेश का नामाक्षर ४ को जोड़ने पर ४९ हुआ।
अब ४९÷९=५ भागफल और ४ शेष आया।तदनुसार नीचे की सारणी से फल विचार करेंगे।(ध्यातव्य है कि ज्योतिषीय कार्य में शून्य का अर्थ भाजक होता है)-
शेषांक
द्वारेश
सूर्य
चन्द्रमा
मंगल
बुध
शनि
गुरु
राहु
शुक्र
केतु
फल
सन्तान
हानि
कन्या-धिक्य
अग्निभय
धनाप्ति
रोग
पुत्रलाभ
शत्रु
अतिसुख
मृत्यु


क्रमशः....

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