पुण्यार्कवास्तुमंजूषा-69

गतांश से आगे...

अध्याय १४.मुख्य द्वार-विशेष विचार- भाग तेरह

द्वारशाखा-स्थापन में नक्षत्रानयन हेतु एक नक्षत्र-चक्र भी निर्दिष्ट है-
सूर्यक्षाद्युगभैःशिरस्यथ फलं लक्ष्मीस्ततः कोणभै-
र्नागैरुद्वशनं ततो गजमितैः शाखासु सौख्यं  भवेत्।
देहल्यां गुणभैर्मृतिं गृपतेर्मध्यस्थितैर्वेदभैः
सौख्यं चक्रमिदं विलोक्य सुधिया द्वारं विधेयं शुभम्।।( मुहूर्तचिन्तामणि १२-२९)
इसकी चर्चा वास्तुरत्नाकर ८-७० में भी है।अभिप्राय यह है कि सूर्य जिस नक्षत्र पर हों उस नक्षत्र से द्वारशाखा-स्थापनार्थ चन्द्र नक्षत्र तक इस प्रकार चक्र में स्थापित करके विचार करे-(इसे नीचे के चक्र से स्पष्ट किया जा रहा है)-
स्थान
शिर
कोण
शाखा
देहली
मध्य
२७ नक्षत्र
फल
लक्ष्मीप्राप्ति
उद्वसन
सौख्य
मृत्यु
सुख
इस चक्र को इस प्रकार समझें- मान लिया कि अन्य मुहूर्तगणना से अनुराधा नक्षत्र का निश्चय किया गया है।अब देखना यह है कि इस चक्र के अनुसार अनुराधा नक्षत्र का तात्कालिक फल क्या है(ध्यातव्य है कि यह फल परिवर्तन सूर्य-नक्षत्र-संक्रमण पर निर्भर है)।इसे जानने के लिए पंचांगस्थ सूर्य की स्थिति देखेंगे।मान लें कि चयनित समय में सूर्य पुष्य नक्षत्र पर हैं।पुष्य से क्रमशः अनुराधा तक गणना करने पर दसवां अंक प्राप्त होता है।अब चक्र में देखने पर दसवां अंक कोण में है(चार के बाद,पांच से बारह तक- आठ नक्षत्र कोणस्थ हैं)।कोण का फल उद्वसन होता है।इस प्रकार इस चक्र से ज्ञात हुआ कि अनुराधा नक्षत्र अन्य सिद्धान्तों से प्रसस्त होने पर भी इस सूर्य गणना के अनुसार सुफलदायी नहीं है।यहाँ प्रसंगवश एक और बात स्पष्ट कर दें कि वास्तुकार्य में प्रायः हर जगह सूर्य और चन्द्र नक्षत्रों के आपसी संतुलन का विचार करना अत्यावश्क होता है।
    उक्त चक्र के लिए मुहूर्तकल्पद्रुम में एक और प्रमाण मिलता है,जिसकी चर्चा वास्तुरत्नाकर ८-७१ में भी है।यथा-
 सूर्यभाद्युगनागाष्टगुणवेदैः शुभाशुभम्,शिरःकोणद्वारशाखादेहलीमध्यगैः क्रमात्।।
एक और चक्र की चर्चा वृहद्दैवज्ञरंजन में है-देहलीचक्रम्,जिसकी चर्चा वास्तुरत्नाकर ८-७२ में भी है।ध्यातव्य है कि यहाँ अभिजित(अठाइसवें) नक्षत्र को भी गणना में शामिल किया गया है,जबकि अन्य चक्रों में सत्ताइस नक्षत्र ही गण्य हैं।यथा-
मूले भौमं त्रिऋक्षं गृहपतिमरणं पञ्च गर्भे सुखं स्या-
न्मध्ये देयाब्धितारा धनसुतसुखदा पुच्छदेशेष्टहानिः।
पश्चाद्देयाऽष्टतारा गृहपतिसुखदा भाग्यपुत्रार्थदेयं
सूर्यर्क्षाच्चन्द्रऋक्षं प्रतिदिनगणनाद्भौमचक्रं विलोक्यम्।।
उक्त श्लोक का अर्थ नीचे के चक्र से स्पष्ट है-

स्थान
मूल
गर्भ
मध्य
पुच्छ
पृष्ठ
२८ नक्षत्र
फल
मृत्यु
सुख
धनसुतलाभ
हानि
सौख्य

द्वारशाखा-स्थापना के पश्चात् अब शाखा(चौखट)में कपाट स्थापन की बात करते हैं- चरे स्थिरे च नक्षत्रे बुधशुक्रदिने तिथौ।
   शुभे कपाटयोगः स्याद् द्विस्वभावोदये गृहे।। (वास्तुरत्नाकर ८-७३)

अर्थात् चर(स्वाती,पुनर्वसु,श्रवण,धनिष्ठा,शतभिष) और स्थिर(रोहिणी,तीनों उत्तरा) इन नौ नक्षत्रों में,बुध,शुक्रवारों में,शुभ तिथियों(१,२,३,५,७,१०,११,१३,१५)में,और द्विस्वभावराशि(३,६,९,१२)के लग्नों में द्वारशाखा को कपाट(किवाड़) से संयुक्त करना चाहिए।

क्रमशः....

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