गतांश से आगे...अध्याय अठारह भाग तीन
(ख) काष्ठभवन- पर्णकुटी में स्थायित्वदोष(अल्पकालिक)होने
के कारण उससे उन्नत प्रकार के आवास की बात आती है,जो सुलभप्राप्य लकड़ियों के
प्रयोग से निर्मित होते हैं।शीतातप-रक्षण के साथ-साथ भूकम्पादि-रक्षक भी होते हैं-
ये आवास,किन्तु अग्नि-भय की आशंका- इसका सबसे बड़ा दोष है।सामान्य तौर पर लकड़ी के
मकान बनाने के लिए विशेष वास्तु नियमों(मुहूर्त)का विचार नहीं करना है,किन्तु
पंचांग-शुद्धि तो विचारणीय है ही।साथ ही, किस लकड़ी का कैसे और कब प्रयोग करें –
यह भी देखना है।वास्तुसम्मत काष्ठ-विचार के प्रसंग में पूर्व अध्यायों में कहे गये
नियमों का पालन होना चाहिए।वास्तुशास्त्रियों ने वास्तुकार्यार्थ
वृक्ष-चयन-छेदन-ग्रहण आदि पर विशद रुप से प्रकाश डाला है।यथा सम्भव उन नियमों का
पालन अवश्य करना चाहिए।भवन निर्माण से पूर्व एवं निर्मित भवन में वास से पूर्व
यानी दोनों समय सम्यक् रुप से वास्तुदेव की पूजा-अर्चना-होमादि सम्पन्न करना
चाहिए।
(ग)
मृदाभवन- प्रशस्तता और स्थायित्व के उत्तरोत्तर क्रम में मिट्टी के भवन का
प्रचलन हुआ।इनमें आंशिक रुप से लकड़ियों का भी प्रयोग किया जाता है।सुख-सुविधा,स्वास्थ्य
और आराम की दृष्टि से ये आवास बड़े ही अच्छे होते हैं।मोटी-मोटी मिट्टी की दीवारों
और लकड़ी तथा मिट्टी से पटे छतों वाले मकान में रहने का अद्भुत आनन्द है,जो आज के
एसी-कूलर वालों को कतई नसीब नहीं हो सकता।भूमि-चयन से लेकर भवन-निर्माण और प्रवेश
तक वास्तु के हर सम्भव पालनीय नियमों को अंगीकार किया जाना चाहिए इन आवासों
में,तभी सुखद हो सकेगा।पूर्व के दो प्रकारों(पर्ण और काष्ठगृह)में दी गयी छूट भी
यहाँ मान्य नहीं है,यानी सभी नियम यथासम्भव पालनीय हैं।
क्रमशः....
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