पुण्यार्कवास्तुमंजूषा-93

गतांश से आगे....अध्याय अठारह भाग आठ
ताम्रवेष्ठन की विधिः-आवश्यकतानुसार तार खरीद कर किसी रवि या मंगलवार को ले आवें।समान्य पंचांग शुद्धि विचार करके,लकड़ी की चौकी या पीढें पर नवीन लाल वस्त्र विछा कर,जलादि से शुद्ध करके तार को स्थापित कर दें। सामान्य रुप से पंचोपचार पूजन करें,और ऊँ श्री वास्तोष्पतये नमः मन्त्र का कम से कम एक हजार जप सम्पन्न करें।आगे ग्यारह दिनों तक इसी विधान से क्रिया करते रहें।(विशेष परिस्थितियों में इसी विधान का ताम्रवेष्ठन "कलौसंख्या चतुर्गुणा" न्याय से चौआलिस हजार जप करके,करना चाहिए।अन्तिम दिन,यानी ग्यारह/चौवालिश हजार जप पूरा हो जाने पर तत्दशांश पंचशाकल्यहोम (कालातिल,अरवाचावल,जौ,गूड़ और घी-क्रमशः आधा-आधा)करें।अब इस प्रकार विधिवत तैयार किये गये तार को चित्रांक दो की लालरेखा की तरह, प्रत्येक फ्लैट का बन्धन कर दें।ध्यातव्य है कि यह बन्धन कार्य भूतल से लेकर ऊपरी सभी मंजिलों पर समान रुप से करना है।चित्र में एक और बात गौर करने की है,कि मध्यक्षेत्र के चारो ओर लाल रेखायें नहीं दर्शायी गयी हैं,यानी इस क्षेत्र को अलग से बन्धन करने की आवश्यकता नहीं है,सिर्फ आठ फ्लैटों का ही बन्धन
करना है।इस क्रिया को विधिवत सम्पन्न कर देने से दिशाओं,कोणों,और तत्वों का आपसी टकराव-दोष सर्वथा मुक्त हो जायेगा।किन्तु इसका यह अर्थ भी नहीं कि अब किसी भी फ्लैट में कहीं भी कुछ भी निर्माण करने के लिए हम स्वतन्त्र हो गये।वास्तु के अन्यान्य नियम तो पूर्ववत पालनीय होंगे ही।इस क्रिया ने सिर्फ कोणादि टकराव दोष का निवारण किया है- सभी फ्लैटों को स्वतन्त्र वास्तु बल प्रदान करके।वास्तुमंडल को और अधिक बल प्रदान करना चाहें तो इसी विधि से पूरे चयनित भूखण्ड को किंचित पतले(अठारह या सोलह नंबर) तार से चारो ओर से वेष्ठित कर सकते हैं।आगे वास्तुदोष-निवारण के विभिन्न प्रसंगों में इसके औचित्य और प्रयोग पर पुनः चर्चा की जायेगी।यहाँ वहुमंजिले इमारतों की वास्तु व्यवस्था पर कुछ और महत्त्वपूर्ण बातों को हृदयंगम कर लिया जाएः-
Ø ब्रह्मस्थान का खुलापन सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है।इससे आकाश तत्त्व को बल मिलता है।
Ø ईशान,अग्नि,वायु और नैऋत्य कोणों को सुव्यवस्थित करना आवश्यक है, ताकि शेष चारो तत्त्व(वायु,अग्नि,जल और पृथ्वी)बलवान रहें।
Ø स्तम्भ(पीलर)और सभी दीवारें सीधे ९०अंश के कोण में हों,न्यूनाधिक नहीं।
Ø सेफ्टीटैंक चूँकि बहुत ही दुष्प्रभावी क्षेत्र होता है।किसी वास्तुमंडल को बनाने-बिगाड़ने में इसका बड़ा योगदान होता है,अतः हर हाल में इसे मुख्य निर्माणक्षेत्र(वास्तुमंडल)से बाहर,यानी अपार्टमेन्ट के परिसर में ही यथा स्थान बनाया जाय।(द्रष्टव्य-अध्याय १३क)।
Ø जल-स्रोत(बोरिंग)ईशान-क्षेत्र में परिसर में ही हो,ताकि पूरे भवन को बल मिले।
Ø अग्नि कोण में भवन की विद्युत-व्यवस्था हेतु ट्रन्सफर्मर लगाये जायें।
Ø भूकम्परोधी विधि से निर्माण किया जाय।
Ø गुरुत्वबल,सौर ऊर्जा,चुम्बकीय प्रभाव आदि का सम्यक् ध्यान रखा जाए।
Ø भूखण्ड का प्लवत्व(ढलान)दक्षिण-नैऋत्य आदि अशुभ दिशा में न हो।
Ø भूखण्ड का आकार शुभ(वर्गाकार,आयताकार) हो।
Ø अन्यान्य नियमों के लिए भूखण्ड-चयन अध्याय ग्यारह-क,ख,ग का अवलोकन कर,यथासम्भव सभी नियमों का पालन करें।
Ø सभी वास्तु नियम अपार्टमेन्ट पर भी लागू होते हैं,और उनका पालन भी बहुत कठिन नहीं है- इस बात का आधुनिक विल्डरों को ध्यान रखना चाहिए,और क्रेताओं का भी कर्तव्य है कि उनसे वास्तुसम्मत फ्लैट की मांग करें,क्यों कि अन्ततः रहने का सुख-दुःख उन्हें ही मिलना है।
Ø भूमिपूजन-कर्म तो वास्तुकार(विल्डर)को करना है,गृहप्रवेश का सम्यक् विधान फ्लैट के स्वामी को अवश्य करना चाहिए।अस्तु।

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क्रमशः.....


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