गतांश से आगे..,अध्याय अठारह भाग बीस
(ख)औद्योगिक वास्तु- कुटीर उद्योग,लधु
उद्योग,मिल,कारखाने आदि इस श्रेणी में आते हैं।ये मुख्य रुप से दो प्रकार के होते
हैं- 1.सुविधानुसार किसी भी स्थान पर व्यक्तिगत स्तर पर स्थापित उद्योग,और
2.सरकारी स्तर पर स्थापित औद्योगिक प्रांगणों में स्थापित विभिन्न उद्योग।इन दोनों
में मौलिक वास्तुगत भेद नहीं है।
औद्योगिक वास्तु में वास्तुशास्त्र के
नियमानुसार बने प्रतिष्ठान प्रचुर मात्रा में धन व प्रतिष्ठा अर्जित करने में
सक्षम हो सकते हैं,जबकि नियमों की अवहेलना कर जैसे-तैसे बने प्रतिष्ठान आये दिन
मजदूरों की हड़ताल,तोड़फोड़, आगजनी, सरकारी और अदालतीय लफड़ों में पड़कर निरंतर
घाटे में जाते हुए दिवालिया हो जाते हैं।मैंने कई ऐसे औद्योगिक प्रतिष्ठानों को
देखा है, जहाँ वास्तु सिद्धान्तों की अवज्ञा बड़ी भारी पड़ी है।औद्योगिक वास्तु के
लिए सच पूछें तो अलग से कोई नियम नहीं हैं।वास्तुशास्त्र के तत्वाधारित(ग्रहाधारित
भी)नियमों पर ही इनकी भी व्यवस्था आधारित है।यहाँ कुछ खास बातों को रेखांकित किया
जा रहा है-
Ø सामान्य तौर पर,
आवासीय वास्तु से किंचित भिन्न व्यवस्था होती है- औद्योगिक वास्तु की;किन्तु मौलिक तथ्य समान हैं।
Ø उद्योग की प्रकृति और आकृति के अनुसार भूखण्ड का चयन करना चाहिए।
Ø गृह उद्योग,कुटीर उद्योग आदि प्रायः घरेलू स्तर पर ही निष्पादित होते हैं। घर
के किसी भाग में ही हाथों से या छोटी मशीनों का प्रयोग करके उत्पादन किया जाता है।जैसे-
अगरवत्ती,सेवई,बड़ी आदि के उद्योग।वैसी स्थिति में कच्चे और तैयार माल को एकत्र
रखने से बचना चाहिए।आधे दक्षिण से नैऋत्य-पश्चिम पर्यन्त कच्चे माल को और वायुकोण-क्षेत्र
में तैयार माल को रखना उचित है।
Ø कच्चा माल और तैयार माल के रखने का नियम सभी प्रकार की ईकाइयों के लिए समान
रुप से लागू होता है।
Ø सामान्य भण्डारण के लिए भी दक्षिण-पश्चिम ही अनुकूल है।
Ø उत्तर-पूर्व या सिर्फ उत्तर की ओर कच्चा माल कदापि न रखें।इस क्षेत्र में
व्यर्थ के सामान भी न रखें।
Ø जल,अग्नि आदि तत्वों के संतुलन(यथास्थान स्थापन)का सर्वदा ध्यान रखा जाना
चाहिए।
Ø बड़े से परिसर के अन्दर कई छोटे-बड़े
भवन अलग उद्देश्यों से बनाये गये हों,तो उनके निज तत्वों के संतुलन का भी ध्यान
रखना चाहिए।
फैक्ट्रियों में प्रायः समतल छत के
बजाय करकट(सीमेन्ट या टीन की चादर)से छावनी का काम किया जाता है।ध्यान रहे कि इनका
ढलान पूरब- पश्चिम दोनों ओर,या उत्तर-दक्षिण दोनों ओर हो।किसी एक ओर रखना हो तो उत्तर
या पूरब हो सकता है।दक्षिण या/और पश्चिम में कदापि नहीं।इसे आगे दिए गये चित्र से
स्पष्ट किया गया है।
Ø मुख्य कार्यालय पूरब,पश्चिम या उत्तर में रखना सर्वाधिक उचित है।
Ø स्वागत-कक्ष भी इन्हीं दिशाओं में प्रशस्त है।
Ø प्रतिष्ठान के सुरक्षाकर्मियों के लिए आवास उत्तर-वायव्य में होना चाहिए।
Ø विभिन्न कर्मचारियों के लिए आवासन-सुविधा मुहैया करानी हो तो उचित है कि इसके
लिए मुख्य परिसर से थोड़ा हट कर उनके क्वॉटर बनाये जायें,जहाँ पुनः यथासम्भव
वास्तुनियमों का पालन करते हुए निर्माण किये जायें।
Ø ऊर्जा-स्रोत- कोयला,जल,विजली आदि को प्रतिष्ठान में समुचित स्थान पर, और
समुचित तरीके से ही प्रवेश और निकास दिये जायें,अन्य़था तत्व-असंतुलन की आशंका
रहेगी।यथा- विजली का प्रवेश(निजी ट्रॉन्सफर्मर)हर हाल में अग्नि कोण,या अग्नि
क्षेत्र से ही हो।जल का प्रवेश ईशान कोण से ही होना चाहिए।गन्दे जल का निकास
उत्तर,पूरब से किया जाय(ईशान को बचाकर)।कोयले आदि का भण्डारण पश्चिम में करना
उत्तम होगा।
Ø बड़ी (मुख्य)भट्ठियां तो हर हाल में अग्नि क्षेत्र में ही लगायी जाये।छोटी
भट्ठियों को अन्य स्थानों पर भी(विपरीत धर्मिता का ध्यान रखते हुए) लगा सकते हैं।
Ø किसी भी उद्योग में कर्मचारी(श्रमिक)जनित विभिन्न प्रकार की समस्यायें आये
दिन परेशान करती हैं।ध्यान रखने की बात है कि परिसर में शनि, राहु,मंगल की स्थिति
कदापि बिगड़ने न पाये।इन्हें संतुलित रखेंगे तो मजदूरों का हड़ताल कम झेलना
पड़ेगा।
Ø सेवक व्यवस्था क्रम में पूर्व अध्यायों में भी कहा जा चुका है- सेवक,श्रमिक आदि
शनि का प्रतिनिधित्व करते हैं।इन्हें समय पर वेतन,वोनस आदि में कटौती या विलम्ब
करके मालिक अपना ही नुकसान करते हैं- शनि का कोप भाजन बन कर।
Ø निर्माण,शुभारम्भ आदि योग्य वास्तुविशेषज्ञ के संरक्षण-निर्देशन में होना
चाहिए।
Ø समय-समय पर परिसर में वास्तुशान्ति-हवन आदि भी आवश्यक है।
Ø उद्योगों में तरह-तरह के यन्त्रों(मशीनों) का वाहुल्य होता है।इन पर यन्त्र
देवता- भगवान विश्वकर्मा का नियन्त्रण है।अतः परिसर में पश्चिम दिशा में
अनुकूल स्थान पर इनकी स्थायी प्रतिष्ठा की जा सकती है।ताकि नित्य पूजा-अर्चना हो
सके।वैसे वार्षिक(सत्रह सितम्बर)पूजा तो प्रायः लोग करते ही हैं।
Ø विध्नेश्वर गणेश के साथ महागौरी की स्थापना(छोटी मूर्ति)कार्यालय के ईशान कोण
में अथवा सुविधानुसार उत्तर से पूरब पर्यन्त कहीं भी की जा सकती है।
Ø अन्यान्य देवी-देवताओं का जमघट औद्योगिक प्रतिष्ठानों में कदापि न लगायें।इससे
लाभ के वजाय हानि ही होगी।
Ø आजकल लोग शनि के प्रति अधिक आकर्षित हो रहे हैं।किन्तु ध्यान रहे- परिसर में
शनि की मूर्ति स्थापित न कर दें।शनि की प्रसन्नता और कृपा हेतु पश्चिम दिशा में
शमी का पौधा लगादें।समय-समय पर उसकी छंटाई करते रहें और उसकी लकड़ी का प्रयोग
करें- प्रत्येक शनिवार को घी के साथ कुछ आहुतियां(कम से कम २३)दे कर।इससे काफी लाभ
होगा।
Ø तात्कालिक कोष वगैरह कुबेर की दिशा में ही रखें।
Ø उद्योग की मूल प्रकृति के अनुसार ही दिशाओं और तत्वों के संतुलन का विचार
करना चाहिए।यथा- लोहे,चमड़े,तेल,डालडा आदि का कारखाना- शनि प्रधान है।तांबे का
उद्योग मंगल प्रधान है।प्लास्टिक,फाइबर,इलेक्ट्रोनिक्श आदि राहु का क्षेत्र है।फ्लोअर
मिल पर मंगल और चन्द्रमा का आधिपत्य है।चीनी मिल में भी मंगल के साथ चन्द्रमा उपस्थित
हैं(हाँ तांबें और चीनी में दोनों की आपसी हिस्सेदारी में थोड़ा अन्तर है।वस्त्र,प्रसाधन
आदि उद्योगों पर शुक्र का अधिकार मुख्य रुप से है।अंग्रेजी दवाइयों में मंगल की ही
प्रधानता है,जबकि आयुर्वेदिक दवाइयां चन्द्रमा प्रधान, और होमियोपैथी दवाइयाँ
शुक्र-चन्द्र की भागीदारी युक्त है। इस प्रकार ग्रह-वस्तु सम्बन्ध का विचार करते
हुए तत्तत् उद्योगों की स्थापना होने से अपेक्षाकृत परेशानी कम होगी।
Ø एक ही बड़े परिसर में कई सहयोगी उद्योग संचालित हों तो उनके प्रधानता क्रम
में ही कार्य संपादन होना चाहिए।जैसे चीनी मिल में गन्ने की पेराई होती है।उसके
अवशिष्ट(चेपुआ)से प्रायः सहउद्योग- कागज उद्योग की स्थापना भी कर दी जाती
है।डालडा,रिफाइन आदि बनाने वाली कम्पनियों के लिए सह उद्योग में साबुन का कारखाना
चलाना आसान हो जाता है। ऐसी परिस्थिति में मुख्य उद्योग और सहउद्योग को अपने-अपने
तत्त्वों और ग्रहों के अनुसार परिसर के तत्तत् भागों में स्थापित करने से वास्तु
बल अधिक मिलेगा।
उक्त नियम यथासम्भव पालनीय
हैं।वास्तुनियमों की अवहेलना भारी संकट का निमन्त्रण है।अस्तु।
----+++---
क्रमशः....
Comments
Post a Comment