पुण्यार्कवास्तुमंजूषा-76

गतांश से आगे....
अध्याय सोलह--  गृह-निर्माण-सामग्री-विचार - भाग चार

(ग) भवन-निर्माण हेतु काष्ठ-विचार- विश्वकर्मप्रकाश में कहा गया है-
   
   एकजात्या द्विजात्या वा त्रिजात्या वा महीरुहाः।
   कारयेत्सर्वगेहेषु तदूर्ध्वं नैव कारयेत्।।
   एकदारुमया गेहाः सर्वशल्यनिवारकाः।
   द्विजात्या मध्यमा प्रोक्तास्त्रिजात्या अधमाः स्मृताः।।(वास्तुरत्नाकर ६-६०)
भवन में एक,दो,या तीन प्रकार की लकड़ियों का ही प्रयोग करना चाहिए।इससे अधिक प्रकार का नहीं।एक प्रकार- उत्तम,दो प्रकार- मध्यम,और तीन प्रकार- के प्रयोग को अधम कहा गया है।इससे अधिक त्याज्य है।विशेष बात यह है कि एक ही प्रकार के काष्ठ के प्रयोग से विभिन्न प्रकार के शल्यदोषों का भी निवारण हो जाता है।अतः यथासम्भव उत्तमकाष्ठ का प्रयोग करना चाहिए।
अब काष्ट की जाति पर प्रकाश डालते हैं-
श्रीपर्णी रोहिणी शाकं सर्जुश्च सरलाः शुभाः।
पतङ्गलोध्रशालाख्यास्तालार्जुनकशिंशपाः।।
चन्दनाशोकबदरी मधूकाश्च कदम्बकाः।
प्रशस्ताश्च शमीनिम्बविल्ववर्ज्यं गृहान्तिके।।
गेहे दारुगुणैर्युक्ते गृहकर्मणि युज्यते।
गृहे काष्ठं समं श्रेष्ठमलिन्दे विषमं शुभम्।।(वास्तुरत्नाकर६/४९-५१)
अर्थात् श्रीपर्णी(कायफल),रोहिणी(रोहिड़ा,कुटकी),शाक(सागवान),सर्ज(धूना,राल), सलई,लोध्र,पतङ्ग,शाल(सखुआ),अर्जुन,शिंशपा(शीशम,सीसो),चन्दन,अशोक,बदरी (बेर),महुआ,कदम्ब,ताल आदि की लकड़ियों का भवन में प्रयोग करना चाहिए। तथा शमी,निम्ब(नीम) और विल्व(वेल) का प्रयोग नहीं करना चाहिए।पुनः कहते हैं- गुणयुक्त काष्ठों का ही प्रयोग करना चाहिए।एवं गृह में सम संख्यक तथा अलिन्द में विषम संख्यक काष्ठ का प्रयोग करना चाहिए।
(नोटः-अन्यान्य ऋषिमत से ताल(ताड़)और बेर का प्रयोग निषिद्ध है,तथा विल्व (वेल) को ग्राह्य कहा गया है।)
अब आगे अशुभ(अग्राह्य) वृक्षों की सूची दी जा रही है-
प्लक्षोदुम्बरचूताख्या निम्बस्नुहिविभीतकाः।
दग्धा कण्टकिनो वृक्षा वटाश्वत्थकपित्थकाः।।
अगस्तिशिग्रुतालाख्यास्तिन्तिणीकाश्च निन्दिताः।
अन्ये च गृहनिर्माणे योजनीया समा द्रुमाः।।(उक्त ५२,५३)
अर्थात् ः- -पाकड़,गूलर,आम,नीम,विभीतक(बहेरा),स्नुहि(सेहुड़),शिग्रु(सहिजन,मुनगा), वट,पीपल,कपित्थ(कैत),अगस्त,ताल,तिन्तिड़ी(इमली)तथा जला हुआ,कांटेवाला, सड़ा हुआ काष्ठ गृह-कार्य में प्रयोग नहीं करना चाहिए।
(नोटः-1.आम का वृक्ष आंगन या गृहवाटिका में लगाने से सन्ताननाश होता है, किन्तु इसकी लकड़ी गृहकार्य में प्रयुक्त हो सकती है- ऐसा अन्य ऋषियों का मत है।
2.स्नुहि और शिग्रु की लकड़ी इस योग्य होती ही नहीं कि इनका प्रयोग भवन में किसी प्रकार किया जा सके।अतः गृह-समीप त्याज्य वृक्ष-सूची में इन्हें रखा जाना चाहिए,न कि गृहकाष्ठ सूची में।)
वाराहमिहिर की वृहत्संहिता में कुछ अन्य त्याज्य काष्ठों का वर्णन मिलता है, जिसकी चर्चा वास्तुरत्नावली (६/५४-५८) में भी है-
पितृवनमार्गसुरालयवल्मीकोद्यानतापसाश्रमजाः।
चैत्यसरितसङ्गमसम्भवाश्च घट्योयसिक्ताश्च।।
कुञ्जानुजातवल्लीनिपडिता वज्रमारुतोपहृता।
स्वपतितहस्तिनिपीडितशुष्काग्निप्लुष्टमधुनिलयाः।।
तरवो वर्जयितव्याः शुभदाः स्युः स्निग्धपत्रकुसुमभवाः।
अर्थात् पितृवन(श्मशान,कब्रगाह),रास्ता,देवालय,तपोभूमि,चैत्य(डीह),नदी-संगम,
आदि स्थानों पर पैदा हुए वृक्षों को गृह-कार्य में ग्रहण नहीं करना चाहिए, तथा मधुमक्खियों और वल्मीक(दीमक)युक्त,वन की वल्लियों से लिपटे हुए,घड़े के जल से सींचे हुए,आँधी-तूफान-विजली आदि से ध्वस्त,हाथियों द्वारा उखाड़े गये, स्वयं सूखे-रोग-ग्रस्त,दावानल में जले हुए वृक्षों को भी गृह-कार्य में प्रयोग नहीं करना चाहिए।नीच जाति द्वारा रक्षित-रोपित वृक्ष भी अग्राह्य हैं।चिकने,सुन्दर फूल-पत्तियों वाले पेड़ की लकड़ी को ही भवन में लगाना उत्तम होता है।
पुनः चारो वर्णों के लिए प्रशस्त काष्ठ का निर्देश करते हैं-
सुरदारुचन्दनसमा मधूकतरवः शुभा द्विजातीनाम्।।
क्षत्रस्यारिष्ठास्त्वश्वत्थखदिरविल्वाः विवृद्धिकराः।
वैश्यानां जीवक खदिर सिन्धूक चन्दनाश्च शुभफलदाः।।
तिन्दुककेशरसर्जार्जुनोत्थशालाश्च शूद्राणाम्।
सर्वेषां वा शस्ता सर्वे वृक्षाश्च निन्दिता ये न।।
ब्राह्मणों को देवदारु,चन्दन,मधूक(महुआ);क्षत्रियों को अरिष्ठ(रीठा),पीपल,खदिर (खैर)और बेल;वैश्यों को जीवक(विजयसार,विजैया),खैर,सिन्धूक(म्योड़ी) और चन्दन; तथा शूद्रों को तिन्दुक(कुचला),नागकेसर,सर्ज(धूना) और अर्जुन(कहुवा) का वृक्ष भवन-निर्माण में प्रयोग करना चाहिए।
वहीं पुनः कहते हैं कि वास्तुकार्य के लिए ग्राह्य सभी प्रकार के वृक्ष सभी वर्णों को उपयोग करने चाहिए,किन्तु निषिद्ध काष्ठ सबके लिए सर्वथा वर्जित हैं।
वास्तुराजवल्लभ ५/१६,१७ में कुछ अन्य रुप में गृह-काष्ठ-वर्णन है-
वृक्षं दग्धविशुष्ककण्कयुतं नीडैस्तु चैत्यद्रुमं।
क्षीरं मारुतपातितं च भवने चिञ्चाविभीतं त्यजेत्।।
शाकःशालमधूकसर्जखदिरा रक्तासनाः शोभनाः।
एकोऽसौ सरलोऽर्जुनश्च पनसः श्रीपर्णिका शिंशपा।।
हारिद्रस्त्वपि चन्दनः सुरतरुः पद्माक्षकस्तिन्दुकः।
नैतेऽन्येन युता भवन्ति फलदा शाकादयः शोभनाः।।
अर्थात् जला हुआ,सूखा हुआ,कीड़े लगे हुए,पक्षियों के घोसले वाले,चैत्य(टीले) पर उगे हुए,आँधी में गिरे हुए,अधिक दूध वाले(वट,पीपल,उदुम्बर,पाकड़),इमली तथा विभीतक(बहेरा) के पौधों का प्रयोग भवन-निर्माणमेंनहींकरनाचाहिए।शाक (सागवान),शाल(सखुआ),मधूक(महुआ),सर्ज(धूना),सरल,अर्जुन(कहुआ),पनस (कटहल),श्रीपर्णी(काफर),शिंशपा(सीसो,शीशम),खदिर(खैर),चन्दन,पद्माख,तिन्दुक (कुचला),देवदार आदि वृक्ष सुन्दर पके हुए अति शुभ होते हैं,किन्तु इन्हें अकेले ही प्रयोग करना चाहिए,यानी किसी अन्य काष्ठ के साथ प्रयोग करना उचित नहीं है।
(नोटः-ऊपर के श्लोकों में चन्दन की चर्चा सर्वत्र है,जो ततयुगीन निर्देश है।आज के समय में शुद्ध चन्दन देवताओं के लिए भी दुर्लभ हो रहा है,ऐसी स्थिति में भवन-कार्य में प्रयुक्त होना असम्भव सा है।)
    
काष्टचयन के सम्बन्ध में वास्तुप्रदीप २२,वास्तुरत्नाकर-६/३५ में कहा गया है-   आसन्नगा कण्टकिनोऽथ वृक्षाः स्युः शत्रुदास्त्वर्थहराः सदुग्धाः।
  प्रजाक्षया नेष्टफलाः समस्तास्तस्माद्विवर्ज्याः सकलाश्च वृक्षाः।।
 अर्थात् आसन(करासन)-एक अति कठोर काष्ठ,कांटेदार वृक्ष- वेर,बबूल,अकोल्ह, कटारी आदि,दूध वाले- बट,पीपल,महुआ आदि वृक्ष की लकड़ियों को भवन-कार्य में प्रयुक्त नहीं करना चाहिए।इसके प्रयोग से सन्तान-हानि,शत्रु-भय,धननाश की आशंका रहती है।

क्रमशः....

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