पुण्यार्कवास्तुमंजूषा-109

गतांश से आगे- अध्याय अठारह,भाग चौबीस

.आश्रम- धार्मिक वास्तु में अब आश्रम की चर्चा करते हैं।इसके विविध रुप हैं-आश्रम,मठ,स्थानक,बौद्धबिहार आदि।ऋषियों के निवास स्थान,जिनमें जप-तप, धार्मिक प्रवचन,शिक्षण आदि कृत्य सम्पन्न हुआ करते हैं- आश्रम कहलाते हैं। इस वास्तु-व्यवस्था में ही गुरु-शिष्य परम्परा पल्लवित हुई।गुरु-परिवार,वटुक, शिष्यगण के अतिरिक्त आगन्तुक(अतिथि)के भी योग-क्षेम की व्यवस्था रहती है यहाँ।भारतीय चिन्तन-धारा का केन्द रहा है -आश्रम।जनसमुदाय,और राजपरिवार भी इन आश्रमों की सुव्यवस्था को निज कर्तव्य समझते थे।पूर्णतः लोककल्याण की भावना से इनका संचालन होता था।वर्तमान समय में,काल-प्रवाह में इनकी मौलिकता लगभग प्रवाहित हो चुकी है;और मूल उद्देश्य से काफी दूर चले गये हैं। अर्थप्रधान युग में आश्रम भी अर्थोपार्जन का केन्द्र बन कर रह गया है।
    आश्रम का ही एक रुप हुआ- मठ,जिसका श्रीगणेश आदिशंकराचार्य द्वारा किया गया था।सनातन धर्मावलम्बी संन्यासी इन मठों में रहकर ब्रह्मविद्या का ज्ञानार्जन किया करते थे।भौतिक विद्याओं-कलाओं का भी सम्यक् ज्ञान कराया जाता था।
   स्थानक और बौद्धबिहारों में प्रायः भिक्षु-भिक्षुणी रहा करते हैं।इसकी शुरुआत तथागत बुद्ध के काल में हुआ।उद्देश्य वही है,जो आश्रम और मठ का है।
   इन सभी प्रकार के धार्मिक वास्तु की संरचना के मूल में आवासीय वास्तु के नियम ही ग्राह्य हैं।अतः अलग से कुछ विशेष कहने की आवश्यकता नहीं प्रतीत होती।इनके स्थापन में स्थिति और आवश्यकतानुसार सम्यक् आवासीय और धार्मिक वास्तु-नियमों का पालन होना चाहिए।

३.धर्मशाला-धार्मिक वास्तु का एक अभिन्न अंग कह सकते हैं इसे,जो मन्दिर और आश्रम का परिपूरक सा है।मन्दिरों का निर्माण- जिस तरह पुण्यकार्य माना जाता है,वैसे ही धर्मशाला का निर्माण भी अति पुण्यकार्य ही है।राजा-महाराजा ही नहीं,समाज के श्रेष्ठीवर्ग भी जगह-जगह(तीर्थस्थलों या अन्य स्थानों पर)ऐसे भवन का निर्माण कराते थे,जहाँ अतिथि,यात्री,पर्यटक,या सामान्य जन(व्यापारी आदि) निःशुल्क (या अत्यल्प शुल्क) रात्रि विश्राम कर सकते हैं।कहीं-कहीं विश्राम के अतिरिक्त निःशुल्क भोजन की भी व्यवस्था होती है।विभिन्न सरकारें परिसदन का निर्माण कराती हैं।औद्योगिक संस्थान भी खास उद्देश्य से अतिथिगृह का निर्माण कराते हैं;जहाँ भोजन-आवास की समुचित व्यवस्था रहती है।हालांकि वर्तमान समय में धर्मशाला से "धर्म" अलग हो चुका है,सिर्फ "शाला" रह गया है,जिसका उद्देश्य धनोपार्जन मात्र है।फिर भी होटलों की अपेक्षा सस्ते जरुर होते हैं।
    चूँकि धर्मशाला,अतिथिगृह,परिसदन(जो भी संज्ञा हो)- इनके मूल में आवास ही है,अतः निर्माण प्रक्रिया आवासीय वास्तु वाली ही लागू होनी चाहिए।
क्रमशः....

Comments