गतांश से आगे....अध्याय अठारह-भाग चार
(घ) पक्के भवन- ईंट,पत्थर,कंकरीट आदि से बने पक्के भवन का
आजकल अत्यधिक चलन है।भले ही इनका निर्माण-व्यय अधिक है,किन्तु अन्य निर्माण की
तुलना में टिकाऊपन भी अधिक है।इस तरह के भवनों के निर्माण में वास्तु के हरसम्भव
नियम पालनीय हैं।आकार भेद से इसके भी कई प्रकार हैं।यथा-
(A) महल-वास्तुग्रन्थों में महलों के अनेक प्रकार
का विशद वर्णन मिलता है। आचार्य
वाराहमिहिर ने सोलह प्रकार कहे हैं,जो प्रायः तीन से पांच मंजिले हुआ करते
हैं।राजा-महाराजा(आधुनिक समय में-राष्टाध्यक्ष,प्रधानमंत्री,राज्यपाल), मंत्री, सेनापति, विभिन्न राज कर्मचारी,राजवैद्य,राजपुरोहित
के साथ-साथ कंचुकी और वेश्याओं तक के महल का वर्णन वास्तुशास्त्रों में मिलता
है।यहाँ कुछ विशेष महल-आकारों को ईंगित किया जा रहा है।यथा-
१.राजगृहों का परिमाणः-
अष्टोत्तरं हस्तशतं पृथुत्वे राजालयं
चोत्तममेव तस्माद्।
अष्टाभिरष्टाभिरतो विहीनाः पञ्चैव
भागाधिकतोऽपि दैर्घ्ये।।(वास्तुराजवल्लभ९-३०)
हाथ लम्बाई
|
१३५
|
१२५
|
११५
|
१०५
|
९५
|
हाथ चौड़ाई
|
१०८
|
१००
|
९२
|
८४
|
७६
|
इसका अर्थ इस चक्र से स्पष्ट है-
२.राजकुमारों के गृहों का परिमाणः-
अशोतितो रामकरैश्च हीनाः पञ्चालयो
भूपसुतप्रियाणाम्।
त्रिभागदैर्घ्ये सकला विधेया गृहाः
क्रमेणैव यथोदिताश्च।।(वास्तुराजवल्लभ ९-३१)
चौड़ाई हाथ
|
८०
|
७४
|
६८
|
६२
|
५६
|
लम्बाई हाथ+
|
१०६
|
९९
|
९०
|
८२
|
७४
|
लम्बाई अंगुल+
|
१६
|
१६
|
१६
|
१६
|
१६
|
इसका अर्थ इस चक्र से स्पष्ट है-
३.सेनापतिगृह का परिमाणः-
प्रोक्तं चतुःषष्टि करं पृथुत्वे क्रमेण षड्भिश्च करैर्विहीनम्।
प्रोक्तं चतुःषष्टि करं पृथुत्वे क्रमेण षड्भिश्च करैर्विहीनम्।
षड्भागतो दैर्घ्यमतोऽधिकं
स्याद्बलाधिपस्यैव च पञ्चवृद्ध्यै।।(उक्त ९-३२)
चौड़ाई हाथ
|
६४
|
५८
|
५२
|
४६
|
४०
|
लम्बाई हाथ+
|
७४
|
६७
|
६०
|
५३
|
४६
|
लम्बाई अंगुल+
|
१६
|
१६
|
१६
|
१६
|
१६
|
इसका अर्थ इस चक्र से स्पष्ट है-
४.मंत्रियों
के गृह का परिमाणः-
षष्ट्या
हस्तैर्मंत्रिगेहं पृथुत्वे हीनंहीनं पञ्चकं वेदवेदैः।
कुर्याद्धस्तैरष्टमांशोधिकोऽसौ
व्यासादग्रे वर्धितो दैर्घ्य एव।।( उक्त ९-३३)
इसका
अर्थ इस चक्र से स्पष्ट है-
चौड़ाई हाथ
|
६०
|
५६
|
५२
|
४८
|
४४
|
लम्बाई हाथ +
|
६७
|
६३
|
५८
|
५४
|
४९
|
लम्बाई अंगुल+
|
१२
|
०
|
१२
|
०
|
१२
|
५.माण्डलिक राजाओं के गृह का परिमाणः-
सामन्तादिकभूपतेश्च सदनं
विन्द्व्यब्धिहस्तैः समं,
हस्तैर्वेदविहीनकैः क्रमतया भागाधिकं
दैर्घ्यतः।
(वास्तुराजवल्लभ
९-३४पूर्वार्द्ध)
चौड़ाई हाथ
|
४०
|
३६
|
३२
|
२८
|
२४
|
लम्बाई हाथ +
|
४६
|
४२
|
३६
|
३२
|
२८
|
लम्बाई अंगुल+
|
१६
|
०
|
८
|
६
|
०
|
इसका अर्थ इस चक्र से स्पष्ट है-
६.दैवज्ञ,गुरु,पुरोहित,सभासद,वैद्यादि के
गृह का परिमाणः-
दैवज्ञस्य सभासदस्य च गुरोः पौरोधसं
भैषजं,
विंशत्यष्टकरं द्विहस्तरहितं दैर्घ्ये
द्विधा तद्भवेत्।।
(वास्तुराजवल्लभ ९-३४उत्तरार्द्ध)
हाथ
चौड़ाई
|
२८
|
२६
|
२४
|
२२
|
२०
|
||
लम्बाई
|
हाथ
|
प्रथमप्रकार
|
३१
|
३०
|
२८
|
२५
|
२३
|
लम्बाई
|
अंगुल
|
प्रथमप्रकार
|
१६
|
८
|
०
|
१६
|
८
|
लम्बाई
|
हाथ
|
द्वितीयप्रकार
|
३१
|
२९
|
२७
|
२४
|
२२
|
लम्बाई
|
अंगुल
|
द्वितीयप्रकार
|
१२
|
६
|
०
|
१८
|
१२
|
इसका अर्थ इस चक्र से स्पष्ट है।इसमें
अन्य चक्रों की अपेक्षा एक विशेष बात यह है कि एक ही चक्र में दो श्रेणी के परिमाण
दिये गये हैं,जो क्रमशः हाथ और अंगुल में हैं।जैसे प्रथम प्रकार में २८ हाथ
चौड़ाई वाले भवन के लिए लम्बाई का परिमाण ३१ हाथ और १६ अंगुल होगा,तथा द्वितीय
प्रकार में चौड़ाई वही रहेगी, लम्बाई(हाथ में) भी वही है, किन्तु अंगुल में सोलह
के वजाय बारह ही है।
७.कञ्चुकी,द्यूतकारादि का गृह-परिमाणः-
वेश्याकञ्चुकिशिल्पिनामपि गृहे वेदाधिका
विंशतिः,
मानं हस्तचतुष्टयैर्विरहितं दैर्घ्ये
द्विधा व्यासतः।
हर्म्ये द्यूतकरान्त्यजस्य रवितो हस्तैः समं
विस्तरे,
हीनं त्वर्धकरेण पञ्चकमिदं
तुर्यांशदैर्घ्याधिकम्।।( वास्तुराजवल्लभ ९-३५)
इसका अर्थ नीचे के दो चक्रों से स्पष्ट है।प्रथम
चक्र में श्लोक के पूर्वार्द्ध के अनुसार कंचुकी आदि का गृह-परिमाण,तथा द्वितीय
चक्र में श्लोक के उत्तरार्द्ध के अनुसार द्यूतकारादि के गृह का परिमाण बतलाया गया
है।ध्यातव्य है कि आधुनिक काल में कसीनो(जूआखाना) आदि के लिए भी भवन-निर्माण का
वास्तुशास्त्र सम्मत निर्देश है- इसे न भूलें।
हाथ चौड़ाई
|
२४
|
२०
|
१६
|
१२
|
८
|
||
लम्बाई
|
हाथ
|
प्रथमप्रकार
|
२८
|
२३
|
१८
|
१४
|
९
|
लम्बाई
|
अंगुल
|
प्रथमप्रकार
|
०
|
८
|
१६
|
०
|
८
|
लम्बाई
|
हाथ
|
द्वितीयप्रकार
|
२७
|
२२
|
१८
|
१३
|
९
|
लम्बाई
|
अंगुल
|
द्वितीयप्रकार
|
०
|
१२
|
०
|
१२
|
०
|
प्रथम चक्रः-
हाथ चौड़ाई
|
१२
|
११
|
११
|
१०
|
१०
|
अंगुल चौड़ाई
|
०
|
१२
|
०
|
१२
|
०
|
हाथ लम्बाई
|
१५
|
१४
|
१३
|
१३
|
१२
|
अंगुल लम्बाई
|
०
|
९
|
१८
|
६
|
१२
|
द्वितीय चक्रः-
८.ब्रह्माणादि चारो वर्णों के गृह का
परिमाणः-
द्वात्रिंशता मानमिदं द्विजादेर्हीनं
चतुर्भिः क्रमतो विधेयम्।
दिगष्टरागाब्धिविभागतश्च क्रमेण
तद्वर्णचतुष्टयोऽपि।।(वास्तुराजवल्लभ ९-३६)
इसका अर्थ अगले चक्र में स्पष्ट है।चारो
वर्णों के लिए अलग-अलग वास्तुमंडल का परिमाण निर्धारित किया गया है।यथा-
वर्ण
|
ब्राह्मण
|
क्षत्रिय
|
वैश्य
|
शूद्र
|
हाथ
चौड़ाई
|
३२
|
२८
|
२४
|
२०
|
हाथ
लम्बाई
|
३५
|
३१
|
२८
|
२५
|
अंगुल
लम्बाई
|
४/५
|
१२
|
०
|
०
|
ध्यातव्य है कि इन सभी भवन-प्रकारों में ब्रह्मक्षेत्र(मध्य का आंगन)पर
विशेष जोर दिया गया है।इस सम्बन्ध में पूर्व अध्यायों में काफीकुछ कहा जा चुका है।
विभिन्न
प्रकार के महलों के परिमाण-निर्देश के बाद प्रसंगवश इनके औचित्य पर जोर देते हुए
वास्तुशास्त्री कहते हैं कि हर सम्भव उक्त परिमाण निर्देशों का पालन करना
चाहिए।इससे न्यूनाधिक नहीं होना चाहिए,अन्यथा भवन की आयु क्षीण होती है,तथा
वासियों को नानाविध संकट झेलने पड़ सकते हैं।यथा-
कर्णाधिकं विस्तरतोऽधिकं च शीघ्रं विनाशं
समुपैति गेहम्।
( वास्तुराजवल्लभ ९-३७ का
पूर्वार्द्ध)
भवन के आकार का निर्धारण करने के साथ भवन
से संलग्न राजादि के लिए उपयुक्त रथशाला,अश्वशाला,गजशालादि का माननिर्धारण भी किया
गया है। आधुनिक समय में वाईक,कार,आदि का चलन है।तदनुसार उपयुक्त स्थान का चुनाव
वास्तु मंडल में होना चाहिए।इसके लिए पूर्व अध्यायों में निर्दिष्ट तत्वनिरुपणादि
का ध्यान रखते हुए कार्य करना चाहिए।
क्रमशः.....
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