पुण्यार्कवास्तुमंजूषा-72

 गतांश से आगे...अध्याय १५.गृह के आकार में परिवर्तन- भाग दो

 अब अगले चित्र को देखें-

विस्तार बहुत सोच-समझ कर करना चाहिए।इस सम्बन्ध में कुछ वास्तु
निर्देशों का अवलोकन किया जाय-
इच्छेद्यदि गृहवृद्धिं ततः समन्ताद्विवर्धयेत्तुल्यम्।
एकोदेशे दोषः प्रागथवाऽप्युत्तरे कुर्यात्।।
प्राग्भवति मित्रवैरं मृत्युभयं दक्षिणेन यदि वृद्धिः।
अर्थविनाशःपश्चादुदग्विवृद्धिर्मनस्तापः।।
                   (वृहत्संहिता५२-११४,११५,वास्तुरत्नाकर ६-१२,१३)
यदि गृह-पिण्ड बढ़ाने की इच्छा हो तो चारो ओर समान रुप से बढ़ाया जाना चाहिए,किसी भी एक दिशा में कदापि न बढ़ाया जाय।दूसरा विकल्प है- पूरब और उत्तर की ओर बढ़ाया जाय।श्लोक में आगे इसका परिणाम कहते हैं-पूर्व विस्तार से मित्र-वैर,उत्तर-विस्तार से मनस्ताप,पश्चिम-विस्तार से धननाश और दक्षिण-विस्तार से मृत्यु-भय की आशंका रहती है।
   
ठीक इन्हीं भावों को इंगित करता निम्न श्लोक-
हर्म्यस्यापि समृद्धितो गृहपतिर्वृद्धिं यदापीहते,
सर्वाशासु विवर्धनश्च फलदं दुष्टं तदेकत्र च।
प्राङ्मित्रैरपि वैरमुत्तरदिशाभागे मनस्तापकृत्
पश्चादर्थविनाशि दक्षिणदिशःशत्रोर्भयं वर्धते।।(वास्तुराजवल्लभ५-३९)

तथाच- वास्तुक्षेत्रादर्वाक्प्रत्यग्दिशि नैव गृहं रचयेत्।
     उत्तरस्यां तु पूर्वस्यां गृहात्सर्वं गृहं रचेत्।(ज्योतिर्निबन्ध,वास्तुरत्नाकर ६-१४)
अर्थात् वास्तुक्षेत्र के दक्षिण-पश्चिम मकान न बनावे।उत्तर-पूर्व बनाया जाय।(यहाँ किंचित भाव-भिन्नता है)।
अब इसका परिहार कहते हैं- माण्डव्य,गर्ग आदि ऋषियों के वचन हैं-
सद्मोच्चाद्विगुणाधिकान्तरभुवि प्रत्यक्तया दक्षिणे
गेहं चाशु रचेच्छुभाय भवनं सत्कर्मणां सिद्धये।
माण्डव्यादिमुनीन्द्रगर्गप्रभवा एवं वदन्तीति च
संशोध्यैव गृहं रचेच्च सुधिया भव्यादिकमालिखे।।(वास्तुरत्नाकर ६-१५)

ऊपर के श्लोक में सीधे विस्तार की बात न कह कर समीप में नये निर्माण की ओर संकेत है-  पुराने पिण्ड(निर्मित भवन) के दक्षिण वा पश्चिम(या दोनों ओर) नया निर्माण करना हो तो पूर्वभवन की ऊँचाई से दूनी दूरी पर किया जा सकता है।इसमें कोई दोष नहीं।
   भवनभास्कर में कोणों के विस्तार की भी चर्चा है।जिसमें नैऋत्य को सर्वाधिक दोषपूर्ण- सन्तानहानि वाला कहा गया है।वस्तुतः नैऋत्य में वास्तु मंडल का पितृ और मृग पद है।राहु-केतु ग्रहों का स्थान है यह।तदनुसार पितृ दोष,और रक्ष दोष हावी होता है,जिसका कुफल सन्तान पक्ष पर जाता है। वायुकोण वातव्याधि (गठिया,लकवा आधि)को जन्म देता है।अग्निकोण मानसिक तनाव और अग्निभय पैदा करता है।आम धारणा है कि ईशानवृद्धि अच्छा होता है,जो कि मूढ़ता है।ये कहें कि ईशान अपेक्षाकृत न्यूनदोषी है।यहाँ अन्ननाश की चर्चा है। ध्यातव्य है कि अन्ननाश सिर्फ किसान का ही नहीं, बल्कि किसी भी गृहस्वामी का हो सकता है।कुल मिलाकर देखा जाय तो कोणों का विस्तार भी उचित नहीं है।
 यहाँ दो और चित्र प्रस्तुत हैं,जिसमें कोणों के विस्तार का परिणाम इंगित है,
साथ ही सर्वाधिक त्याज्य विस्तार को भी दर्शाया गया है-



निष्कर्षः-ऊपर के चित्रों और ऋषिमन्तव्यों से स्पष्ट है कि
Ø चारो ओर का समान विस्तार सर्वश्रेष्ठ है।
Ø विशेष परिस्थिति में उत्तर का विस्तार किया जा सकता है।क्यों कि इसमें आंशिक हानि है।
Ø सूर्यवेध न उत्पन्न होता हो तो पूर्व-विस्तार भी किया जा सकता है,क्यों कि इसमें भी आंशिक हानि है।
Ø पश्चिम का विस्तार धननाशक है।
Ø दक्षिण का विस्तार सर्वथा त्याज्य है।
Ø कोणों का विस्तार भी दिशाविस्तार की तरह ही वर्जित हैं।
Ø नैऋत्यकोण का विस्तार सर्वाधिक त्याज्य है।
इन्हीं तथ्यों को नीचे की सारणी में भी दर्शाया जा रहा है-
विस्तार की दिशा
परिणाम
पूरब
मित्रवैर
उत्तर
मनस्ताप
पश्चिम
धननाश
दक्षिण
मृत्यु
ईशान
अन्ननाश
अग्नि
अग्निभय
नैऋत्य
सन्ताननाश
वायु
वातव्याधि

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