पुण्यार्कवास्तुमंजूषा-107

गतांश से आगे...अध्याय अठारह,भाग बाइश

अब,पूर्व वर्णित क्रमशः चारों उपप्रकारों से सम्बन्धित कुछ अन्य बातें-

१.मन्दिर- देवस्थापन को हमारे शास्त्रों में अति पुनीत कर्म कहा गया है।ये स्थापन देव विशेष- विष्णु,शिव,सूर्य,गणेश,दुर्गा- पंचदेवों के अतिरिक्त अन्यान्य देवताओं के भी हुआ करते हैं;जहाँ विस्तृत भूभाग पर वास्तुनियमानुसार बड़े कलात्मक ढंग से किसी देव विशेष की प्रतिमा का स्थापन किया जाता है। परिसर के मध्य में मुख्य मन्दिर,परिक्रमा-पथ,सभामण्डप आदि बनाये जाते हैं। मन्दिर का विमान,विग्रह,गोपुर,गर्भगृह,वेदी,शिखर,यज्ञमंडप,कुण्ड आदि मुख्य अंग कहे गये हैं।मुख्य प्रतिमा के अतिरिक्त अन्य प्रतिमायें भी तत्समीप ही स्थापित की जाती हैं।यथा- शिव मन्दिर में मुख्य रुप से अर्घ्ययुक्त शिवलिंग के अतिरिक्त पार्वती,गणेश,कार्तिकेय,नन्दी आदि की प्रतिमायें भी अनिवार्य रुप से लगायी जाती हैं।प्रत्येक गांव में उत्तर या पूरब दिशा में ग्रामदेवी की स्थापना होती है, जहाँ परम्परानुसार सात या नौ पीड़ियाँ बनायी जाती हैं।इसी भांति अन्यान्य देव स्थल भी हुआ करते हैं,जहाँ हमारे मनस्ताप का विमोचन होकर,इष्टस्मरण के माध्यम से परम लक्ष्य– मोक्ष की ओर अग्रसर होने का अवसर मिलता है।मन्दिरों के सम्बन्ध में विभिन्न पाञ्चरात्र और सप्तरात्र ग्रन्थों में विस्तृत वर्णन मिलता है।विशेष जिज्ञासुओं के लिए कुछ प्रमुख तन्त्र ग्रन्थों का मात्र नाम, यहाँ उद्धृत कर रहे हैं। यथा-आदिहयशीर्ष,त्रैलोक्यमोहन,बैभव,पुष्कर,प्रह्लाद,गार्य,गालव,नारदीय,श्रीप्रश्न, शाण्डिल्य,ईश्वर,सत्य,शौनक,वसिष्ठ,ज्ञानसागर,स्वयंभुव,कपिल,तार्क्ष्य,आत्रेय, नारायणी,नारसिंह,आनन्द,आरुण,बौधायन,अष्टांग,विश्वआदि।इसके अतिरिक्त वैदिक, पौराणिक ग्रन्थों में भी इन सबके निर्माण का विशद वर्णन है।इनमें वर्णित बहुत सी बातें आज के प्रसंग में बिलकुल ही अव्यावहारिक लग सकती हैं;किन्तु देववास्तु से सम्बन्धित अद्भुत तन्त्र-व्यवस्था(system & management) से अभिभूत हुए बिना हम नहीं रह सकते।हमारे मन्दिरों का वास्तु कितना वैज्ञानिक,कितना तर्कसम्मत है- इन ग्रन्थों के अवलोकन से ही ज्ञात हो सकता है।अन्यथा अन्धस्य दीपं,बधिरस्य गीतं....वाली सुक्ति चरितार्थ होकर रह जायेगी।           
प्राचीन मन्दिरों के वास्तु का बारीकी से अध्ययन करें तो बहुत से आश्चर्यजनक तथ्य दृष्टिगत होंगे।मन्दिर के विभिन्न अंग(खण्ड) - अन्तः-वाह्य परिक्रमा-पथ, गोपुर, गर्भगृह,विमान - ऊपर बना पिरामिडनुमा भाग(गुम्बद),जिसके शिखरप्रान्त में तत्स्थापित देवों का प्रतीक (त्रिशूल,चक्र आदि) बड़े ही रहस्यमय होते हैं।
     यहाँ कुछ विशिष्ट वास्तुसम्मत नियमों की चर्चा की जारही है-
·       मन्दिरों का शिलान्यास आवासीय/व्यावसायिक वास्तु से विलकुल ही भिन्न होता है।तिथ्यादि मुहूर्त तो वे ही होते हैं,किन्तु राहु का मुख-पुच्छ-पृष्ठ-दिशा वदल जाती है।यथा- आवासीय/व्यावसायिक वास्तु में राहु का मुख ईशान में,पुच्छ नैऋत्य में और पृष्ठ आग्नेय में तब रहेगा- जब सूर्य सिंह,कन्या और तुला राशियों पर रहेंगे;किन्तु मन्दिर का शिलान्यास करने हेतु ये स्थिति सूर्य के मीन,मेष और वृष राशियों में आने रहने पर होगी।इसे हम दूसरे रुप में भी कह/देख सकते हैं- आवासीय/व्यावसायिक वास्तु में राहु-मुख-स्थिति सिंह,कन्या,तुलादि क्रमशः तीन-तीन महीनों पर ईशानादि चारो कोणों पर परिभ्रमण करेगी, जबकि धार्मिक-वास्तु में मीन,मेष,वृष से ईशानादि परिभ्रमण क्रम होता है।कथन का अभिप्राय ये है कि मान लिया सिंह राशि के सूर्य रहने पर हम मन्दिर का न्यास करना चाहते हैं,तो खात(गड्ढा)ईशान कोण में करेंगे,और आवासीय वास्तु में खात आग्नेय कोण पर करेंगे।
·       मन्दिर के लिए मनोरम वातावरण में विस्तृत भूखण्ड(द्रष्टव्य- भूमिचयन अध्याय)की आवश्यकता होती है।
·       आसपास में प्राकृतिक जलस्रोत(नदी,झरना)आदि होना अति उत्तम माना जाता है।
·       मानवकृत जलस्रोत- तड़ाग,सरोवर,वापी,कूपादि यथास्थान- उत्तर    ईशान    पूरब में बनाये जायें।(द्रष्टव्य- जलाशय प्रकरण)
·       पश्चिम-दक्षिण में पहाड़ हो तो और भी अच्छा है।
·       ऊँची पहाड़ियों पर बने मन्दिर का अपने आप में विशेष महत्त्व है।
·       भूमि वर्गाकार या आयताकर कुछ भी हो सकता है।
·       भूमि चयन और परिग्रहण में आवासीय वास्तु नियमों का भी ध्यान रखना चाहिए।(द्रष्टव्य-भूमिचयन अध्याय)।
·       मुख्य देव-मन्दिर के अतिरिक्त मन्दिर के पुजारी/सेवक का निवास स्थान,पाकशाला,गोशाला आदि भी बनाया जाता है,जिसके लिए तत् वास्तुनियमों का पालन होना चाहिए।
·       गृहस्थ(परिवार- बीबी,बच्चे वाले सेवक)हों तो उनका आवास मुख्य परिसर से हट कर बनाया जाय।
·       ब्रह्मचारी,सन्यासी सेवक मन्दिर परिसर में ही वास कर सकते हैं। 
·       चारों ओर से (पश्चिम-दक्षिण कम,उत्तर-पूर्व अधिक)परिसर परिभ्रमण की सुविधा होनी चाहिए।
·       परिसर में अनुकूल वृक्ष अवश्य लगाये जायें।(द्रष्टव्य- गृहसमीप वृक्ष अध्याय)।
·       पुष्पवाटिका के बगैर मन्दिर विधवा स्त्री के समान है।अतः मन्दिर के समीप अनिवार्य रुप से पुष्पवाटिका लगाया जाना चाहिए।आज के व्यावसायिक युग में पुष्प की बड़ी दयनीय स्थिति हो गयी है।मन्दिरों और भक्तों की संख्या के बढ़ोत्तरी के कारण फूलों का व्यापार भी काफी बढ़ गया है।दूर दराज से फूल गाड़ियों में लाद कर लाये जाते हैं,और उनके परिवहन की स्थिति पर यदि गौर करें, तो लगेगा कि ऐसे फूल देवताओं को अर्पित करने से अच्छा है – बिना फूल के ही पूजा कर लेना। पवित्रता और शुद्धि की तो बात ही न करें,ताजगी नाम की भी कोई चीज नहीं होती बाजार के फूलों में।अज्ञानी(तथाकथितज्ञानी)तर्क देते हैं- "शास्त्रों का प्रमाण है कि मालाकारगृह में फूल बासी नहीं होते।"नपर्युषितदोषोऽस्ति मालाकारगृहेषु च- (आचारेन्दु.पृ.१९३);किन्तु इसका क्या अर्थ? कुचले-मसले,कई दिनों के तोड़े हुए, अमर्यादित ढंग से रखे गये फूलों को हम कैसे चढ़ा सकते हैं अपने इष्ट देव को? अतः पुष्पवाटिका अत्यावश्यक है,जो सुविधानुसार परिसर के उत्तर-पूर्व भागों में लगाये जायें(द्रष्टव्य- वृक्षोद्यान अध्यायय)।
·       परिक्रमा-पथ दो प्रकार का होना चाहिए- वाह्य और अन्तः,यानी गर्भगृह के भीतर,एवं निर्मित मन्दिर के बाहर से।अन्तः परिक्रमा-पथ में साधक प्रधान देवमूर्ति की परिक्रमा,एवं वाह्य परिक्रमा-पथ में अंगीभूत समस्त देवमूर्तियों की व्यापक परिक्रमा कर सके- इस सुविधा का ध्यान रखा जाता है।
·       मुख्य मन्दिर के सामने विस्तृत सभामण्डप भी अनिवार्य है,जो पांच, सात,ग्यारह,बारह,सोलह,अठारह,इक्कीस,चौबीस,वा सताइस स्तम्भों पर आधृत हो।ये स्तम्भ वृत्त,चतुष्कोण,षटकोण,अष्टकोण,द्वादशकोण,षोडश- कोण पर्यन्त हो सकते हैं।वृत्ताकार स्तम्भ का व्यास छः,आठ,नौ,ग्यारह, बारह,सोलह,अठारह,इक्कीस,चौबीस,वा सताइस अंगुल का होना चाहिए। कोणाकार में इस बात का ध्यान अवश्य रखा जाना चाहिए कि चाहे जितने भी पहल (भुजायें)हों सभी सामान आकार के हों,तिल भर का भी अन्तर न हो। इन स्तम्भों को यथोचित आधार(कुर्सी-प्लिंथ),और उर्ध्वछाद्य(कार्निश आदि)से युक्त होना चाहिए।स्तम्भों को विविध चित्रकारी,वा उत्कीर्णन से सुसज्जित करना चाहिए।प्राचीन काल में मणि-रत्नादि से इन्हें सुसज्जित किया जाता था।आजकल सिरेमिक टाइलों का प्रयोग होता है;जो सच पूछा जाय तो उचित नहीं है।
·       अग्निपुराण अध्याय ४२,श्लोक २६वें के अनुसार प्रासाद रचना में स्तम्भों की संख्या सम होनी चाहिए,विषम नहीं।
·       सभामण्डप के मेहराब सुन्दर शिल्प युक्त अर्द्धचन्द्राकार,अर्द्धवृत्ताकार, स्तूपाकार आदि होने चाहिए।
·       मन्दिर का प्रवेश द्वार पूर्व की ओर होना सर्वाधिक श्रेष्ठ है,जिसमें मुख्य प्रतिमा भी पूर्वाभिमुख ही स्थापित होगी,और पूजक का मुख पश्चिम में होगा।शास्त्र का नियम है कि स्थायी स्थापना पूर्वाभिमुख ही होनी चाहिए। अस्थायी स्थापना- जैसे कि हम घर में थोड़ी देर के लिए कोई पूजा करने के लिए तात्कालिक देव-आवाहन करते हैं(जिसे पूजा के बाद विसर्जित कर देते हैं)वैसी स्थिति में पूजक का मुख पूरब की ओर होगा और देवता पश्चमाभिमुख ही होंगे।स्थायी और अस्थायी स्थापना में यह महत्त्वपूर्ण भेद है- इसका सदा ध्यान रखना चाहिए। 
·       आजकल सरकारी जमीन हथियाने के उद्देश्य से,या व्यापारिक दृष्टिकोण से(धनलाभ के लिए)दिशा विचार किए बिना मन्दिर बना देते हैं- भले ही दक्षिणमुख क्यों न हो- यह सर्वथा अनुचित है।
·       कतिपय विशेष उद्देश्य से(तान्त्रिक क्रियाओं में)दक्षिणाभिमुख मूर्ति भी ग्राह्य है,किन्तु सामान्य तौर पर कदापि नहीं।
·       मन्दिर के प्रवेश द्वार पर विशिष्ट आकृतियाँ(फूल-पत्ते,पार्षद,गण,योगिनी, मांगलिक कलश,नारियल,आदि)अवश्य बनानी चाहिए।
·       जहाँ तक हो सके मन्दिर में सेरेमिक टाइल का उपयोग न करें।इसके स्थान पर संगमर्मर का प्रयोग किया जाय।
·       मन्दिर निर्माण में लकड़ियों का प्रयोग सावधानी पूर्वक करें।इसके लिए
इस पुस्तक के आवासीय काष्ठ-चयन-अध्याय में दिये गये निर्देशों का पालन करना चाहिए।
·       वाहरी और भीतरी दीवारों के रंग स्थापित मुख्य देवता के अनुकूल हो। यथा- देवी मन्दिर में रक्तवर्ण की प्रधानता,हनुमान और गणेश मन्दिर में सिन्दूरी(सिमरिख)रंग की प्रधानता होनी चाहिए।
·       एक देवस्थल के ऊपर दूसरा देवस्थल न बनाया जाय- जैसा कि आजकल शहरों में मन्दिर का बाजारीकरण करके किया जा रहा है।
·       पुराने बने हुए देवस्थल से सटे दूसरा देवस्थल कदापि न बनाया जाय। इससे नये और पुराने दोनों देवस्थल पीड़ित होते हैं।अनिवार्य रुप से बनाना ही हो तो पूर्व मन्दिर की ऊँचाई से द्विगुणित भूखण्ड छोड़ कर बनाया जा सकता है।(द्रष्टव्य- अग्निपुराण-३९-१३)।
·       आवादी से हट कर यदि मन्दिर बना रहे हों तो वे नगराभिमुख ही होंने चाहिए।नगरपृष्ठ में नहीं।अग्निपुराण के उनचालीसवें अध्याय में विस्तृत रुप से विभिन्न देवों की स्थापना की दिशा का वर्णन है।यूँ तो ब्रह्मा शापित देवों में हैं।इनका मन्दिर बनाना निषद्ध है;किन्तु तीर्थादि विशिष्ट स्थलों में बनाना ही तो नगर के मध्य में बनाना चाहिए।महेश्वर(शिव) का मन्दिर नगर के ईशान क्षेत्र में बनाये जायें।चण्डी,दुर्गा,काली,आदि के मन्दिर ग्राम के नैऋत्य में बनाये जायें।इसी भाग में पितृगण,एवं दैत्यादि का भी स्थान है।ध्यातव्य है कि उक्त देवियों से भिन्न स्थिति है- ग्रामदेवी की,जो प्रायः प्रत्येक गांव में स्थापित होती हैं।इनका स्थान ग्राम के उत्तर या पूरब दिशा में ही होना उचित है।अग्निदेव और विभिन्न मातृकाओं का स्थान अग्निकोण में है।भूतगण,यमराज (धर्मराज)का मन्दिर दक्षिण में होना चाहिए।वरुण पश्चिम में,वायुदेव वायुकोण में हों।वायुकोण में ही नागदेवता का भी स्थान है।यक्ष या कुबेर का मन्दिर उत्तर दिशा में होना चाहिए,और विष्णु(सभी स्वरुप) का मन्दिर त्याज्य दिशाओं को छोड़ कर सुविधानुसार कहीं भी बनाये जा सकते हैं।
·       मन्दिरों का एक विशेष प्रकार है- प़ञ्चायतन।यथा - शिवपंचायतन, विष्णुपंचायतन आदि।इसकी वास्तु किंचित भिन्न है।चारों कोनों और मध्य में(कुल पांच),अथवा चार दिशा,चार विदिशा और मध्य(कुल नौ) देवस्वरुपों की स्थापना यहाँ होती है।(द्रष्टव्य- अग्निपुराण-४३वां अध्याय सम्पूर्ण)।
·       पुराने मन्दिर के विकाश/जीर्णोद्धार की योजना हो तो विधिवत जीर्णोद्धार-विधि से कार्य करना चाहिए।(द्रष्टव्य- देवप्रतिष्ठा ग्रन्थ)।
·       मन्दिर(भवन)के पांच मुख्य भागों में वास्तुशास्त्रीय तालमेल होना जरुरी है- खास कर भूतल से ऊपर प्रायः मनमाने ढंग से लोग निर्माण-कार्य कर देते हैं।मन्दिर के शीर्ष के अनुसार ही भूगर्भीय खात की योजना बनानी चाहिए।फिर भूतल से स्थानक(कुर्सी- प्लिंथ)तक की ऊँचाई का ध्यान रखे।
·       मन्दिर की कुर्सी(प्लिंथ)घुटने से कम प्रमाण की ऊँचाई वाला न हो। कमर,वा छाती प्रमाण ऊँचा हो तो और भी उत्तम,जिस पर चढ़ने के लिए सुदृढ़,सुडौल सीढ़ियाँ बनी हों।
·       प्लिंथ के बाद मुख्य निर्माण(गर्भगृह,परिक्रमा-पथ,सहगृह,सभामण्डप) आदि की बात आती है।ये सब अ-समान ऊँचाई वाले हों तो अच्छा है। यानी सहगृह और सभामण्डप की ऊँचाई गर्भगृह की ऊँचाई से कम हो। ये आनुपातिक रुप से ११:९:७ या ९:७:५ के क्रम में होने चाहिए।इसे आगे चित्र से स्पष्ट किया गया है।
·       भूपरिग्रह के पश्चात् चतुरस्र क्षेत्र को सोलह भाग में विभाजित कर,मध्य के चार भागों में मन्दिर का गर्भ निश्चित करे।शेष बारह भागों को दीवार उठाने,तथा मन्दिर के अन्य अंगों के लिए नियत करे।यहाँ ध्यान देने योग्य है कि मध्य में चार भागों के परिमाण तुल्य ही प्रासाद के दीवारों(मुख्य) की ऊँचाई होनी चाहिए।दीवारों की ऊँचाई से दुगनी शिखर की ऊँचाई होनी चाहिए।शिखर के चतुर्थांश तुल्य परिक्रमा की ऊँचाई हो।इसी मान के अनुसार दोनों भागों में द्वार(प्रवेश-निकास) भी बनाना चाहिए।मन्दिर के सामने का विस्तार भी शिखर-तुल्य ही होना उचित है,किन्तु इसे अधिक भी किया जा सकता है।शिखर के पूर्वार्द्ध को "शुकनासा" कहते हैं।उससे उपर यानी तीसरे भाग की वेदी संज्ञा है,और अन्तिम चतुर्थ भाग में "आमलसार" नामक कण्ठ का निर्माण कराना चाहिए।बाहरी सभामण्डप गर्भगृह से दूना होना चाहिए।मन्दिर के सभी पादस्तम्भ भित्ति के तुल्य ही बनाने चाहिए।तत्पश्चात् इक्यासीपद वास्तु मण्डल का न्यास भी करना चाहिए।ये सर्वसाधारण रुप से कथित हैं।
(द्रष्टव्य- मत्स्यपुराण२६९-१८,१९;नारदपुराण-पूर्वभाग,द्वितीयपाद ५६वां  अध्याय,श्लोकसंख्या ६००-६०३;तथा अग्निपुराण अध्याय ४२सम्पूर्ण)।
·       मन्दिर में प्रतिमा के अनुसार ही पिण्डी का निर्माण करना चाहिए।यानी ऊँची(बड़ी)प्रतिमा के लिए पिण्डी भी बड़ी हो।
·       मन्दिर में स्थापना हेतु प्रतिमा के चयन के लिए भी उक्त पौराणिक वास्तु नियमों का पालन करना चाहिए।किन्तु आजकल मूर्ति के लिए भी हम बाजार(मूर्तिकार)पर ही निर्भर हैं।और मूर्तिकार सिर्फ कलाकार है,शास्त्रज्ञान का सर्वथा अभाव है उसके पास।परिणाम ये होता है कि मूर्ति कलात्मक रुप से सुन्दर होते हुए भी शास्त्रसम्मत नहीं होता,और इस अतिमहत्त्वपूर्ण बात पर लोग ध्यान भी नहीं देते, और अज्ञान वश बिलकुल मनमाने ढंग से किसी मूर्ति की स्थापना कर देते हैं।
·       मूर्ति निर्माण के लिए पदार्थ(मिट्टी,पत्थर,धातु,काष्ठ,रत्न,और पुष्प)का प्रयोग होता है, जिनमें मिट्टी और पुष्प अस्थायी हैं,शेष स्थायी श्रेणी में आते हैं।धातु में एकधातु,त्रिधातु,अष्टधातु का प्रयोग करना चाहिए।ग्राह्यशिला चार प्रकार की होती है-स्वेत,रक्त,पीत और श्याम।ये पूर्वोत्तर उत्तम कहे गये हैं।अब पदार्थ का सही चुनाव करके,त्रिआयामीय परिमाण का ज्ञान रखते हुए निर्माण होना चाहिए।(द्रष्टव्य अग्निपुराण-अध्याय ४३,४४,४५सम्पूर्ण)।
·       गृहस्थ को घर में अपने अंगुल से आठ अंगुल तक की मूर्ति रखना विहित है।इससे अधिक रखकर पाप का भागी बनना पड़ता है।बडी मूर्ति मन्दिरों में ही स्थापित हो सकते हैं- घरों में कदापि नहीं।
·       मूर्ति के आकार के अनुसार उसकी पूजा-अर्चना भी विधि-वद्ध है।
·       सामान्यतौर पर शिव की मानवाकृति मूर्ति नहीं बनानी(या स्थापित) चाहिए;किन्तु अर्धनारीश्वर,वा हरिश्वर कृति बनायी जा सकती है।
·        शिवलिंग (अर्घ्य और लिंग)(तान्त्रिक विवेचना- योनि-लिंग)का ही पूजन होना चाहिए।लिंग अनेक प्रकार के कहे गये हैं।अग्निपुराण में देवशिल्पी विश्वकर्मा के कथनानुसार १४,४२० प्रकार के लिंग होते हैं। यथा-वाण,नर्मदेश्वर आदि। शिवलिंग का अर्घ्य निश्चित रुप से उत्तराभिमुख ही होना चाहिए,यानी लिंग पर अर्पित जलादि गिर कर उत्तर की ओर ही जाये।सुविधानुसार इस जल-प्रवाह को कुछ आगे बढ़ने के बाद अन्य दिशाओं में भी मोड़ा जा सकता है।(द्रष्टव्य-अग्निपुराण, शिवपुराण,श्रीविद्यार्णवतन्त्रम्,शैवागम्,संमरागणसूत्रधार)।
·       शिव मन्दिर में नन्दीश्वर की मूर्ति भी अत्यावश्यक है।
·       शिव-परिवार में कार्तिकेय की मूर्ति अपने वाहन- मयूर पर आरुढ़ हों तो अधिक अच्छा है।
·       गणेश की मूर्ति दक्षिण-वाम(सूढ़ का घुमाव)भेद से दो तरह का होता है।दोनों का अपने आप में अलग-अलग महत्त्व है।
·       सूर्य की मानवाकृति मूर्ति वनानी हो तो सप्तहययुक्त रथारुढ(बैठे हुए) स्वरुप की ही स्थापना करें,जिसमें मूर्ति के "पाद भाग" अदृष्ट हों।इनकी मण्डलाकृति भी ग्राह है,किन्तु मण्डल में सिर्फ सप्त रश्मियाँ उत्कीर्ण हों न कि श्मश्रु(मूंछ)युक्त मुखमण्डल।
·       ग्रामदेवी की सिर्फ सात या नौ पीड़ियाँ बनानी चाहिए।
·       चण्डी की मूर्ति बीस वा दस भुजाओं वाली होनी चाहिए,जिनके हाथों में विविध आयुध धारित हों।
·       दुर्गा की मूर्ति अठारह वा सोलह भुजाओं वाली बनायी जाय।(द्रष्टव्य- मन्त्रमहार्णव,तन्त्रसमुच्चय,अग्निपुराण-५०वां अध्याय)

·       मन्दिर के सभामण्डप में यथास्थान- मध्य या अग्निक्षेत्र में यथोचित विधि से हवन-कुण्ड,वेदी आदि बनाना चाहिए।कुण्ड में मेखला,योनि आदि का यथोचित ध्यान रखना जरुरी है।(द्रष्टव्य-शारदातिलक, वशिष्ठसंहिता,अग्निपुराण अध्याय २४ सम्पूर्ण)।

मन्दिर का प्रारुप-
 पञ्चायतन-
धार्मिक वास्तु में मन्दिर का प्रथम स्थान है।मन्दिरों में विभिन्न देवों के स्थापन की विधि है।इसका प्रमुख उद्देश्य है देवाराधन, जिसके लिए अनिवार्यतः किसी देवप्रतिमा की आवश्यकता होती है।प्रतिमा स्थापन ही मन्दिर का मुख्य कृत्य है।मन्दिर-निर्माण के पश्चात् प्रतिमा-स्थापन का विधान है।ऊपर के चित्र में मुख्य पंचदेवों का पंचायतन दर्शाया गया है।आवश्यकतानुसार इन पर ध्यान देना चाहिए।मन्दिर में देवस्थापन के सम्बन्ध में कुछ विशेष नियम है,जिनका पालन सुनिश्चित है।यथा-
ü उग्रदेवों की प्राण-प्रतिष्ठा उत्तरायण सूर्य की स्थिति में न करे,एवं सौम्य देवों की दक्षिणायन में करे
ü प्राण-प्रतिष्ठा का कर्मकाण्ड योग्य विद्वान से ही कराना उचित है।सामान्य "तिथि-सूचक,श्राद्धभोजी एवं देवलक" ब्राह्मण इस कार्य के लिए अयोग्य कहे गये हैं।
ü प्राण-प्रतिष्ठा का विशेष मुहूर्त होता है,जिसका पालन अनिवार्य है।
ü अलग-अलग देवों की प्राण-प्रतिष्ठा के लिए अलग-अलग समय(मास-पक्षादि) निश्चित हैं।तदनुसार कार्य करना उचित है।
ü चैत्र,फाल्गुन,ज्येष्ठ,एवं माघ महीने को विष्णु-मूर्ति की प्राण-प्रतिष्ठा हेतु उत्तम कहा गया है।
ü अन्यान्य मत से माघ में विष्णु-प्रतिष्ठा विनाशकारी है।
ü शिवलिंग की प्रतिष्ठा माघ,फाल्गुन,वैशाख,ज्येष्ठ और आषाढ़ मास में श्रेष्ठ है।
ü देवी की प्रतिष्ठा आश्विन मास में सर्वश्रेष्ठ है।
ü अधिकमास(मलमास) को देव-प्रतिष्ठा में वर्जित किया गया है।
ü मूर्तिस्थापन में शरद ऋतु को धन-धान्य-प्रद,एवं ग्रीष्म को शान्ति दायक कहा गया है।
ü मूर्तिस्थापन में हस्ता,चित्रा,स्वाती,अनुराधा,ज्येष्ठा,मूल,धनिष्ठा,शतभिषा,रेवती, पुष्य,अश्विनी,पुनर्वसु,तीनों उत्तरा,रोहिणी एवं मृगशिरा नक्षत्रों को ग्रहण किया गया है।शेष अग्राह्य हैं।
ü मूर्तिस्थापन में शुक्ल पक्ष की तृतीया,पंचमी,षष्ठी,सप्तमी,नवमी,दशमी, एकादशी,द्वादशी,त्रयोदशी एवं पूर्णिमा को ग्रहण किया गया है।कृष्णपक्ष में दशमी पर्यन्त(उक्त ग्राह्य तिथियाँ ही) ग्राह्य हैं,यानी एकादशी,द्वादशी, त्रयोदशी को वर्जित किया गया है।
ü तिथि सम्बन्धी विशेष नियम यह भी है कि जिस देवता की जो तिथि(दिन) है- वह उनकी स्थापना हेतु श्रेष्ठ है।जैसे कृष्ण के लिए अष्टमी,राम और देवी  के लिए नवमी,शिव के लिए त्रयोदशी,विष्णु के लिए एकादशी-द्वादशी।
ü देवादि प्रतिष्ठा कार्य में सोम,बुध,गुरु और शुक्र दिन ग्राह्य हैं।
ü लग्न विचार में सामान्य नियम है कि स्थिर लग्नों(वृष,सिंह,वृश्चिक,कुम्भ)में ही देवप्रतिष्ठा करनी चाहिए।पुनः किंचित विशिष्ट नियम भी है- सिंह लग्न में सूर्य,मिथुन लग्न में शिव,कन्या लग्न में नारायण(विष्णु),कुम्भ लग्न में ब्रह्मा एवं द्विस्वभाव(मिथुन,कन्या,धनु,मीन)लग्नों में देवी की प्रतिष्ठा करनी चाहिए।


गुरुद्वारा(एक विशेष मन्दिर)- गुरुद्वारा- यानी गुरु का द्वार।गुरु की महत्ता को ईंगित करती ये पंक्तियाँ - गुरु गोविन्द दोऊ खड़े,काके लागू पाय,बलिहारि गुरुदेव की,गोविन्द दियो बताय- अपने आप में परिपूर्ण हैं।धर्मप्राण भारत गुरु-परम्परा के सहारे ही क्रमिक रुप से आगे बढ़ा है।देवगुरु- वृहस्पति,दैत्य गरु- शुक्राचार्य,गुरु वशिष्ठ,संदीपनी,गर्ग आदि इस गुरु परम्परा के ही प्रकाश-स्तम्भ हैं।इनके आश्रमों को ही गुरुद्वारा कहा गया है;किन्तु इस शब्द को रुढ़ किया- कलिकाल में म्लेच्छों से त्रस्त आर्यावर्त के उद्धारक सिक्ख-सम्प्रदाय-प्रवर्तक गुरु नानक देव जी ने। गुरुद्वारे का अतुलित उदाहरण है-अमृतसर का विश्वप्रसिद्ध स्वर्ण मन्दिर।गुरुद्वारों में किसी देवी-देवता की प्रतिमा स्थापित नहीं होती,प्रत्युत श्रीगुरुग्रन्थसाहब (एक पुस्तक विशेष) ही समाद्रित होता है,जिसकी अलंकारिक रुप से देव-प्रतिमा की तरह ही पूजा-अर्चना,पाठ,संकीर्तन आदि सम्पन्न होते हैं।गुरुद्वारों की संरचना लगभग अन्यान्य मन्दिरों की तरह ही हुआ करती है,या कहें मन्दिर और आश्रम का मिलाजुला रुप है- गुरुद्वारा।धर्मध्वज तले वीरों को एकत्र किया गया,इस कारण शस्त्रागार भी गुरुद्वारों का अनिवार्य अंग बन गया।इसके अतिरिक्त अतिथिभवन, पुस्तकालय,विद्यालय,भोजनालय(लंगर-व्यवस्था),सरोवर आदि भी गुरुद्वारा के प्रधान अंगों में हैं।इन सबका निर्माण भी आवासीय वास्तु,और धार्मिक वास्तु नियमों के आलोक में ही होना चाहिए।
     इस प्रकार धार्मिक-वास्तु-विषयक ऊपर के प्रसंग और चित्रों में मन्दिर से सम्बन्धित कुछ विशेष निर्देश-संकेत दिये गये।यथासम्भव इनका पालन करना चाहिए।अस्तु।

क्रमशः......

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