पुण्यार्कवास्तुमंजूषा-115

गताँश से आगे...अध्याय अठारह भाग तीस

अब कुण्ड निर्माण की चर्चा करते हैं-
भद्राख्यकुण्डं चतुरस्रकं च सुभद्रकं भद्रयुतं द्वितीयम्।
नन्दाख्यकं स्यात्प्रतिभद्रयुक्तं मध्ये सभिट्टं परिघं चतुर्थम्।।
कराष्टतो हस्तशतप्रमाणं द्वारैश्चतुर्भिः सहितानि कुर्यात्।
मध्ये गवाक्षाश्च दिशो विभागे कोणे चतुष्का अपि पट्टशाला।।
            (वास्तुराजवल्लभ-४-३१,३२ एवं वास्तुरत्नाकर-१२-४२,४३)

अर्थात् चतुरस्र(चौकोर)कुण्ड को भद्र,भद्रयुक्त कुण्ड को सुभद्र,प्रतिभद्र कुण्ड को नन्द,मध्य में भिट्ट युक्त कुण्ड को परिघ नाम से जाना जाता है।भिट्ट कहते हैं-सीढ़ी के बगल वाली दीवार को,जिसमें किसी देवी-देवता की मूर्ति रखने की व्यवस्था होती है,अथवा कुण्ड के ऊपरी भाग के पाटन को भी भिट्ट कहते हैं, जिसमें देवस्थापन कार्य किया जाय।भिट्ट को ही पट्ट भी कहते हैं।कुण्ड विषय पर प्रकाश डालते हुए आगे कहते हैं कि आठ हाथ से लेकर सौ हाथ पर्यन्त,चारों ओर से दरवाजे(रास्ते) वाला ऐसा कुण्ड निर्माण किया जाय जिसमें गवाक्ष(झरोखा) भी हो,और चारो कोनों में पट्टशाला भी हो।

आगे यहाँ कुण्ड के प्रकारों को कुछ चित्रों के माध्यम से स्पष्ट किया जा रहा है-

कुण्ड के प्रसंग में आगे, वास्तुशास्त्री कहते हैं कि कुण्ड की मिट्टी से गंगा, सूर्यादि नवग्रह,विष्णु के दशों अवतार, एकादश रुद्र,दुर्गा, भैरव, षोडशमात्रिका, गणेशादि पंच लोकपाल,इन्द्रादि दशदिकपाल,अग्नि, दुर्वासा,चण्डिका,नारदादि ऋषि, द्वारका लीलादि की विधिवत मूर्ति-निर्माण कराकर कुण्ड के ऊपरी भाग में स्थापन करे।इस प्रकार के कुण्ड में स्नान करके देवताओं का दर्शन-पूजन अक्षय सुख-सौभाग्य, स्वर्गादि प्रदान करता है।यथा-
गङ्गाद्या रवयो हरेश्च दशकं रुद्रा दशैकाधिकाः।
दुर्गाभैरवमातृकागणपतिर्वह्वोस्त्रिकं चण्डिका।।
दुर्वासामुनिनारदास्तु सकला द्वारावतीलीलका।
लोकाः पञ्चपितामहादिविबुधाः स्युर्मध्यभिट्टे सदा।।
तस्योर्ध्वतः श्रीधरमण्डपस्य संदर्शनात्पूर्णफलं च काश्याः।
स्नानाच्च गंगाप्लवनस्य पुण्यं कृतं भवेच्चेद्विधिवद्विधिज्ञैः।।
                                (वास्तुराजवल्लभ-४-३३,३४)
क्रमशः....

Comments