पुण्यार्कवास्तुमंजूषा-74

गतांश से आगे...अध्याय १६. गृह-निर्माण-सामग्री-विचार(भाग दो

(ख)आज की बाजार व्यवस्था में सभी सामानों के लिए हम किसी और पर निर्भर हैं- मिट्टी से लेकर ईंट,पत्थर,लकड़ी तक के लिए।सामग्री के स्रोत के सम्बन्ध में विचार करना जरुरी भी नहीं समझते,और समझें भी तो बहुत सी व्यावहारिक कठिनाइयाँ होंगी।पुराने समय में अपनी जमीन होती थी।अपने बगीचे के पेड़-पौधे होते थे।अपने खेत की मिट्टी होती थी।बहुत कुछ जाना पहचाना सा होता था;जो आज के लिए प्रायः असम्भव सा है।फिर भी नियम की जानकारी आवश्यक है,और यथासम्भव पालन भी।
   भवन-निर्माण-सामग्रियों में ईंट,पत्थर,गारा,सीमेंट,सरिया आदि के साथ-साथ प्रचुर मात्रा में उत्तम श्रेणी की लकड़ियों की आवश्यकता पड़ती है।सीमेंट,छड़ आदि तो समीप के बाजार से उपलब्ध करना ही है।इसमें गुणवत्ता का ध्यान रखना जरुरी है।मकान रोज-रोज नहीं बनता,और चन्द दिनों के लिए भी नहीं बनता।जीवन की गाढ़ी कमाई भवन-व्यवस्था में प्रायः खप जाती है।अतः किसी प्रकार की लापरवाही,या कोताही उचित नहीं।
    पूर्वकाल में लोग भवन-निर्माण के लिए ईंटों का निर्माण स्व निर्देशन में कराते थे।अपने नाम-वर्ण-गोत्रादि का विचार करते हुए, पहले लकड़ी का अनुकूल सांचा बनवाते थे,फिर शुभ मुहूर्त में भूमिपूजन करके इष्टिकानिर्माण कार्य प्रारम्भ होता था।ईंटों की गुणवत्ता के साथ-साथ आकार की भी वास्तुशास्त्रियों ने जांच-परख की है।विश्वकर्मप्रकाश के इष्टिकाप्रकरण श्लोक संख्या ४४४,४४५ में चारो वर्णों के लिए इष्टिकामाप निर्धारित किए हैं-
शिलाप्रमाणं क्रमशः प्रदिष्टं वर्णानुपूर्वेण तथाङ्गुलानाम्।
अथैकविंशद् घनविश्वनन्दा विस्तारके व्यासमितं तदर्धम्।।
तदर्धमानं त्वथ पिण्डिका स्यादूर्ध्वाधिका न्यूनतरा न कार्या।
प्रमाणहीना सुतनाशकारिणी,व्यङ्गाव्ययं,भ्रष्टविवर्णदेहा।
धनार्तिदा,प्रस्तरगेहमाने कार्या शिला शिल्पिजनाऽकूला।।(वास्तुरत्नाकर७-१,२)
अर्थात् ब्राह्मण के लिए २१ अंगुल(स्वांगुल)लम्बी,इक्कीस बटा दो बराबर दश पुर्णांक एक बटा दो अंगुल चौड़ी,और इक्कीस बटा चार यानी पांच पूर्णांक एक बटा चारअंगुल मोटी,

क्षत्रियों के लिए १७ अंगुल लम्बी, सत्रह बटा दो यानी आठपूर्णांक एकबटा दो अंगुल चौड़ी,और सत्रह बटा चार यानी चार पूर्णांक एक बटा चार अंगुल मोटी,

वैश्य के लिए १३ अंगुल लम्बी,  तेरह बटा दो = ६पूर्णांकएकबटा दो  अंगुल चौड़ी,और
तेरह बटाचार = ३पूर्णांक एक बटा चार  अंगुल मोटी,एवं

 शूद्रों के लिए ९ अगुंल लम्बी, नौ बटा दो = ४पूर्णांक एक बटा दो  अंगुल चौड़ी,और
नौ बटा चार =नौ पूर्णांक एक बटा चार अंगुल मोटी ईंट शुभदायक होती है।
इससे न्यूनाधिक माप अशुभ होता है, जिसका प्रभाव सीधे सन्तति(भावीपीढ़ी) पर पड़ता है,यानी सन्ताननाश।आगे कहते हैं कि छिन्न-भिन्न,टेढ़ी-मेढ़ी ईंटों का भवन निर्माण में प्रयोग धननाशक होता है।तथा खुरदरी,बेडौल,बदसूरत ईंटें दुःखदायी होती हैं।पुनः कहते हैं कि पत्थर की ईंटों का प्रयोग शिल्पी(कारीगर) की इच्छानुसार ही करना चाहिए।
  स्मृतिग्रन्थों में भी ऐसा ही इष्टिकाप्रमाण मिलता है-
एकविंशद् द्विजाग्याणां क्षत्राणां दशसप्त च।
त्रयोदश तु वैश्यानां शूद्राणां तु नवांगुलम्।।
वास्तुरत्नाकर,विश्वकर्मप्रकाशादि वास्तु ग्रन्थों में देवमन्दिर और राजभवन के लिए विशेष इष्टिका का परिमाण बताया गया है।यथा-
प्रसादादौ विधानेन कर्तव्याः सुमनोहराः।
चतुरस्राः समाः कृत्वा समन्ताद्धस्तसम्मिताः।।
अर्थात् राजप्रासाद और देवस्थलों के लिए सुन्दर,सुडौल,मनोहर,चारो तरफ से बराबर एक-एक हाथ लम्बी-चौड़ी ईंटों का प्रयोग करना चाहिए।(यहाँ पत्थर के ईंटों के प्रयोग का भाव भी निहित है)।
सामान्य जन के लिए वास्तुराजवल्लभ ५-१२,तथा वास्तुरत्नाकर ७-४ का इष्टिका परिमाण भी द्रष्टव्य है- दैर्घ्ये चन्द्रकलाङ्गुलोत्तमशिला मध्यङ्गुलोनान्तिमा।
                               व्यासो दिङ्नवभूभृदुच्छ्रितिरपि त्र्यंशेन विस्तारतः।।
अर्थात् सोलह अंगुल लम्बी,दस अंगुल चौड़ी ईंट उत्तम,पन्द्रह अंगुल लम्बी,नौ अंगुल चौड़ी ईंट मध्यम,और चौदह अंगुल लम्बी,आठ अंगुल चौड़ी ईंट अधम होती है।यहीं आगे कहते हैं कि चौड़ाई के तृतीयांश के तुल्य ईंट की मोटाई बनानी चाहिए।
गर्गादि मुनियों ने विभिन्न इष्टिका प्रमाण को अलग-अलग संज्ञा से भी विभूषित
किया है।यथा-
तिथ्यङ्गुलानि विजया मङ्गला सप्तचन्द्रकैः।
पक्षेन्दुभिर्निर्मला स्यात्सुखदा रामपक्षकैः।।
अर्थात् पन्द्रह अंगुल लम्बी ईंट को विजया,सत्रह अंगुल लम्बी ईंट को मंगला, बारह अंगुल लम्बी ईंट को निर्मला,और तेरह अंगुल लम्बी ईंट को सुखदा कहते हैं।
   ईंटों के माप-निर्धारण के बाद अब ईंट-निर्माण-काल-मुहूर्त की बात करते हैं। वास्तुरत्नाकर इष्टिकाप्रकरण अध्याय ७ श्लोक संख्या ६ से १० –
उत्तराश्विश्रवे पुष्ये ज्येष्ठान्त्ये रोहिणी करे।
स्थिरेऽङ्गेऽर्के गुरौ मन्दे इष्टिकारम्भणं चरेत्।।
तथा गेहे सुधालेपः इष्टिकारम्भमादिषु।
अर्थात् तीनों उत्तरा,अश्विनी,श्रवण,पुष्य,ज्येष्ठा,रेवती,रोहिणी, और हस्ता- इन दस नक्षत्रों में,स्थिर(वृष,सिंह,वृश्चिक,कुम्भ)लग्नों में,रविवार,गुरुवार,और शनिवार को ईंट बनाने का कार्य प्रारम्भ करना चाहिए।मकान में पलस्तर-पोचारा भी इन्हीं मुहूर्तों में प्रशस्त है।
  इस सम्बन्ध में कुछ विशेष विचार का भी निर्देश है-
पञ्चत्रिकं त्रिकं पञ्च सप्त पञ्चावनीजभात्।
सौख्यं मृत्युः क्रमेणैव इष्टिकारम्भणे मतः।।
अर्थात् मंगल जिस नक्षत्र पर हो उस नक्षत्र से,चयनित चन्द्र नक्षत्र तक गणना करे(ध्यातव्य है कि वास्तु-ज्योतिष कार्यों में सूर्य,मंगल,राहु,शनि आदि के संक्रमित नक्षत्र से कार्यदिवसीय चन्द्र नक्षत्र तक गणना करके ही फलाफल जानने का नियम है।चन्दमा की स्थिति तो हरहाल में समान रुप से विचार करना ही है,किन्तु अन्य ग्रहों का संक्रमण विहित कार्य के अनुसार किया जाता है।किसी कार्य में सूर्य से चन्द्र तक विचार करते हैं,किसी कार्य में मंगल से चन्द्र तक,किसी में शनि से चन्द्र तक,तो किसी में राहु से चन्द्र तक।यहाँ मिट्टी से ईंट बनाने की बात है,अतः भूमिपुत्र मंगल से चन्द्रमा की दूरी का विचार करेंगे)।नीचे की सारणी में इसके फलाफल को दर्शाया गया है।दूसरी बात ध्यान देने योग्य है कि अभिजित नक्षत्र को भी यहाँ ग्रहण किया गया है।इस प्रकार सत्ताइस के वजाय अठाईस नक्षत्र हो गये।
२८ नक्षत्र
फलाफल
सौख्य
मृत्यु
सौख्य
मृत्यु
सौख्य
मृत्यु
मान लिया,जिस दिन हम ईंट बनाना प्रारम्भ करना चाहते हैं,उस दिन मंगल रोहिणी नक्षत्र पर हैं,और चन्द्रमा पुष्य नक्षत्र पर।ऊपर के चक्र में प्रथम पांच का फल सौख्य है।रोहिणी से पुष्य पांचवां नक्षत्र है।अतः इष्टिका-कार्यारम्भ प्रशस्त है।
क्रमशः....

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