पुण्यार्कवास्तुमंजूषा-71

अध्याय १५.गृह के आकार में परिवर्तन- भाग एक
 पूर्व निर्धारित(निर्मित)वास्तुमंडल में जहाँतक हो सके किसी प्रकार का छेड़छाड़ करने से परहेज करना चाहिए।मंडल में दोनों प्रकार का (घटाना या बढ़ाना) परिवर्तन एक अति संवेदनशील पक्ष है।कारण कि पूर्व काल में सभी प्रकार के वास्तुनियमों का विचार करके यदि मंडल-निर्माण किया गया है,तो वे सभी नियम-स्तम्भ एक बार कम्पित हो जायेंगे।परिणाम शुभ या अशुभ कुछ भी हो सकता है(गहन विचार की आवश्यकता पड़ेगी)।
  हाँ,यदि पहले से ही मंडल-निर्धारण गलत तरीके से हुआ हो,और उसे सुधार करने के विचार से मंडल संशोधन(घटाना या बढ़ाना)किया जा रहा हो, तो अलग बात है।व्यावहारिक रुप से मैंने अनुभव किया है कि जटिल वास्तुदोषों का निवारण करने में बहुत बार सिर्फ मंडल-संशोधन ही पर्याप्त होता है; किन्तु यह कार्य काफी सोचविचार के साथ करना चाहिए।
  इस सम्बन्ध में कुछ अनुभूत प्रयोग की चर्चा के साथ इस प्रसंग को आगे बढ़ाते हैं।आजकल प्रायः भवन निर्माण स्तम्भ(छड़ और कंकरीट के पीलर)के सहारे किये जाते हैं।वास्तुनियमों की अवहेलना(या अज्ञानता)वश अवांछित स्थानों(विशेष कर ब्रह्मस्थान)में पीलर खड़ा कर देने का दुष्परिणाम क्या हो सकता है- अबतक के प्रसंगों से यह स्पष्ट हो चुका है।वास्तुदोष निवारण के बड़े-बड़े दावे भी इसका पूर्णरूपेण स्थायी समाधान करने में असमर्थ प्रायः हैं। शक्तिशाली यन्त्र,या अन्य अनुष्ठानिक उपचार भी स्थायी हल नहीं दे पाते।तब एकमात्र उपाय रह जाता है- वास्तुमंडल का यथोचित विस्तार,वशर्तें कि विस्तार की गुंजायश हो।
  यहाँ कुछ चित्रों के माध्यम से इसे स्पष्ट किया जा रहा है-
ऊपर के चित्र में सफेद भाग पुराना वास्तुमंडल है,जिसके नौ खण्ड करने पर मध्य का पीला और लाल भाग मिलाकर ब्रह्मस्थान निर्धारित हुआ है।हम देख रहे हैं कि पीले भाग में एक छोटा सा काला भाग भी है,जो वास्तुकार की भूल से बना हुआ पीलर है।अब इस महान दोष को सुधारने का सर्वोत्तम उपाय है- उत्तर की ओर आवश्यकतानुसार मंडल-विस्तार करना।चित्र में नीले रंग से मंडल-विस्तार को दर्शाया गया है।विस्तार के पश्चात पुनः नौ खण्ड करने पर पाते हैं कि ब्रह्मस्थान काले भाग को त्याग कर उत्तर की ओर खिसक गया- हरे भाग में। लाल अभी भी समाहित है(पहले वह पीले का अंश था,अब हरे का अंश हो गया है- इसे बीच के विभाजन रेखा से स्पष्ट किया जा सकता है।इस प्रकार अति सरल ढंग से और स्थायी दोष निवारण हो गया।किन्तु यही विस्तार यदि पूरब दिशा में होता तब ब्रह्मस्थान तो खिसकता,परन्तु सूर्यवेध दोष पैदा कर देता।अतः वह विस्तार सर्वथा अनुचित कहा जायेगा।
क्रमशः.....

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