गतांश से आगे.....अध्याय १६. गृह-निर्माण-सामग्री-विचार भाग पांच
क्रमशः...
प्रसंगवश अब काष्ठछेदन की बात करते
हैं-
विश्वकर्मप्रकाश,वास्तुरत्नाकर,वृहत्संहिता
आदि ग्रन्थों में पेड़ कब और कैसे काटा जाय- इस विषय की भी चर्चा है-
द्व्यङ्गराशिगते सूर्ये
माघे भाद्रपदे तथा।
वृक्षाणां छेदनं कार्यं सञ्चयार्थं
न कारयेत्।।
सिंहे नक्ते च दारुणां
छेदनं नैव कारयेत्।
ये मोहाच्च प्रकुर्वन्ति
तेषां गेहेऽग्नितो भयम्।।
अर्थात् द्विस्वभाव(मिथुन,कन्या,धनु,मीन)राशियों
में सूर्य के रहने पर (विशेषकर भाद्र और माघ मास में) वृक्ष काटना चाहिए,किन्तु
संचय के लिए काटना उचित नहीं है।यानी
शीघ्र प्रयोग के लिए काटा जा सकता है।पुनः कहते हैं कि सिंह और मकर के सूर्य रहने
पर उक्त महीनों में भी गृहकार्यार्थ वृक्षछेदन नहीं करना चाहिए।अज्ञान,या स्वार्थ
वश यदि ऐसा करता है तो उसे अग्नि का कोपभाजन बनना पड़ता है।यानी अग्निभय की आशंका
रहती है।
सौम्यं पुनर्वसुं मैत्रं
करं मूलोत्तरात्रये।
स्वाती च श्रवणं चैव
वृक्षाणां छेदने शुभम्।।
अर्थात् मृगशिरा,पुनर्वसु,अनुराधा,हस्ता,मूल,उत्तराफाल्गुनी,उत्तराषाढ़,उत्तरभाद्रपद,
स्वाती,और श्रवण- इन दस नक्षत्रों में पेड़ काटना उत्तम होता है।
चन्द्रमा
के दस नक्षत्रों की चर्चा करके अब अगले श्लोक में सूर्य के नक्षत्रों की महत्ता पर
प्रकाश डालते हैं-
सूर्यभाद्वेदगोतर्कदिग्विश्वनखसम्मिते।
चन्द्रर्क्षे
दारुकाष्ठानां छेदनं शुभदायकम्।।
अर्थात् सूर्य के नक्षत्र से(जहाँ सूर्य
हों)चौथे,नौवें,छठे,दशवें,तेरहवें और बीसवेंनक्षत्र
पर चन्द्रमा के रहने पर वृक्षछेदन उत्तम
होता है।
नोटः- यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि उक्त
दिन चन्द्रमा का नक्षत्र, वृक्षछेदन हेतु ग्राह्य नक्षत्र-सूची में होना
चाहिए।अन्यथा ग्राह्य नहीं होगा।
अब एक अति विशिष्ट योग को इंगित करते हैं-
कृष्णपक्षे चतुर्दश्यां
रेवतीरोहिणीयुते।
यदा तदा गुरौ लग्ने
गृहार्थं तु हरेद्रुमान्।
अर्थात् कृष्णपक्ष की चतुर्दशी को यदि
रेवती या रोहिणी नक्षत्र पर चन्द्रमा का संक्रमण हो, तो वृहस्पति जहाँ बैठे हों उस
लग्न का चयन करके वृक्षछेदन करना अति उत्तम होता है।
इसी
प्रसंग में तृणादि से गृहछादन का भी निर्देश कर रहे हैं।(भले ही आजकल ज्यादातर
कंकरीट-सरिया की ढ़लाई,पत्थर की पट्टिकाओं,या टीन और सीमेंट की चादरों का प्रयोग
करके मकान का छादन(छावनी) करते है,फिर भी ऐसे मकान भी काफी मात्रा में बन रहे
हैं,जिन्हें तृणादि से छावनी करनी पड़ती है।उनके लिए इस मुहूर्त का औचित्य और
महत्त्व जरुर है।)कहते हैं-
लग्ने शुक्रे गुरौ
केन्द्रेष्वगराशौ गृहोपरि।तृणादिभिः समाच्छाद्यो न चैवाग्निभयं भवेत्।। अर्थात् लग्न में
शुक्र,केन्द्र(१,४,७,१०)में गुरु,और स्थिर राशि का लग्न-
वृष,सिंह,वृश्चिक,कुम्भ हो तो तृणादि से
गृहछादन करने पर अग्नि-भय नहीं रहता।
अन्य प्रसंग में कहा गया है कि
धनिष्ठा,शतभिष,पूर्वभाद्र,उत्तरभाद्र,एवं रेवती इन पांच नक्षत्रों की पंचक
संज्ञा है।इसमें काष्ठसंचय और गृहछादन वर्जित है।
(नोट- पंचक में सिर्फ पांच कर्म ही वर्जित
हैं- काष्टसंचय,गृहछादन,खटिया बुनना,शवदाह,और दक्षिण दिशा की यात्रा।कुछ विद्वान
अन्यान्य शुभ कार्यों की भी वर्जना करते हैं।)
वृक्षछेदन मुहूर्त-चर्चा के बाद अब छेदन और
रक्षण का विचार किया जा रहा है-
रात्रौ कृतबलिंपूजं
प्रदक्षिणं छेदयेद्दिवा वृक्षम्।
धन्यमुदक्प्राग्वदनं न
ग्राह्योऽन्यथा पतितः।।(वृहत्संहिता५२/११९)
अर्थात् रात्रि में वृक्ष के समीप
बलि(दधिमाष)विधान करके,अगले प्रातः पुनः प्रार्थना पूर्वक दक्षिणावर्त रीति से
वृक्ष को काटे।पूर्व-उत्तर में गिरे तो उत्तम अन्यथा अग्राह्य होता है।
अब अन्यत्र प्रसंग में (वृहत्संहिता५८/११९)वृक्ष
की प्रार्थना की विधि कहते हैं-
यानीह भूतानि वसन्ति
तानि बलिं गृहीत्वा विधिवत्प्रयुक्तम्।
अन्यत्र वासं
परिकल्पयन्तु क्षमन्तु ते चाऽद्य नमोऽस्तुतेभ्यः।।
वृक्षं प्रभाते सलिलेन
सिक्त्वा मध्वाज्यलिप्तेन कुठारकेण।
पूर्वोत्तरस्यां दिशि
सन्ति कृत्य प्रदक्षिणं शेषमतो विहन्यात्।।
अर्थात् "हे भूतगण(प्राणीगण) जो इस
वृक्ष पर निवास करते हों,उनको मैं प्रणाम करता हूँ।वे मेरे द्वारा विधिवत् दी गयी
बलि को ग्रहण करके अन्यत्र अपना निवास स्थान बनावें,और मेरी इस धृष्टता को क्षमा
करें।"- रात्रि में इस प्रार्थना और बलि के पश्चात् ,अगले प्रातः काल वृक्ष
को जल से सिंचित करके,कुल्हाड़ी में मधु और घी का लेपन करके,पूरब या उत्तर की ओर
से काटना प्रारम्भ करे, और दक्षिणावर्त ही कर्तन करे।
वृक्ष को कैसे काटे और काटने के बाद वृक्ष किस दिशा में गिरता है,इस पर
विश्वकर्मप्रकाश(१०३५) का मत है-
छेदयेद्वर्तुलाकारं
पतनञ्चोपकल्पयेत्।
प्राग्दिशि पतने
कुर्याद्धनधान्यसमर्चितम्।।
आग्नेयामग्निदाहः
स्याद्दक्षिणे मृत्युमादिशेत्।
नैऋत्यां कलहं
कुर्यात्पश्चिमे पशुवृद्धिदम्।
वायव्ये चौरभीतिः
स्यादुत्तरे च धनागमः।
ईशाने च महच्छ्रेष्ठं
नानाश्रेष्ठं तथैव च।।(वास्तुरत्नाकर ६/७०-७२)
अर्थात् वृक्ष को वर्तुलाकार(गोलाकार)
काटे। काटने पर पूर्व दिशा में गिरे तो धनधान्य की वृद्धि,अग्निकोण में गिरे तो
अग्निभय,दक्षिण में गिरे तो मृत्यु (अति अशुभ),नैऋत्य में गिरे तो कलह,पश्चिम में
गिरे तो पशुवृद्धि,वायव्य में गिरे तो चौरभय,उत्तर में गिरे तो धनप्राप्ति,और ईशान
में गिरे तो अनेक प्रकार के उत्तम फल प्राप्त होते हैं।
कटे
हुए वृक्ष की लकड़ियों को तत्काल उपयोग में नहीं लाना चाहिए,बल्कि कुछ
दिनों(दो-तीन सप्ताह)तक जल और कीचड़ के संयोग में गाड़ देना चाहिए।इससे लकड़ी में
कीड़े नहीं लगते;किन्तु ध्यान रहे महानिम्ब(बकाईन), सागवान,गम्भारी जैसे कोमल लकड़ियों
को सिर्फ जल में ही डुबोकर रखे,और
अपेक्षाकृत कम दिनों तक,अन्यथा काष्ठ की गुणवत्ता में कमी आजायेगी।इस सम्बन्ध में
विश्वकर्मप्रकाश-१०४०,और वास्तुरत्नाकर ६/७३ में कहा गया है-
काष्ठं नो भक्ष्यते कीटैर्यदि पक्षं धृतं जले ।यहीं पुनः ध्यान दिलाते हैं –कृष्णपक्षे
छेदनश्च न शुक्ले कारयेद्बुधः – शुक्लपक्ष में वृक्ष काटने का काम कदापि न
किया जाय।क्रमशः...
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