गतांश से आगे...अध्याय अठारह भाग 2
(क) पर्णकुटी- घासपत्तों से निर्मित कुटिया गिरि-गुहाओं
और कन्दरा-कोटरों के बाद का विकसित रुप है।इस प्रसंग में श्रीराम के वचन-"कर्त्तव्यं
वास्तु शमनं सौमित्रे चिरञ्जीविभिः" अथवा वृद्धगर्ग वचन-"अपि शाला
तृणमयी कार्या शुभप्रदा" से स्पष्ट होता है कि पर्णकुटी-निर्माणार्थ भी
वास्तु-नियम पालनीय है। वाल्मीकि रामायणम् किष्किंधाकांड २७-१२ की चर्चा पूर्व
अध्याय में की जा चुकी है,जहाँ श्रीराम अपने अनुज लक्ष्मण को गुफा-चयन हेतु संकेत
देते हैं- ईशानकोण की ओर नीचा और तद्विपरीत नैऋत्यकोण की ओर ऊँचा होने पर श्रेष्ट
कहते हैं।आगे समुचित काल में प्रवेश की भी बात करते हैं। किंचित वास्तुशास्त्री
इसमें मासादि दोष विचार नहीं करने की छूट देते हैं,कुछ के मत से विचार आवश्यक भी
है।सामान्य पञ्चाग-शुद्धि तो अत्यावश्क है।भले ही एक छोटी सी कुटिया क्यों न हो,किन्तु
ऊँचाई,लम्बाई,चौड़ाई,द्वारादि का विचार तो वास्तुसम्मत होना ही चाहिए।किन
तृण-पत्तियों का प्रयोग करें यह भी विचारणीय है।इस सम्बन्ध में पूर्व अध्यायों में
निर्दिष्ट काष्ठदि विचार से निर्णय लेना चाहिये।वैसे सामान्य तौर पर सुलभ प्राप्य
तृणादि का उपयोग किया जाता है।जैसे- नदी तट पर उपलब्ध कुश-काशादि से दीवारें
बनाकर,उन्हीं से छप्पर-निर्माण भी कर लिया जाता है।कहीं पर वांस आदि के सहयोग से
उसे और सुदृढ़ता प्रदान की जाती है।उपलब्धि और चलन के अनुसार धान के सूखे पौधे, या
ईख की अंगेरी(पत्तियाँ) से दीवारें और छप्पर बना लिये जाते हैं।सामान्य रुप से रख
रखाव करते रहने पर ये कुटियायें बहुवर्षायु होती हैं,अतः तदनुसार निर्माण से
प्रवेश तक के सामान्य वास्तु-नियम पालनीय होंगे।
क्रमशः....
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