गतांश से आगे....अध्याय अठारह,भाग तेइस
आगे कुछ यज्ञकुण्डों का चित्र दर्शाया गया हैः-
यज्ञकुण्ड
पूजा का अंग है होम,और होम की आहुतियाँ प्रदान करने हेतु यज्ञकुण्ड की
आवश्यकता होती है।वेद-पुराणादि विविध कर्मकाण्डीय ग्रन्थों में इसका विशद वर्णन
है।इस प्रकार धार्मिकवास्तु (मन्दिर) का ही एक विशिष्ट अंग है-यज्ञकुण्ड। प्रसंगवश
यहाँ इसकी थोड़ी चर्चा अनिवार्य सी प्रतीत हो रही है।यज्ञकुण्ड अनेक प्रकार के
होते हैं।उनमें सर्वाधिक सरल होता है- चतुरस्र।कुण्ड का बिलकुल शुद्ध होना
अनिवार्य है,अन्यथा न्यूनाधिक,वा विछृंखल दोष के कारण यज्ञकर्ता का अनिष्ट निश्चित
है।सरस चतुरस्रकुण्ड दो प्रकार का होता है-मेखला(वप्र) रहित और मेखला सहित।नियम है
कि अधिक आहुतियाँ देनी हों तो मेखलारहित तथा कम आहुतियां देनी हों तो मेखलासहित
कुण्ड-निर्माण करना चाहिए।स्कन्दपुराण में कहा गया है-
न्यूनसंख्योदिते
कुण्डेऽधिको होमो विधीयते।
न न्यूनसंख्यो होमश्चाऽधिककुण्डे कदाचन।।
१.मेखलारहित कुण्ड एक घनहाथ(लंबा,चौड़ा,गहरा)होना चाहिए,उसके ऊपर नौ
अंगुल ऊँची मेखला बनती है।
२.मेखलासहित कुण्ड की लम्बाई और चौड़ाई तो एक-एक हाथ ही होती है,पर
गहराई पन्द्रह अंगुल होना चाहिए,जिसके ऊपर नौ अंगुल की मेखला होती है।इसका
क्षेत्रफल एक घनहस्त के करीब होता है।समुचित दिक्साधन करके द्वादशास्र एक हस्त
परिमित कुण्ड बनाकर उसके ऊपरी भाग पर एक-एक अंगुल चारो ओर छोड़कर नौ अंगुल
ऊंची,चार अंगुल चौड़ी पहली मेखला,उसके बाहर(पहली मेखला से संलग्न)पांच अंगुल ऊँची
और तीन अंगुल चौड़ी दूसरी मेखला ,उसके बाहर दो अंगुल ऊँची,दो ही अंगुल चौड़ी तीसरी
मेखला बनानी चाहिए।इस सम्बन्ध शास्त्र वचन इस प्रकार हैः-
द्विरंगुलोच्छ्रितो वप्रः प्रथमः
समुदाहृतः।
त्र्यंगुलोच्छ्रायसंयुक्तं वप्रद्वयमथोपरि।।
द्वयंगुलंस्तत्र विस्तारः सर्वेषां कथितो
बुधैः।।(मत्स्यपुराण
९३/९६)
यावान् कुण्डस्य विस्तारः खननं तावदीरितम्।
खाताद् बाह्येऽङ्गुलः कुण्डः सर्वकुण्डेष्वयं
विधिः।।
(शारदातिलक)
व्यासात्खातः करः प्रोक्तो भिन्नं तिथ्यङ्गुलेन
तु।
कुण्डात्परं मेखला स्यादुन्नता सा नवाङ्गुलैः।।
प्रधानमेखलोत्सेधमुक्तमत्र नवाङ्गुलम्।
तद्वाह्यमेखलोत्सेधं पञ्चाङ्गुलमितिस्फुटम्।।
तद्वाह्यमेखलोत्सेधमङ्गुलद्वितयं क्रमात्।
चतुस्त्रिद्वयङ्गुलव्यासो मेखलात्रितयस्य तु।।
मेखला के बाद अब योनि की चर्चा करते हैं-१२अंगुल ऊँची,१२लम्बी और ८अंगुल
चौड़ी पीपल के पत्ते सदृश कुण्ड के पश्चिम भाग में योनि बनानी चाहिए,जो एक अंगल
कुण्ड में प्रविष्ट हो।कुण्ड के बीच में तीन अंगुल ऊँची,चार अंगुल चौड़ी,चार अंगुल
लम्बी नाभि भी बनानी चाहिए।यथा-
दीर्घा सूर्याङ्गुला योनिस्त्र्यंशो ना विस्तरणे
तु।
एकाङ्गुलोच्छ्रिता सा तु प्रविष्टाभ्यन्तरे तथा।।
कुम्भद्वयार्थसंयुक्ता अश्वत्थदलवन्मता।
अङ्गुलष्ठमेखलायुक्ता मध्ये
त्वाज्याधृतिक्षमा।।(त्रैलोक्यसार)
इस प्रकार योनि और नाभि से युक्त तीन मेखला वाला कुण्ड श्रेष्ठ माना
गया है- योनिनाभिसमायुक्तं कुण्डं श्रेष्ठं त्रिमेखलम्।
इसी प्रसंग में पुनः कहते हैं- कि स्त्री यजमान हो तो योनिकुण्ड ही
बनावे।साथ ही इस बात का भी ध्यान रखे कि योनिकुण्ड में योनि और पद्मकुण्ड में नाभि
नहीं बनावे-योनिकुण्डे तथा योनिं पद्मे नाभिं च वर्जयेत्।।
महान
विद्वान कमलाकर भट्टजी ने सिद्धान्ततत्वविवेक में योनिकुण्ड की निर्माण विधि को स्पष्ट किया
है-
फलात्
खखाष्टवेदाघ्नात् त्र्यादिखाद्रिहृतात्पदम्।
बाहुरश्वत्थपत्राभे
योनिकुण्डे प्रजायते।।
समत्रिभुजवत्
तस्माद् व्यासोऽप्यत्राद्यहस्तके।
कुण्डे
भुजो भवेद् व्यासोऽअंगुलाद्यो गणितेन वै।।
समत्रिभुजवत्पूर्वे
कृत्वा तुल्यं त्रिबाहुकम्।
योनिकुण्डे
ततो बाहुत्रयमध्यातद् भुजाद् बहिः।।
मण्लार्धत्रयं
लेख्यं बाह्वर्धभ्रमणादिह।
एकार्धवृत्तमध्याच्च
पार्श्वयोस्तद्भुजाग्रगे।।
काये
रेखे च तत्सक्ते चापे त्यक्त्वाऽवशेषकम्।
योनिकुण्डं
भवेदाद्यमश्वत्थदलयोनिभम्।।
(नोटः-यहाँ कुछ गणित के माध्यम से योनिकुण्ड संरचना को स्पष्ट करने का प्रयास कर रहा हूँ,किन्तु गणित सही तरीके से पोस्ट नहीं हो पा रहा है।)
योनिकुण्ड में भुज= योनिकुण्ड के क्षेत्रफल में 4800 का गुणा करके 7073 से भाग देकर,सबका वर्गमूल निकाले .....
ज्ञातव्य
है कि एक हाथ के कुण्ड का अंगुलात्मक क्षेत्रफल २४×२४=५७६होता है। इसे ही उक्त
सूत्र में सुलझाया गया है।इसी को भुज मानकर समत्रिकोण त्रिभुज बनाकर,भुजार्ध को
केन्द्र मानकर तीनों अर्धवृत्त निर्माण करके,ऊपर के चापार्ध बिन्दु त्रिकोण के
कोणपर्यन्त रेखा को जोड़कर शेष चापार्ध को हटा देने से पीपल के पत्ते सदृश
योनिकुण्ड बन जाता है।शेष क्रिया चतुर्भुजवत् ही रहती है।
न्यून
आहुति हो तो १×१ हाथ की सामान्य वेदिका(स्थण्डिल) ही बनावें,इसमें भी तीन मेखलायें
अवश्य हों।इसमें योनि नहीं बनानी चाहिए।यथा-
स्थण्डिले
मेखला कार्या कुण्डोक्ता स्थण्डलाकृतिः।योनिस्तत्र न कर्तव्या कुण्डवत् तन्त्रवेदिभिः।।
आगे कुछ यज्ञकुण्डों का चित्र दर्शाया गया हैः-
क्रमशः......
Comments
Post a Comment