पुण्यार्कवास्तुमंजूषा-73

अध्याय १६. गृह-निर्माण-सामग्री-विचार  (भाग एक)
   
गत प्रसंगों में भवन-निर्माण सम्बन्धी बहुत सी बातों की चर्चा हुई।एक अति महत्वपूर्ण विषय(मूल घटक) अभी शेष है- निर्माण-सामग्री।इस सम्बन्ध में लोग सीधे सिर्फ राजमिस्त्री,ठेकेदार या अभियन्ता से सम्पर्क कर,सन्तुष्ट हो जाते हैं कि हमने उत्तम कोटि का सीमेंट,छड़ या अन्य विल्डिंगमेटेरियल प्रयोग किया है;किन्तु वास्तुशास्त्र इससे कई कदम आगे की बात सुझाता है। इसके अनुसार गुणवत्ता का अलग मापदंड है। यहाँ कुछ वैसे ही नियमों की चर्चा करेंगेः-
(क)सबसे पहले एक अति महत्वपूर्ण बात की ओर ध्यान दिलाना चाहता हूँ जिसके बारे में प्रायः लोग बिलकुल ही विचार नहीं करते।थोड़े कीमत के लोभ में पुरानी सामग्री- ईंट,पत्थर,लोहे-लक्कड़,चदरे,किवाड़,या अन्य गृहोपकरण- चूल्हा,चक्की,आलमीरा,पलंग,कुर्सी,सोफा,पंखे,मशीनें आदि खरीद लेते हैं।सचपूछा जाय तो ये चीजें मुफ्त में भी महंगी हैं,जिसका अनुभव और ज्ञान क्रेता और उपभोक्ता को जरा भी नहीं होता।अन्य शास्त्रों की भी माने तो, कोई भी उपभुक्त वस्तु पुनः उपयोग कर्ता के लिए ९९.९% मामले में हानिकारक ही होती हैं,भले ही इसका प्रत्यक्ष अनुभव न हो।इसके पीछे गहन विज्ञान छिपा है।पुरानी उक्ति है-असनं,वसनं चैव दारा,पत्नी,कमण्डलु...../लेखनी,पुस्तकी,दारा पर हस्ते न दीयते...  इत्यादि।यहाँ "दीयते" शब्द में ग्रहण अर्थ भी छिपा हुआ है।यानी हम इन वस्तुओं को न किसी को दें,और न किसी से लें।हर वस्तु का अपना अलग महत्व है,तदनुसार सूक्ष्म कारण और प्रभाव भी है।जो वस्तु किसी के पास लम्बे समय तक उपयोग में रह गयी है,उस वस्तु पर उस व्यक्ति का शुभाशुभ प्रभाव अंकित हो गया है,और जरुरी नहीं कि अन्य व्यक्ति के लिए भी वह उतना ही प्रभावकारी हो।आधुनिक विज्ञान इन बातों को अपने ढंग से व्याख्यायित करने का प्रयास कर रहा है,जो हमारे प्राचीन मतों के सामने अभी बहुत ही बौना है।
  मूल अभिप्राय यह है कि किसी भी तरह की पुरानी सामग्री का उपयोग करने से यथासम्भव बचें।
  विभिन्न शास्त्रों में इन बातों की विशद चर्चा है।वास्तु-प्रसंग में ज्योतिर्निबन्ध, और वास्तुरत्नाकर गृहोपकरणप्रकरण में कहा गया है-
नूतने नूतनं काष्ठं जीर्णे जीर्णं प्रशस्यते।
जीर्णे च नूतनं काष्ठं नो जीर्णें नूतने गृहे।।
अन्यवेश्मस्थितं दारु नैवान्यस्मिन्प्रयोजयेत्।
न तत्र निवशेत्कर्ता वसन्नपि न जीवति।।
इष्टिकालोहपाषाणमृत्तिकाजीर्णमायसम्।
तृणं पत्रं बुधैः प्रोक्तं दारु नूत्नं गृहाय वै।।(६/१६-१८)
कथन का अभिप्राय यह है कि नये मकान में सबकुछ नया ही होना चाहिए।यहाँ एक और रहस्य छिपा है- उपर के कथन से लोग यही अर्थ लगा लेंगे कि अपना और पराया का भेद है- नहीं,ऐसी बात नहीं है।अपने ही मकान का पुराना सामग्री भी अपने ही नये मकान में नहीं उपयोग करना चाहिए।दूसरे के सामान का उपयोग तो और भी हानिकारक हो जाता है;जिसके परिणामस्वरुप गृहस्वामी को उद्वेग,मनस्ताप,रोग,शोक,यहाँ तक की मृत्यु की भी आशंका जतायी गई है। पुरानी सामग्री का प्रभाव व्यक्ति,स्थान,परिवेश आदि के अनुसार न्यूनाधिक हुआ करता है।किसी वर्णेत्तर(विशेष कर नीचे से ऊपर की ओर) की पुरानी सामग्री का उपयोग सत्त्वादित्रिगुणात्मक प्रभाव डाले वगैर नहीं रह सकता।
    किसी अस्पताल,जेलखाने,वेश्यालय,मठ,मजार,मन्दिर आदि की पुरानी सामग्री से बने, नये मकान में कोई सुख,शान्ति आरोग्य की कल्पना नहीं कर सकता।किसी कसीनों की सामग्री का उपयोग करके विद्यालय बना देने से विद्या- मन्दिर भी दूषित हो जायेगा।किसी दिवालिये की दुकान का रैक,आलमीरा सस्ते दाम में खरीद कर,नया दुकानदार अपनी तरक्की के दिवास्वप्न न देखे।इसी भांति चोरी की वस्तु सस्ते दाम में लेने से भी परहेज करना चाहिए।न्यायालय द्वारा नीलामी की वस्तु खरीदना भी वास्तुसम्मत नहीं है।नैतिक,वैधिक,धार्मिक, सामाजिक,आदि इसके कई कारण हैं।
क्रमशः....

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