पुण्यार्कवास्तुमंजूषा-84

पुण्यार्कवास्तुमंजूषा-84

गतांश से आगे.....अध्याय सत्रह- गृहसमीप वृक्षादि विचार- भाग छः

उक्त सारिणी के अतिरिक्त कुछ और पौधे भी हैं,जिन पर विचार कर लेना आवश्यक प्रतीत होता है। वेर,कपित्थ(कैंथ),बहेड़ा,निर्गुण्डी(सम्भालू),विजौरा या चकोतरा नींबू ,खजूर,नीम आदि पौधे गृहवाटिका में न लगाये जायें।ये बाहरी बगीचे के पौधे है।गृहवाटिका में इनका रोपण सन्तान,धन,मान,यश,कीर्ति के नाशक,और रोग,पराजय,अपमान,शोक,मनस्ताप देने वाले हैं।कागजी नींबू इस त्याज्य सूची में नहीं है।इसे यथा स्थान वाटिका में लगा सकते हैं।किंचित मत से कपित्थ(कैत) को उत्तर दिशा में होना शुभ कहा गया है।
    वाटिका लगाने के सम्बन्ध में शास्त्र कहते हैं कि जो व्यक्ति मध्य पूर्व से मध्य पश्चिम पर्यन्त(ईशान-उत्तर-वायव्य क्रम से)वाटिका लगाते है,उसे नित्य गायत्रीमहायक्ष का पुण्यलाभ होता है।और इसके विपरीत- मध्यपूर्व से नैऋत्य पर्यन्त(आग्नेय-दक्षिण क्रम से)लगाने वाले धन,यश-कीर्ति आदि नष्ट करके  मृत्यु-पथ गामी होते हैं।
    पलाश चन्द्रमा की संविधा है।इसे वास्तुप्रदीप-२३ में शमी,अशोक,पुन्नाग (नागकेसर),बकुल(मौलश्री),अरिष्ठ(रीठा)और शाल की पंक्ति में रखा गया है।यथा-
अशोकपुन्नागशमीपलाशाः शस्तास्त्वरिष्ठो बकुलाश्च शालाः।।(वास्तुरत्नाकर ६-३६उत्तरार्द्ध) 
अब आगे कुछ शास्त्रीय उद्धरण प्रस्तुत कर रहे है,जिनके आधार पर ऊपर के सभी नियम कहे गये।यथाः-
बदरी कदली चैव दाडिमी बीजपूरिका।
प्ररोहन्ति गृहे यत्र तद्गृहं न प्ररोहति।। (समरांगणसूत्रधार ३८-१३१)
अश्वत्थं च कदम्बं च कदलीबीजपूरकम्।
गृहे यस्य प्ररोहन्ति स गृही न प्ररोहति।। (वृहद्दैवज्ञरंजन ८७-९)
वर्जयेत्पूर्वतोऽश्वत्थं प्लक्ष दक्षिणतस्तथा।
न्यग्रोधं पश्चिमे भागे उत्तरे वाप्युदुम्बरम्।।
अश्वत्थे तु भयं ब्रूयात् प्लक्षे ब्रूयात्पराभवम्।
न्यग्रोधो राजतः पीड़ा नेत्रामयमुदुम्बुरे।।
वटः पुरस्ताद्धन्यः स्याद् दक्षिणे चाप्युदुम्बरः।
अश्वत्थः पश्चिमे धन्यः प्लक्षस्तूत्तरतः शुभः।। (वृहत्संहिता ५२/६२-६४)
आसन्नाः कण्टकिनो रिपुभयदाः क्षीरिणोऽर्थनाशाय।
फलिनः प्रजाक्षयकरा दारुण्यपि वर्जयेदेषाम्।।
छिन्द्याद्यदि न तरुंस्तान्तदन्तरे पूजितान्वपेदन्यान्।
पुन्नागाशोकारिष्टवकुलपनसान् शमीशालौ।। (वृहत्संहिता ५२/८४-८५)
वास्तुरत्नाकर ६/३७ से ४० तक कुछ शुभाशुभ वृक्षों की सूची दी गयी है।यथा-
क्षीरवृक्षा वटाश्वत्थरक्तपुष्पद्रुमास्तथा।
सकण्टका शाल्मली च प्लक्षोदुम्बरसंज्ञितौ।।
अग्निकोणे सदा दुष्टा मृत्युपीड़ाप्रदायकाः।
पुन्नागफलिनी निम्बदाडिमाशोकजातिकाः।।
नागकेसरसंपुष्पजपाकुसुमकेशराः।
जयन्ती चन्दनं प्रोक्तं वचा चैवाऽपराजिता।।
मधुबिल्वाम्रभृङ्गाश्च नागरं ककुपादिकाः।
यत्र तत्र स्थिताश्चैते नारिकेलादयः शुभाः।।
अर्थात् दूधवाले पेड़-वट,पीपल,गूलर,पाकड़,महुआ आदि,कांटे दार वृक्ष- वेर,बबूल, शमी,शाल्मली(सेमर) आदि गृह के समीप अग्नि कोण में रहें तो सदा-सर्वदा दुष्ट फलदायी होते हैं।ये वहाँ रह कर धन,मान,कीर्ति,सन्तति आदि का नाश कराते हैं।पुनः शुभत्व की चर्चा करते हैं- पुन्नाग(नागकेसर),फलिनी,दाडिम(अनार), अशोक,जाती(चमेली),जपा(ओड़हुल),केशर,जयन्ती,चन्दन,वच,अपराजिता (विष्णुकान्ता,शिवकान्ता,ब्रह्मकान्ता- यानी नील,श्वेत,और पीत तीनों अपराजिता), बेल,आम,भृङ्ग(दालचीनी),नागर,नारियल आदि वृक्ष जहाँ कहीं भी हों शुभद ही होते हैं।

क्रमशः....

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