पुण्यार्कवास्तुमंजूषा-98

गतांश से आगे...
अध्याय अठारह-भाग तेरह

4.चिकित्सालय(अस्पताल,नर्सिंगहोम),दवा-दुकानः-चिकित्सा से सम्बन्धित भवनों के लिए सुन्दर,साफ-सुथरा,प्राकृतिक वातावरण वाला परिवेश होना चाहिए। सामान्य चिकित्सा(प्राथमिक या माध्यमिक स्तर)के लिए शहर के भीड़भाड़ वाले इलाके भी ठीक हैं,जहाँ यथाशीघ्र चिकित्सा सुलभ हो,किन्तु बड़े स्तर के अस्पताल शहर की आवादी से थोड़ा हट कर ही होना चाहिए,क्यों कि वहाँ विभिन्न तरह के संक्रमण का अंदेशा रहता है।वाह्य प्रदूषण से मुक्त होने के साथ साथ,अस्पताल के निज प्रदूषण का भी ध्यान रखना जरुरी है,क्यों कि आन्तरिक प्रदूषण भी कुछ कम नहीं होता।बड़े अस्पतालों के लिए विस्तृत भूखण्ड की आवश्यकता होती है,जहाँ एक ही परिसर में चिकित्सा के अनेक विभाग, विभागिये कर्मचारियों और चिकित्सकों आदि के आवासन,रोगियों के रहने की समुचित व्यवस्था,अभिभावकों के लिए सुविधा,दवाई की उपलब्धि,विजली-पानी की सम्यक् व्यवस्था आदि बहुत सी बातों का ध्यान रखना होता है।बड़े अस्पतालों में सिर्फ समीप के ही नहीं,बल्कि दूर-दराज(देश के कोने-कोने) से लोग स्वास्थ्य कामना से आते हैं।आसपास में सामान्य बाजार की उपलब्धि भी आवश्यक है,यानी विलकुल वीरान में अस्पताल बनाना भी उचित नहीं कहा जा सकता।चिकित्सालय से सम्बन्धित यहाँ कुछ विशेष वास्तुसम्मत बातों की चर्चा कर रहे हैं-
*   चिकित्सालय जीवन-मृत्यु-संघर्ष-स्थल है।अतः व्यक्तिगत आवास से भी कहीं अधिक आवश्यक है कि इसका निर्माण वास्तुसम्मत हो। जहाँ तक सम्भव हो इसका सम्यक् पालन हो।
*   सर्वथा प्रदूषण रहित सुरम्य वातावरण का चुनाव करें।
*   भूखण्ड से पश्चिम-दक्षिण में ऊँचे पहाड़-पहाड़ियों का सिलसिला हो तो अति उत्तम।
*   उत्तर-पूर्व में प्राकृतिक जलस्रोत(नदी,झरना)या कृत्रिम जलस्रोत(तालाब, वावली,कुण्ड,वापी आदि)हों तो अच्छी बात है।
*   खुला मैदान,हरी-भरी झाड़ियाँ(विशाल दरख्त नहीं)उत्तर-पूर्व में होना अच्छी बात है।
*   परिसर चतुरस्र(वर्गाकार या आयताकार)होना चाहिए।अन्य दोषपूर्ण आकार हों तो मध्य में विभाजक दीवारों से सुधार लिया जाय।
*   दूषित,निषिद्ध और त्याज्य भूमि पर चिकित्सालय का निर्माण कदापि न करें।(द्रष्टव्य- भूमि-चयन अध्याय)
*   भवन आवश्यकतानुसार वहुमंजिले बनाये जा सकते हैं,किन्तु निर्माण में वास्तु के ऊँचाई-नियम की अवहेलना न की जाय- यानी दक्षिण-पश्चिम को उत्तर-पूर्व की अपेक्षा नीचा कदापि न रखा जाय।
*   अस्पताल में कई प्रकार के छोटे-बड़े सह-भवनों की आवश्यकता पड़ती है। इन्हें बनाने में दिशा-नियमों का पालन किया जाना चाहिए।
*   परिसर में पांचो तत्वों के सम्यक् संतुलन का विशेष ध्यान रखा जाना चाहिए।यथा- बोरिंग ईशान कोण में ही किया जाय,विजली के ट्रान्सफर्मर अग्नि कोण में लगाये जायें,मध्य में खुला भाग अवश्य रखा जाय,इत्यादि।
*   सूर्य की रौशनी की पर्याप्त सुविधा हो।(द्रष्टव्य- शुभाशुभ ऊर्जा-प्रवाह)।स्वच्छ वायु का सम्यक् संचार हो(द्रष्टव्य- परिसर की साज-सज्जा)।
*   व्यावसायिक वास्तु खण्ड में निर्दिष्ट वास्तु नियमों का यथासम्भव पालन करते हुए कार्यालय,स्वागत-कक्ष,प्रशासनिक भवन,आदि को सुव्यवस्थित
करना उचित होगा।
*   अस्पतालों में नित्य भारी मात्रा में प्रदूषित पदार्थ निकलते रहते हैं।इन्हें यथाशीघ्र निष्पादित करना चाहिए।तात्कालिक संरक्षण के लिए अशुभ-ऊर्जा-प्रवाह-क्षेत्रों में स्थान नियत करना चाहिए,न कि सुविधानुसार कहीं भी रख छोड़ा जाय।(द्रष्टव्य- शुभाशुभ ऊर्जा-प्रवाह)।
*   छोटे अस्पतालों में रोगियों के लिए कक्ष(पेसेन्ट वार्ड) उत्तर दिशा में(ईशान और मध्य उत्तर के बीच)बनाये जांये तो उत्तम है।बड़े अस्पतालों में जहाँ सैकड़ों-हजारों रोगियों के आवासन की बात है,स्वतन्त्र रुप से रोगियों के लिए अलग बिल्डिंग बनाने की बात हो तो भी, परिसरीय दिशा के इसी नियम का पालन करना चाहिए- यानी परिसर के उत्तर में वार्ड बनायें।
*   प्रसूति कक्ष(Labour room)पूरब और ईशान के बीच में बनाना चाहिए।बड़े अस्पतालों में महिलाओं के लिए अलग व्यवस्था करनी हो तो इसी दिशा में परिसरीय ध्यान रख कर प्रसूतिभवन का निर्माण किया जाना उत्तम होगा।
*   स्त्रीरोग(Gynaecology )विभाग राहु के अधीन होने के कारण इसे नैऋत्य कोण में रखने का प्रावधान है,किन्तु वहाँ भी प्रसूति-कक्ष ईशान-पूर्व में ही रखना उचित होगा।
*   गर्भवती स्त्रियों की शैय्यायें स्त्रीरोगविभाग के दांयी ओर हों तो अच्छा है।
*   जांच के लिए लेटने पर स्त्री का सिर दक्षिण दिशा में हो तो अच्छा है। दूसरा विकल्प पूरब दिशा है।उत्तर और पश्चिम दोनों दिशायें वर्जित हैं। यह नियम अन्य रोगियों के लिए भी है।
*   सामान्य शल्यकक्ष(O.T.)पश्चिम से लेकर नैऋत्य होते हुए दक्षिण के मध्य भाग तक बनाया जा सकता है।वैसे मध्य पश्चिम सर्वोत्तम है।
*   हड्डीरोग(Orthopedic)विभाग सीधे शनि का क्षेत्र है,अतः इसे मध्य पश्चिम में होना चाहिए।
*   आँख,कान,गले(ENT)विभाग उत्तर दिशा में होना चाहिए।
*   सभी अंग्रेजी दवाइयाँ मुख्य रुप से रासायनिक पद्धति से बनी होती हैं। रसायन पर मंगल का अधिकार है।अतः इनके भंडारण का स्थान दक्षिण दिशा में होना चाहिए।
*   आयुर्वेदिक दवाइयाँ चन्द्रमा के अधिकार क्षेत्र में आती है,अतः इनका भंडारण वायुकोण में होना चाहिए।
*   घातक रसायन आग्नेय,ईशान,या वायव्य कोण पर रखे जा सकते हैं,किन्तु नैऋत्य में कदापि न रखें।वहाँ रखने से राहु-मंगल के संयोग से अंगारक योग बनकर,तोड़-फोड़ तथा आग्नेय दुर्घटनाओं की आशंका रहेगी।
*   पुराने(Expired)स्टॉक नैऋत्य में होना उचित है।
*   लेबोरेट्री में विशेषज्ञ(जांचकर्ता)को दक्षिणाभिमुख ही बैठना चाहिए।
*   भारी संयत्र,एक्सरे मशीनें आदि नैऋत्य क्षेत्र में रखे जायें।
*   डॉक्टरों को बैठने के लिए दक्षिण या पश्चिम दिशा भी अनुकूल ही है। पूर्वोत्तर की अनिवार्यता नहीं है।
*   किसी भी कार्य के लिए विहित ग्रह-क्षेत्र में कार्यव्यवस्था कठिन हो तो उनके मित्र-ग्रह-क्षेत्र में स्थान चयन किया जा सकता है।वशर्ते कि अति विपरीतधर्मी स्थिति न हो।जैसे रसायनिक दवाइयाँ मंगल की दिशा(दक्षिण) में न रख सकें तो उनके मित्र चन्द्रमा,सूर्य,वृहस्पति की दिशा में रख सकते हैं।शत्रु ग्रह की दिशा से सर्वथा बचना चाहिए।(द्रष्टव्य-ग्रह-राशि-मित्रामित्र प्रसंग)।
*   डॉक्टरों,या अन्य चिकित्सा सेवकों(नर्स,कम्पाउण्डर,ड्रेसर)आदि के लिए स्वच्छ-धवल वस्त्र की अनिवार्यता है।काले,गहरे नीले,धूम्रवर्णी,गहरे लाल वस्त्रों का धारण करना उचित नहीं।चन्द्रमा,वृहस्पति,बुध,सूर्य,शुक्र आदि के रंगों का चुनाव उचित है।(द्रष्टव्य- ग्रह-राशि-रंग योजना)।
*   अस्पताल के पर्दे हरे रंग(या हरे का सेंडिंग)के हों तो अच्छे हैं।
*   रोगियों की शैय्या प्रायः लोहे की ही वनी होती हैं।इन पर हल्का नीला रंग चढ़ाना उचित है।काले रंग कदापि न चढ़ायें।
*   शैय्या की चादरें,तकिया-गिलाफ आदि स्वेत,हरे,दूधिया आदि रंगों के होने चाहिए।
*   आरोग्य के अधिष्ठाता भगवान धन्वन्तरि,महर्षि पतंजलि,चरक,सुस्रुत आदि के चित्रों को अस्पताल की दीवारों पर लगाना,या परिसर में ईशान से पूर्व की(देवदिशा) में अनुकूल स्थान पर मूर्ति लगाना अति उत्तम है।
*   होमियोपैथी दवाइयाँ सीधे शुक्र का क्षेत्र है,क्यों कि उनका आधार ही विशुद्ध शराब है।इसके लिए शुक्र की दिशा(अग्नि कोण) सर्वाधिक अनुकूल कही जा सकती है।शुक्र के मित्र बुध,शनि,मंगल हैं।इनके स्थानों में भी होमियोपैथिक औषधालय बनाये जा सकते हैं।ईशान पति वृहस्पति से शुक्र को समता है,किन्तु गुरु को शत्रुता,अतः ईशान मुखी,ईशान-क्षेत्री होमियोपैथी कार्य उचित नहीं।पूर्व और वायव्य(सूर्य-चन्द्रमा)दिशा तो विलकुल त्याज्य है।होमियोपैथी चिकित्सक पूर्वाभिमुख न बैठे तो अच्छा है।
मेडिकल कॉलेजों और सरकारी अस्पतालों में शव-गृह,पोस्टमार्टम रुम आदि की आवश्यकता होती है।इसे मुख्य भवन से काफी हट कर(कम से कम २१फीट)रखना चाहिए।इसके लिए मध्य-दक्षिण से नैऋत्य होते हुए अर्द्धपश्चिम तक का क्षेत्र उचित है।भवन दक्षिणमुख ही होना चाहिए।अस्तु।

क्रमशः...

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