गताशं से आगे...अध्याय अठारह,भाग सताईस
(ख) वास्तुरत्नाकर,जलाशय प्रकरण-श्लोक संख्या-३०,३१
में सूर्य नक्षत्र से अभीष्ट चन्द्र नक्षत्र तक गणना करने की युक्ति बतायी गयी
है,जिसे नीचे के चक्र में स्पष्ट किया गया
है।हृषिकेश पंचाग के वास्तुप्रकरण में भी अन्य चक्रों के साथ यह चक्र भी उद्धृत
है।यथा- कूपेऽर्कभान्मध्यगतैस्त्रिभिर्भैः
स्वादूदकं पूर्वदिशस्त्रिभिस्त्रिभिः।
स्वल्पं
जलं स्वादुजलं जलक्षयं,
स्वादूदकं क्षारजलं शिलाश्च।
मिष्टंजलं
क्षारजलं क्रमात्फलं ज्ञेयं बुधैर्भास्करभात्सदा प्रहेः।।
दिशायें
|
मध्य
|
पूर्व
|
अग्नि
|
दक्षिण
|
नैऋत्य
|
पश्चिम
|
वायु
|
उत्तर
|
ईशान
|
नक्षत्र
|
३
|
३
|
३
|
३
|
३
|
३
|
३
|
३
|
३
|
फल
|
स्वादु
|
स्वल्प
|
स्वादु
|
जलक्षय
|
स्वादु
|
क्षार
|
शिला
|
मिष्ट
|
क्षार
|
(ग) वास्तुरत्नाकर,जलाशय प्रकरण-श्लोक संख्या-३२
में भौम यानी मंगल के नक्षत्र से अभीष्ट चन्द्रमा के नक्षत्र तक गणना कर
जलफल-विचार की बात कही गयी है-शशिशराब्धित्रित्र्यब्धिगुणाब्धयो वधजलं हि
सुसिद्धिरभङ्गदम्। रुजमसिद्धियशोऽर्थप्रसिद्धये जलविभङ्गकरः
कुजभादिति।।
इसे निम्न सारणी में स्पष्ट किया गया है-
नक्षत्र
|
१
|
५
|
४
|
३
|
३
|
४
|
३
|
४
|
फल
|
वधजल
|
सुसिद्धि
|
शुभ
|
रोग
|
अशुभ
|
यश
|
धन
|
जलभंग
|
(घ) वास्तुरत्नाकर,जलाशय प्रकरण-श्लोक संख्या-३३से ३५तक राहु के संचरण
से कूपचक्र का विचार किया गया है।यथा-
राहुऋक्षात्त्रयं पूर्वे भयमाग्नेयतः क्रमात्।
मध्ये चत्वारि देयानि फलं
वाच्यं शुभाशुभम्।।
पूर्वे शोककरो राहुराग्नेयां जलदो भवेत्।
दक्षिणे स्वामिमरणं नैऋत्यां
बहु दुःखदः।।
पश्चिमे सुखसौभाग्यं वायव्ये जलवर्द्धनम्।
उत्तरे निर्जलं विद्यादीशाने
जलवृद्धिदम्।।
मध्ये च सजलं वाच्यं नान्यथा रुद्रभाषितम्।।
इन श्लोकों की स्पष्टी के लिए निम्न सारणी का अवलोकन करें।ध्यातव्य है
कि यहाँ सताइस से वजाय अभिजित सहित अठाइस नक्षत्रों को ग्रहण किया गया है-
दिशायें
|
मध्य
|
पूर्व
|
अग्नि
|
दक्षिण
|
नैऋत्य
|
पश्चिम
|
वायव्य
|
उत्तर
|
ईशान
|
२८नक्षत्र
|
४
|
३
|
३
|
३
|
३
|
३
|
३
|
३
|
३
|
फलाफल
|
सजल
|
शोक
|
जलद
|
मृत्यु
|
दुःख
|
सौभाग्य
|
वद्धि
|
निर्जल
|
वृद्धि
|
ऊपर कूपस्थापन-विचार हेतु चार विधियां कही गयी।प्रश्न उठता है कि इन
चार का क्या प्रयोजन?या चारो में किसकी प्रधानता, या सबकी समानता, या चारो में
किसी एक का अनुशरण?तदुत्तर स्वरुप अगला संकेत-(चतुर्णां प्रयोजनम्)-
रोहिण्यर्क्षात्सूर्यभाद्भौमभाच्च राहो ऋक्षाद्गण्यते
कूपचक्रम्।
यस्मिनकाले सर्वमेतत्प्रशस्तं तस्मिनभूमौ
निर्जलायां जलत्वम्।।
प्रसंगवश अब आगे वापी के विभिन्न संज्ञायों पर प्रकाश डालते हैं-
वापी च नन्दैकमुखा त्रिकूटा षट कूटिका युग्ममुखा
च भद्रा।
जया त्रिवक्त्रा नव कूटिका च त्येकैस्तु कूटैः
विजया मता सा।।
वास्तुराजवल्लभ ४-२७,एवं
वास्तुरत्नाकर १२-३९)
अर्थात् एक मुख और तीन
कूट की वापी को नन्दा,दो मुख और छः कूट की वापी को भद्रा,तीन मुख और नौ कूट की
वापी को जया,तथा चार मुख और बारह कूट की वापी को विजया कहा जाता है।ध्यातव्य है कि
वापी में जाने के मार्ग को मुख, और ऊपर खुले हुए भाग को कूट कहते हैं।कूट ऊपर वाले
खुले हुए मुख की संज्ञा है,वापी के मध्य का ऊपरीमुख इस गणना में नहीं है। आगे कुछ
चित्रों के माध्यम से इन्हें स्पष्ट किया जा रहा है।नीचे के चित्र एक में नन्दा और
भद्रा वापी का दृश्य है,तथा दूसरे चित्र में सिर्फ जया नाम वापी का दृश्य है,जो
तीन मुख और नौ कुटों वाला है।उसके बाद तीसरे चित्र में चारमुख,बारह कूट वाले विजया
नामक वापी का दृश्य है।वापी के निर्माण में मुख और कूट का ध्यान रखना अति आवश्यक
है।मनमाने ढंग से निर्माण न किया जाय।न्यूनाधिक(दोनों) प्रकार के दोषों से बचना
चाहिए,अन्यथा स्थापक को नाना विपत्तियों का सामना करना पड़ सकता है। क्रमशः.....
Comments
Post a Comment