पुण्यार्कवास्तुमंजूषा-116

गतांश से आगे...अध्याय अठारहःएकतीसवां भाग(अन्तिम) 

अब आगे विविध जलस्रोतारम्भ मुहूर्त की चर्चा करते हैं-
कूपाद्यारम्भ मुहूर्त —
पुष्ये मित्रकरोत्तरस्ववरुणब्रह्माम्बुपित्र्येन्दुभिः,
शस्तेऽर्के शुभवारयोगतिथिषु क्रूरेष्ववीर्येषु च।
पुष्टेन्दौ जलराशिगे दशमगे शुक्रे शुभांशोदये,
प्रारम्भः सलिलालयस्य शुभदो जीवेन्दुपुत्रोदये।।
                      (पीयूषधारा २-२५,वास्तुरत्नाकर १२-४८)
अर्थात् पुष्य,अनुराधा,हस्ता,तीनों उत्तरा,धनिष्ठा,शतभिष,रोहिणी,और मृगशिरा- इन बारह नक्षत्रों में, सूर्य के शुभत्व का विचार करते हुए,अन्यान्य क्रूर ग्रहों के निर्बल रहने पर,शुभग्रहों के वार में,शुभयोग और शुभ तिथियों में,चन्द्रमा के शुभ(पुष्ट) रहने पर,जलचर संज्ञक(कर्क,कुम्भ,मीन) राशियों में,तथा दशम स्थान में शुक्र हों, शुभ ग्रहों की राशि और नवांश हो,वृहस्पति,शुक्र,बुधादि उदित हों- ऐसे मुहूर्त में जलाशय-निर्माण का शुभारम्भ करना चाहिए।
तथाच(अन्यमत)-
हस्तः पुष्यो वासवं वारुणञ्च सौम्यं पित्र्यं त्रीणि चैवोत्तराणि।
प्रजापत्यं चापि नक्षत्रमाहुः कूपारम्भे श्रेष्ठमाचार्यवर्य्याः ।।
                                 (वास्तुरत्नाकर-१२-४९)
अर्थात् हस्ता,पुष्य,धनिष्ठा,शतभिष,अनुराधा,मघा,तीनों उत्तरा,और रोहिणी- इन दश नक्षत्रों में कूपारम्भ कार्य उत्तम कहा है पूर्वाचार्यों ने।(ध्यातव्य है कि ऊपर के श्लोक में कही गयी अन्य वातें उपलक्षण से ग्राह्य हैं।उन पर ध्यान न देना सर्वथा अनुचित होगा)अस्तु।
वापी का शुभारम्भ मुहूर्तः-(पीयूषधारा२-५५,वास्तुरत्नाकर १२-५०)-
स्वात्यश्विपुष्यहस्तेषु सर्वदा च पुनर्वसौ,रेवत्यां वारुणे चैव वापीकर्म प्रशस्यते।।
अर्थात् स्वाती,अश्विनी,पुष्य,हस्ता,पुनर्वसु,रेवती,शतभिष- इन सात नक्षत्रों में वापी निर्माण का शुभारम्भ करना चाहिए।
तड़ागारम्भ मुहूर्तः- उसी प्रसंग में आगे तड़ागारम्भ के वारे में कहा गया है-
ध्रुवं वसु जलं पुष्यं नैऋत्यं मैत्रसंज्ञकम्। नक्षत्रं शुभदं ज्ञेयं तड़ागे सर्वदा बुधैः।। (वास्तुरत्नाकर १२-५१)                                                
अर्थात् ध्रुव संज्ञक(रोहिणी,और तीनों उत्तरा),धनिष्ठा,पूर्वाषाढ़,पुष्य,मूल,और अनुराधा- इन आठ नक्षत्रों में तड़ाग का शुभारम्भ करना प्रशस्त है।
प्रसंगवश आगे कूपादि जलस्रोतों के जीर्णोद्धार के विषय में कहते हैः-
शशांकतोयांशकसर्पमित्रध्रुवाम्बुपित्र्ये वसुरेवतीषु।
उद्यानवाप्यादितड़ागकूपकार्याणि सिद्ध्यन्ति जलं ध्रुवं स्यात्।।
                                     (वास्तुरत्नाकर १२-५२)
   अर्थात् मृगशिरा,पूर्वाषाढ,आश्लेषा,अनुराधा,रोहिणी,तीनों उत्तरा,शतभिष, मघा, धनिष्ठा,और रेवती- इन बारह नक्षत्रों में वगीता,वापी,तालाब,कूप आदि का जीर्णोद्धार कराना चाहिए।जलासयों के जीर्णोद्धार का भी काफी पुण्य लाभ है।अस्तु।
इसके अतिरिक्त कुछ अन्य नियमों की यहाँ चर्चा की जा रही है-
v वापी,कूप,तड़ादि का न्यास फाल्गुन,माघ,ज्येष्ठ,कार्तिक,एवं वैशाख मासों में उत्तम कहा गया है।
v गुरु-शुक्र के अस्त,वाल-वृद्धादि दोषरहित सुकाल में हस्ता,अनुराधा,तीनों उत्तरा,धनिष्ठा,शतभिष,मघा,रोहिणी,पुष्य और मृगशिरा नक्षत्र न्यास के लिए शुभ कहे गये हैं।
v तिथियों में तृतीया,षष्ठी,अष्टमी,दशमी और त्रयोदशी को न्यास हेतु शुभ माना गया है।
v अन्य मत से- रिक्ता(चतुर्थी,नवमी,चतुर्दशी),और आमावश्या छोड़कर किसी भी तिथि में जलाशय-शिलान्यास निर्दिष्ट है।
v जलाशय प्रतिष्ठा में सिंह,वृश्चिक और धनु को छोड़कर शेष लग्न प्रशस्त हैं।
v चन्द्रमा,बुध,गुरु का लग्नस्थ होना अति शुभ माना गया है न्यास के लिए। शुक्र दशमस्थ हों तो अति शुभ है।क्रूर और पापग्रह निर्बल होने चाहिए।
v सोम और गुरुवार को उत्तम कहा गया है इस कार्य के लिए।
v कुँआ सिर्फ गोलाकार ही बनाना चाहिए।अन्य आकार धन,जन,सन्तान आदि के लिए हानिकारक होते हैं।
v चतुरस्र कूप सद्यः सन्ततिनाशक होता है।
v कूपादि के न्यास के समय वास्तुपूजन अति आवश्यक है।
v खनन के पश्चात् जमोट(जामुन या सिरीश की ताजी लकड़ी से बने चक्र- जिसके आधार पर ईंटों की जोड़ाई की जाती है)के स्थापन के समय भी पुनः संक्षिप्त वास्तुपूजन होना चाहिए।(आजकल सीमेंट के बने चक्रों का भी उपयोग किया जाने लगा है)।ईंटों की जोड़ाई के वजाय सीधे मोटे-मोटे ह्यूम पाइपों से काम ले लिया जाता है,जो कि युगानुसार बुरा नहीं है।
v विशेष रुप से वास्तुपूजन न कर सकें,तो कम से कम गणेशाम्बिका पूजन करके,वास्तु-होम अवश्य कर देना चाहिए।
v कूप-निर्माण सम्पन्न होजाने पर विहित मुहूर्त में कूप-विवाह का विधान है,जो वट वा पीपल के वृक्ष को समीप में स्थापित कर वैवाहिक विधान से सम्पन्न किया जाता है।
v कूप-विवाह के पीछे एक सहज कारण यह भी है कि जलस्रोत स्थापन के साथ छायादार(अतिशीघ्र विकाश करने वाला)पवित्र वृक्ष(वट-पीपल)रोपित किया जाय।
v तलाब पूर्ब-पश्चिम अधिक यानी सूर्यवेध ही उचित है।नियम है कि आवास चन्द्रवेध और जलाशय(कुँआ नहीं)सूर्यवेध होना चाहिए।
v तालाब में चारों ओर पक्के घाट और सीढ़ियाँ होनी चाहिए।
v तालाब के मध्य में स्तम्भ(जाट)स्थापित किया जाता है,जिस पर वरुणादि देवताओं को आहूत कर स्थापित करते हैं।कहीं-कहीं इस स्थान पर लघु आकार के जलगृह या छतरी बना दिया जाता है।किन्तु विधिवत स्तम्भ स्थापन के पश्चात ही यह निर्माण करना चाहिए।
v वापी में नीचे,जल तक उतरने के लिए सीढ़ियां बनानी चाहिए।
v कुण्ड में मेखलाओं का निर्माण आवश्यक है।जलकुण्ड और हवन कुण्ड में किंचित साम्य है।
v जलाशय का चाहे जो भी प्रकार हो,जहाँ भी बनाया जा रहा हो- आवासीय वास्तु,व्यावसायिक वास्तु या धार्मिक वास्तु- जिस किसी से भी सम्बद्ध हो,सम्पूर्ण भूखण्ड में जलस्रोत हेतु निर्दिष्ट समुचित स्थान में ही निर्माण करना चाहिए।प्रतिकूल स्थान में कदापि नहीं।जैसा कि आवासीय वास्तु के प्रसंग में कहा गया है।(द्रष्टव्य-आवासीय जलस्रोत प्रसंग)।
v कूएँ,तालाब आदि के दूषित जल को शुद्ध और साफ करने के लिए आज कल व्लीचिंगपाउडर,चूना या अन्य रसायनिकों का प्रयोग किया जाता है।
v वास्तुशास्त्रों में विभिन्न जड़ी-बूटियों के प्रयोग का निर्देश है।यथा-कुटकी,कृष्णकर्पास,नागरमोथा,बनतरोई,निर्मली का बीज आदि को समान मात्रा में एकत्र कूटपीस कर (जल के घनत्व के मुताबिक मात्रा में)डाल देना चाहिए।आवश्यकतानुसार समय-समय पर जल की शुद्धि और सफाई का ध्यान रखना चाहिए,ताकि जल ही जीवन है की सार्थकता बनी रहे।
v प्रसंग के पूर्व में दिये गये चित्र के अनुसार विभिन्न स्थानों पर जलस्रोतों का वास्तुसम्मत निर्माण करना चाहिए।

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क्रमशः...अध्याय उन्नीसवां...

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