पुण्यार्कवास्तुमंजूषा-110

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४.वापी,कूप,तड़ागादि- जलाशय की प्रशस्ति के सम्बन्ध में अग्निपुराण का यह श्लोक प्रदीपिका जैसा है-
  आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तं ये केचितसलिलार्थिनः।
           ते तृप्तिमुपगछन्तु तडागस्येन वारिणा।। (अग्निपुराण६३)
निखिल ब्रह्माण्ड में जो कोई भी जलाकांक्षी हों,वे सभी तृप्त हों- जैसी महत्-उदार भावना है-जलाशयों के निर्माण की।विष्णुधर्मोत्तर पुराण में कहा गया है-
उदकेन विना वृत्तिर्नास्ति  लोकद्वये सदा।
                    तस्माज्जलाशयाः कार्याः पुरुषेण विपश्चिता।।
अग्निष्टोमसमः कूपः सोऽश्वमेधसमो मरौ।
                     कूपः प्रवृत्तपानीयः सर्वं हरति दुष्कृतम्।।
कूपकृत्स्वर्गमासाद्य सर्वान्भोगानुपाश्नुते।
                                                तत्रापि भोगनैपुण्यं स्थानाभ्यासात्प्रकीर्तितम्।।
इहलोक और परलोक दोनों लोकों में जल के बिना निर्वाह नहीं हो सकता।इसलिए लोगों को जलाशय अवश्य बनवाना चाहिए।कूप यदि मरुभूमि में बनवाया जाय तो अश्वमेध यज्ञ का पुण्यलाभ होता है।इत्यादि।
नन्दिपुराण में कहा गया है- यो वापिमथवा कूपं देशे तोयविवर्जिते।
                  खानयेस्स नरो याति स्वर्गे प्रेत्य शतं समाः।।
पुनश्च- विधारितं जीवनमेव येन तद्गोपदैकेन समं पृथिव्याम्।
     स षष्टिसख्यं च सहस्रवर्षं स्वर्लोकसौख्यान्यखिलानि भुङ्क्ते।।
                                                                                   (वास्तुराजवल्लभ ४-३५,

तथा वास्तुरत्नाकर १२-५)अर्थात् प्राणीमात्र के जीवन रुप जल के आश्रय को पृथ्वी पर यदि कोई गोपदतुल्य प्रमाण में भी निर्माण करा दे तो साठ हजार वर्षों तक स्वर्गसुख का उपभोग करता है।

इसके पूर्व(वास्तुराजवल्लभ ४-२६)में ही पुर में जलाशय-निर्माण की संख्या पर प्रकाश डाला जा चुका है-
नीराश्रयः पुण्यवता विधेयः मध्ये पुरस्यापि तथैव वाह्ये।
वाप्यश्चतस्रोऽपि दशैव कूपाश्चत्वारि कुण्डानि च षटतड़ागाः।।
अर्थात् पुण्यात्मा पुरुष को पुर के भीतर और बाहर जलाशय-निर्माण कराना चाहिए।चार वापी,दश कूप,चार कुण्ड और छः तड़ाग बनाना चाहिए।
इस प्रकार हम देखते हैं कि आचार्यों ने जीवन के आधार जल के लिए कितना ध्यान दिया है।उक्त शास्त्र-वचनों से जलाशय की उपयोगिता और महत्ता लक्षित होती है।व्यक्तिगत और सार्वजनिक उपयोग की दृष्टि से विभिन्न जलस्रोतों की स्थापना की जाती है।धार्मिक स्थलों का तो अभिन्न अंग है- जलाशय।व्यक्तिगत तौर पर भी गृहनिर्माण के साथ जलस्रोत की व्यवस्था अवश्य की जाती है।घर-घर में कुँए अवश्य होते थे पहले।प्रत्येक गांव में मन्दिर और तालाब भी बनाये जाते थे। धार्मिक स्थलों में कुण्ड,वापी आदि हुआ करते हैं। वाराणसी का मणिकर्णिका कुण्ड,ज्ञानवापी,पिशाचमोचन पुष्करणी,अमृतसर का अमृतसरोवर,गयाधाम के विभिन्न वेदियों के समीप बने हुए- ब्रह्मसरोवर,वैतरणी तालाब,विसार तालाब, रुक्मिणी तालाब,सूर्यकुण्ड आदि ऐतिहासिक जलाशयों के उत्कृष्ट नमूने हैं। 
    पुराने समय में बीरान में भी कुँए-तालाब बनाकर समीप में छायादार वृक्ष लगाये जाते थे,एक छोटा सा पड़ाव भी बना दिया जाता था- यात्रियों के विश्राम के उद्देश्य से। 
     वास्तुशास्त्रों में कूप,वापी,कुण्ड,तड़ाग,सरोवर आदि के कई भेद वर्णित हैं।वाराह मिहिर की वृहत्संहिता में जलस्रोतों के ज्ञान के लिए दकार्गल अध्याय है।रुद्र,ब्रह्म आदि यामल ग्रन्थों में भी जलविषयक काफी वर्णन उपलब्ध है। वस्तुततः जल को जीवन कहा गया है- और का योग जल- जहाँ से सृष्टि जन्म लेती है,और जहाँ जाकर लय हो जाती है- वह जल ही तो है।इसके बिना सृष्टि की कल्पना भी नहीं की जा सकती।
    किन्तु वर्तमान में हम इसका आधुनिक तरीका अख्तियार कर लिए हैं।घर-घर में कुँए भरे जा रहे हैं।चापाकल और बोरिंग उनका स्थान ले रहा है।कुँए का नव निर्माण तो लुप्त प्राय है।धर्मस्थलों के तड़ाग और सरोवर भी सरकार और समाज की लापरवाही का शिकार होकर अट्टालिकाओं में तबदील हो रहे हैं।गया जैसे धर्मकेन्द्र में भी इन जलाशयों की स्थिति अति दयनीय है- यह चिन्ता का विषय है।
    जलाशय निर्माण के लिए आवासीय और धार्मिक वास्तु से भिन्न, न्यास का नियम है,जो ऊपर की सारणी में पूर्व में दिया जा चुका है।वास्तुमंडल में जलस्रोत की व्यवस्था पर भी प्रकाश डाला जा चुका है,फिर भी यहाँ इस जलाशय प्रकरण में कुछ विशिष्ट चर्चा की जारही है।वृहत्संहिता ५३-९७,९८ में जलस्रोत की दिशा का निर्देश है।इसकी चर्चा वास्तुरत्नाकर १२-१९,२० में भी है।यथा-
आग्नेये यदि कोणे ग्रामस्य पुरस्य वा भवेत्कूपः।
नित्यं स करोति भयं दाहं च समानुषं प्रायः।।
नैऋत्यकोणे बालक्षयं च वनिता च वायव्ये।
दिक्त्रितयमेतत्त्यक्त्वा शेषासु शुभावहाः कूपाः।।
अर्थात् ग्राम(उपलक्षण से घर)के आग्नेय कोण में कूपादि होने से निरंतर भय और दाह झेलना पड़ता है।नैऋत्य कोण में होने से बालकों(पिता भी)का अनिष्ट होता है।वायव्य कोण में होने से वनिता(घर की स्त्रीमात्र)के लिए दुःखदायी है।अतः इन तीन दिशाओं को छोड़कर शेष दिशायें कूपादि के लिए प्रशस्त हैं।
इसी भांति मुहूर्त चिन्तामणि १२-२० एवं वास्तुरत्नाकर १२-२१ में कहा गया है-

कूपे वास्तोर्मध्यदेशेऽर्थनाशस्त्वैशान्यादौ पुष्टिरैश्वर्यवृद्धिः।
सूनोर्नाशः स्त्रीविनाशो मतिश्च सम्पत्पीडा शत्रुतः स्याच्च सौख्यम्।।


अर्थात् वास्तु के मध्य में कूपादि निर्माण करने से धनादि का नाश होता है।ईशान में पुष्टिदायी है।पूर्व में ऐश्वर्य दायी,अग्निकोण में पुत्रनाशक,दक्षिण में स्त्रीनाश, नैऋत्य में मृत्यु भय,पश्चिम में सम्पत्ति लाभ,वायव्य में शत्रु-पीड़ा,और उत्तर में सौख्य प्राप्ति होती है।इसे निम्नांकित चित्र में स्पष्ट किया जा रहा है-

क्रमशः....


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