पुण्यार्कवास्तुमंजूषा-111

गतांश से आगे....अध्याय अठारह-भाग छब्बीस

अब आगे कूपादि के परिमाण की चर्चा करते हैं।वास्तुरत्नाकर(जलाशयप्रकरण) १२-२२,२३,२४,एवं वास्तुराजवल्लभ ४-२७,तथा देवी पुराणादि में कहा गया है-
कुर्यात्पञ्करादूर्ध्वंपञ्चविंशत्करावधि।कूपंवृत्तायतंप्राज्ञः सर्वभूतसुखावहम्।।
अर्थात् पांच हाथ से लेकर पचीस हाथ व्यास तक वृत्ताकार कूप का निर्माण करना चाहिए।
पुनश्च-कूपः पञ्करादूर्ध्वं यावद्वर्गस्तदुद्भवः।वापी दण्डमयादूर्ध्वं दशवर्गा नृपोत्तमैः।।
अर्थात् पांच से पचीश हाथ व्यास तक का वृत्ताकार कूप और दश दण्ड(चालीस हाथ)से लेकर सौ दण्ड(चार सौ हाथ)व्यास का वापी निर्माण करना चाहिए।
अब आगे परिमाणानुसार कूपादि का नामकरण करते हैं, वास्तुराजवल्लभ४-२७में-
कूपाः श्रीमुखवैजयौ च तदनु प्रान्तस्तथा दुन्दुभि-
स्तस्मादेव मनोहरं च परतः प्रोक्तश्च चूड़ामणिः।
दिग्भद्रो जयनन्दशङ्करमतो वेदादिहस्तैर्मितै-
र्विश्वान्तैः क्रमवर्धितैश्च कथिता वेदादधः कूपिका।।
अर्थात् चार हाथ व्यास वाले कूप को श्रीमुख,पांच हाथ वाले को विजय,छःहाथ वाले को प्रान्त,सात हाथ वाले को दुन्दुभि,आठ हाथ वाले को मनोहर,दश हाथ वाले को दिग्भद्र,ग्यारह हाथ वाले को जय,बारह हाथ वाले को नन्द,और तेरह हाथ वाले को शंकर नाम से जाना जाता है।चार हाथ से कम व्यास वाले को कूपिका कहते हैं।
अब आगे कूपादि जलस्रोतों के स्थापन काल के अनुसार जलप्राप्ति की स्थिति पर प्रकाश डालते हैं-

(क) वास्तुरत्नाकर,जलाशय प्रकरण-२५से २७--

रोहिण्यादिलिखेच्चक्रं त्रयं मध्ये प्रतिष्ठितम्।
पूर्वादिदिक्षु सर्वासु सृष्टिमार्गेण दीयते।।
मध्ये शीघ्रं जलं स्वादु पूर्वभूमौ च खण्डितम्।
आग्नेयां सुजलं प्रोक्तं दक्षिणे निर्जलं तथा।।
नैऋते चामृतं वारि पश्चिमे शोभनं जलम्।
वायव्येऽपि जलं हन्ति चोत्तरे स्वादुकं जलम्।।
ईशाने कटुकं क्षारं प्रत्यक्तीक्ष्णस्य सम्भवः।।
इस श्लोक की स्पष्टी के लिए एक सारणी दी जा रही है।इसमें रोहिणी नक्षत्र से प्रारम्भ कर क्रमशः सभी सत्ताइश नक्षत्रों को स्थापित करेंगे,दिशाओं के अनुसार उनका फल है।(हृषिकेश पंचांग में भी इस चक्र की चर्चा है)यथा-

दिशायें
मध्य
पूर्व
अग्नि
दक्षिण
नैऋत्य
पश्चिम
वायव्य
उत्तर
ईशान
नक्षत्र संख्या
नक्षत्रों के नाम
रोहिणी,
मृगशिरा,
आर्द्रा
पुनर्वसु
पुष्य
आष्लेषा
मघा
पूर्वा
उत्तरा
हस्ता
चित्रा
स्वाती
विशाखा
अनुराधा
ज्येष्ठा
मूल
पू,षा.
उ.षा.
श्रवण
धनिष्ठा
शतभिष
पू.भा.
उ.भा.
रेवती
अश्विन
भरणी
कृत्तिका
जल-फल
शीघ्र
स्वादु
आंशिक
सुजल
निर्जल
अमृत
जल
शोभन
जल
हानि
सुस्वादु
जल
खारा
जल

क्रमशः....

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