पुण्यार्कवास्तुमंजूषा-91

गतांश से आगे...अध्याय अठारह भाग छः

(D)बहुंजिले आवासीय फ्लैट्स- जनसंख्या का बढ़ता वोझ,महानगरीय सभ्यता का विकाश,औद्योगीकरण,योग्य वास्तुभूमि का अभाव आदि कई कारणों से एकल वास्तु-व्यवस्था के वजाय गगनचुम्बी ईमारतों (कबूतरखानों) में रहने का चलन सा होता जा रहा है।वैसे इसे युगबोध भी कहा जा है।
आवासीय समस्या के समाधान हेतु एक सुव्यवस्थित योजना है- बहुमंजिले फ्लैट्स,जो एक,दो,तीन,चार,या पांच कमरों का प्रायः हुआ करता है-रसोई,स्नानागार,शौचालय, शयनकक्ष,बैठक आदि के साथ पूरी व्यवस्था होती है अन्य सुखसुविधा युक्त। MIG,LIG,Janta Flats आदि सरकारी योजनाओं के तहत बने आवासों के अतिरिक्त, प्राइवेट विल्डर भी बहुमंजिले आवासीय व्यवस्था का निर्माण कर ऊँचे(मुंहमांगे)दाम पर बेचा करते हैं,और इनका खरीदना- आमलोगो की मजबूरी है,क्यों कि स्वतन्त्र रुप से भूखण्ड खरीद कर बड़े शहरों में निर्माण,प्रायः आमजन के लिए असम्भव सा है।इन आवासों में वास्तुनियमों का किंचित मात्र भी ध्यान नहीं रखा जाता। नियमों का पालन व्यवहारिक रुप से असम्भव नहीं तो, कठिन अवश्य है।दोस्ती दीवारें(joint walls) से विभाजित फ्लैटों की आन्तरिक एकरूपता का पालन असम्भव है।वास्तु सम्मत पंच तत्वों को संतुलित-व्यवस्थित करना काफी दुरूह है।एक का अग्नि, दूसरे का ईशान होगा,तो एक का नैऋत्य दूसरे का अग्नि हो जायेगा,किसी का वायु किसी का नैऋत्य हो जायेगा- तात्पर्य यह कि दो सटे फ्लैटों के दो विरोधी तत्व आपस में सदा टकराते रहेंगे- पूर्ण शत्रु नहीं,तो सामान्य विपरीत धर्मी तो अवश्य।इनके बीच की विभाजक रेखा(दीवार)भी बिलकुल पतली(पांच ईंच मात्र) प्रायः हुआ करती है।जिसके कारण टकराव का प्रभाव काफी गहरा होता है।
  इसे नीचे के चित्रों से स्पष्ट करने का प्रयास किया जा रहा है।चित्रांक (क) में हम देखते हैं कि एक बड़े से भूखण्ड पर समानाकार आठ फ्लैट बनाये जा रहे हैं। वास्तुशिल्पी ने पूरे वास्तुमंडल के केन्द्रीय भाग की मर्यादा का ध्यान रखते हुए उसका सम्यक् पालन करने का प्रयास किया,यानी उसे सर्वथा रिक्त छोड़ दिया; किन्तु आठ फ्लैटों के निजी तत्वों को कैसे संतुलित कर पायेगा- सवाल जटिल है।चित्र में यह भी स्पष्ट है कि केन्द्रीय भाग के चारो कोनों पर क्रमशः अलग-अलग फ्लैटों के तीन-तीन तत्व टकरा रहे हैं,और इस प्रकार वहाँ पर आकाश सहित चार तत्व हो जा रहे हैं- प्रत्येक टक्कर-क्षेत्र में एक-एक तत्व गायब है।तत्वमीमांशा के अनुसार आकाश को गौंण या निष्क्रिय मान लें,फिर भी शेष तीन का क्या करेंगे? प्रश्न अनुत्तरित सा रह जाता है।
   इन जटिल प्रश्नों का सीधा उत्तर प्राचीन वास्तुशास्त्रों में ढूढ़ने पर भी मिलने को नहीं है, क्यों कि उस युग की यह मौलिक व्यवस्था ही नहीं थी;किन्तु जैसा कि हम पहले भी कहते आये हैं,पुनः कहना चाहेंगे कि वास्तुशास्त्र के मौलिक तथ्यों पर ध्यान दें तो रास्ता बहुत हद तक साफ हो जायेगा।इसे समझने से पूर्व चित्रांक(ख) का अवलोकन करें, जो चित्रांक(क) से किंचित भिन्न तथ्यों को दर्शा रहा है। 
  यहाँ दोनों चित्रों में हम देख रहे हैं कि बड़े से भूखण्ड को नौ भागों में विभक्त किया गया है।बीच के(केन्द्रीय ब्रह्म)भाग को रिक्त छोड़ देने से प्रस्तावित वास्तु-मंडल को आकाश का पर्याप्त बल मिल रहा है।इसके साथ ही निर्माता का प्रयास हो कि पूरे भूखण्ड को एक मंडल मान कर चारों कोनों पर क्रमशः चारो तत्वों को संतुलित कर लिया जाय,जैसा कि सामान्य वास्तु मंडल में करने हेतु पूर्व अध्यायों में कहा जा चुका है।इस प्रकार की व्यवस्था देना विलकुल आसान और व्यावहारिक भी होगा।आकाश सहित पांचों तत्व संतुलित होकर पूरे वास्तुमंडल को समुचित बल प्रदान करेंगे,जिसका सीधा प्रभाव पूरे मंडल पर पड़ेगा- ठीक वैसे ही जैसे कि भवन का सारा काम भूस्वामी के हिसाब से करते हैं,जबकि उसमें रहने वाले कई सदस्य होते हैं।आगे के चित्र में हम देख रहे हैं कि अग्नितत्व की शुद्धि फ्लैट संख्या दो को, पृथ्वी तत्व की शुद्धि फ्लैट संख्या चार को,वायु तत्व की शुद्धि फ्लैट संख्या छः को,एवं ईशान तत्व की शुद्धि फ्लैट संख्या आठ को सहज रुप से मिल जा रहा है।शेष चार फ्लैटों को क्रमशः पूर्वादि चारो दिशाओं का पूर्ण बल मिल रहा है।


नोटःःयहाँ सुविधा के लिए हम चित्रांक(ख)को पहले दिखा रहे हैंः-
चित्रांक(क)
 
  


 क्रमशः....




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