पुण्यार्कवास्तुमंजूषा-66

गतांश से आगे.... 
अध्याय १४.मुख्य द्वार-विशेष विचार -भाग दश


द्वारप्रमाणः-
षष्ट्यावाऽथ शतार्धसप्ततियुतैर्व्यासस्य हस्ताङ्गुलै-
र्द्वारस्योदयको भवेच्च भवने मध्यं कनिष्टोत्तमौ।
दैर्घ्यार्धेन च विस्तरः शशिकलाभागोधिकः शस्यते,
दैर्घ्यत्त्र्यंशविहीनमर्धरहितंमध्यं कनिष्ठं क्रमात्।(वास्तुराजवल्लभ,वास्तुरत्नाकर)

अर्थात् भवन के चौड़ाई के माप(गृहस्वामी के हाथ को अंगुल प्रमाण करके) उसमें पचास अंगुल जोड़ने से जो संख्या आवे वह कनिष्ट(तृतीय श्रेणी) द्वार की ऊँचाई होती है,साठ अंगुल जोड़ने से द्वितीय श्रेणी और सत्तर अंगुल जोड़ने से प्रथम श्रेणी के द्वार की ऊँचाई होती है। यथा- मान लिया कि गृहस्वामी के हाथ से बत्तीस हाथ चौड़ाई है घर की,तब बत्तीस हाथ को बत्तीस अंगुल मान लेंगे, और सत्तर अंगुल जोड देने से एकसौदो अंगुल प्रमाण हुआ उत्तम कोटि के द्वार की ऊँचाई का,बानबे अंगुल मध्य श्रेणी का और बयासी अंगुल निम्न श्रेणी का।तथा ऊँचाई का आधा + तदषोडषांश = उत्तम द्वार की चौड़ाई, ऊँचाई का आधा + तृतीयांश = मध्य श्रेणी का चौड़ाई,और ऊँचाई के आधे के तुल्य अधम श्रेणी द्वार की चौड़ाई कही गयी है।यानी उत्तम ऊँचाई १०२अंगुल का आधा = ५१ अंगुल में सोलवां हिस्सा यानी छः अंगुल से कुछ अधिक यानी ५१ + ६ = ५७ अंगुल उत्तम द्वार की चौड़ाई होनी चाहिए।इसी भांति अन्य श्रेणियों की गणना करें।
  किन्तु इस श्लोक के प्रमाण से मुख्यद्वार का आकार सन्तोष जनक प्रतीत नहीं हो रहा है। ऊपर के उदाहरण में बत्तीस हाथ भवन की चौड़ाई मानी गयी है, (औसत हाथ १४-१५ईँच का होता है,यानी २३-२४अंगुल) यानी करीब चालीस फीट चौड़ाई वाले भवन का मुख्य द्वार करीब पांच फीट होगा,जो उचित नहीं है।इससे भी कम चौड़ाई वाले भवन की क्या स्थिति होगी- सोचनीय है।
    मत्स्यपुराण में अपेक्षाकृत अधिक सुलभ सूत्र सुझाया गया है,जिसकी चर्चा वास्तुराजवल्लभ-५-२८,एवं वास्तुरत्नाकर८-४५ में भी है।
दशधाद्वाराणिः-  दैर्घ्ये सार्धंशताङ्गुलं च दशभिर्हीनं चतुर्धा विधिः
               प्रोक्तंश्चाऽथ शतं त्वशीतिसहितं युक्तं नवत्या शतम्।
          तद्वत्षोडशभिः शतं च नवभिर्युक्तं  तथाऽशीतिकं
          द्वारं मत्स्यमताऽनुसारि दशकं योग्यं विधेयं बुधैः।।
यहाँ ११०अंगुल से प्रारम्भ कर,दस-दस अंगुल बढ़ाते हुए १५०अंगुल तक का प्रमाण उत्तमोत्तम क्रम में दिया गया है।यहां किसी अन्य तरह का गणित भी नहीं करना है; किन्तु यह प्रमाण भी बहुत सन्तोष जनक नहीं प्रतीत होता। अधिकतम- एक सौ पचास अंगुल यानी साढ़े छः फीट करीब,और न्यूनतम एक सौ दश अंगुल यानी साढ़ेचार फीट करीब।आमतौर पर घर के भीतरी दरवाजों के लिए यह नाप सही हो सकता है,मुख्यद्वार के लिए कदापि नहीं।
 वहीं आगे सिंहद्वार के लिए सन्तोषजनक प्रमाण मिल रहे हैं-
ज्येष्ठा प्रतोली तिथिहस्तसंख्या प्रोक्तोदये विश्वकरा च मध्या।
कनिष्टिकारुद्रकराक्रमेणव्यासेष्टसप्तैव चरागसंख्या।।  (वास्तुराजवल्लभ५-१४)
यानी सदरफाटक पन्द्रह हाथ ऊँचा,आठ हाथ चौड़ा उत्तम;तेरह हाथ ऊँचा,सात हाथ चौड़ा मध्यम,तथा ग्यारह हाथ ऊँचा,छःहाथ चौड़ा अधम है।
अब आगे कहते हैं- प्रधानद्वारमपहाय सर्वाणि द्वाराणि तुल्यप्रमाणानिविधेयानि-
अर्थात् प्रधान द्वार को छोड़कर,शेष द्वार एक समान होने चाहिए।यानी
न्यूनाधिक नहीं।
तथाच-     मूलद्वारं नान्यैरभिसन्दधीत रुपर्द्ध्या।
          घटफलपत्रपमथादिभिश्च तन्मङ्गलैश्चिनुयात्।। (वास्तुरत्नाकर ८-४०)
अर्थात् मुख्यद्वार की अपेक्षा अन्य दरवाजों को  रुप-सज्जा-सुसज्जित नहीं करना चाहिए(यहाँ गूढ़ार्थ है कि मुख्यद्वार को विशेष सजावट- मांगलिक कलश,नारियल, शंख,पत्र-पुष्पादि उत्कीर्ण करके बनावे)और शेष दरवाजों को सामान्य ही रखें।                              
अब मुख्य द्वार के आकार और स्थिति का विचार करते हैं।क्यों कि इनका प्रभाव भी गृहवासियों पर गहरे रुप से पड़ता है।ध्यातव्य है कि द्वार निर्माण में हुयी त्रुटियों का प्रभाव,या फिर निर्माण के कुछ काल पश्चात् मौसम आदि के प्रभाव से प्रभावित मुख्यद्वार का क्या परिणाम हो सकता है गृहवासियों पर- यह स्पष्ट करने का प्रयास किया जा रहा है अगली सारिणी से। यथा-
मुख्यद्वार का आकार                     
परिणाम
त्रिकोणाकार
स्त्री -पीड़ा
शकटाकार
भय और पीड़ा
सूर्पाकार
धननाश
धनुषाकार
कलह
मृदंगाकार
धननाश                    
वृत्ताकार
कन्या सन्तति














क्रमशः..... 

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