पुण्यार्कवास्तुमंजूषा-117

गतांश से आगे...
अध्याय १९. वास्तु-पूजा- कब,क्यों,कैसे और किससे   
  

 अब तक के प्रसंगों में वास्तु सम्बन्धी अनेक बातों की चर्चा की गयी— भूमि चयन से लेकर भवन निर्माण तक।प्रसंग के प्रारम्भ में ही वास्तुपुरुष का परिचय दिया गया है।इसकी स्थापना और पूजा की बात भी कही गयी है।सामान्य तौर पर लोग मान लेते हैं कि निर्माण कार्य सम्पन्न होजाने पर वास्तु-पूजा करनी चाहिए;किन्तु शास्त्र-मत बिलकुल भिन्न है।यहाँ इस प्रसंग में उन्हीं बातों की चर्चा की जायेगी।
    वास्तुपुरुष की उत्पत्ति और अवस्थिति की बात पूर्व में ही स्पष्ट की जा चुकी है।अतः इसकी पुनरावृत्ति न करके सिर्फ इतना ही स्मरण दिला देना पर्याप्त है कि देवताओं ने वचन दिया था वास्तु देवता को कि तुम गृहवास करने वाले की रक्षा करना, और इसके बदले वे(भू-भवनस्वामी)तुम्हें समयानुसार पिण्ड और पूजन से संतुष्ट करते रहेंगे। वास्तु देव के मुख से सदा(अनवरत) तथास्तु शब्दघोष होते रहता है।यही कारण है कि वास्तुमंडल के अन्तर्गत कुवाच्य की वर्जना की गयी है। यानी आप किसी को क्रोधवस दुर्वचन कहते हैं,तो वास्तु देव के तथास्तु के संयोग से वह दुर्वचन शनैः-शनैः प्रभाव डालने लगता है।इसी भांति गृहवासी यदि आदतन अभाव का रोना रोता रहता है,या घर में निरंतर कलह का वातावरण बना रहता है,तो इसे भी वास्तुवचन- तथास्तु से पुष्टि मिलती है।अतः वास्तु मंडल में इन सब बातों से बचना चाहिए।जहाँ तक हो सके घर का वातावरण स्वच्छ,प्रेम-सौहार्द और शान्तिमय होना चाहिए।आजकल प्रायः प्रत्येक घर में विभिन्न तरह के संगीत-रेडियो,टीवी,सीडी,मोबाइल आदि पर अनवरत बजते रहते हैं।आसपास का वातावरण भी शोरशराबे वाला हुआ करता है।इन सबका वास्तुगत प्रभाव हुआ करता है।अतः जहाँ तक हो सके इन सबसे बचना चाहिए।भजन-कीर्तन,मधुर संगीत आदि समय-समय पर सही स्वरयुक्त बजने चाहिए,क्यों कि उनका ध्वनिगत प्रभाव काफी तीब्र और गहन होता है।कम से कम प्रातः-सायं भजन-कीर्तन अवश्य हों घर में,और समय-समय पर वास्तु देवता की पूजा-अर्चना-बलि आदि करनी चाहिए।यहाँ वास्तु-पूजार्थ उपयुक्त काल पर थोड़ी चर्चा करते हैः-
Ø भूमि-चयन के पश्चात् पंचसंस्कारों- साफ-सफाई,जल-सिंचन,प्लवत्वादि दोष दूर करने के समय सामान्य तौर पर वास्तुपुरुष को आवाहित कर कम से कम दही-उड़द का एक-एक बलि,जल,दीपादि सहित प्रदान कर देना चाहिए।यह क्रिया वास्तुभूमि के नैऋत्य कोण से प्रारम्भ कर क्रमशः वायव्य,ईशान और अग्नि कोण पर प्रदान करना चाहिए।मध्य में भी एक बलि दिया जा सकता है।
Ø सूत्रवेष्ठन(layout)के समय पुनः उक्त प्रकार से बलि प्रदान करना चाहिए।
Ø शिलान्यास के समय विशेष विधान से वास्तुदेवता की पूजा,और माष-बलि होनी चाहिए।इस समय संक्षिप्त पूजाविधान से गणेशाम्बिका,नवग्रह,पंच लोकपाल,दश दिकपाल,षोडशमात्रिका,चतुःषष्ठियोगिनी मात्रिकादि पूजन के साथ-साथ कलश स्थापन-पूजन,ईष्टिका-पूजन,बरुण देवता पूजन,गंगा एवं पृथ्वी पूजन अवश्य करना चाहिए।
Ø उक्त समस्त पूजा के पश्चात् ही वास्तुदेव स्वरुप- यथाशक्ति सोने-चाँदी-तांबे के नाग-नागिन,तथा उनके सहयोगी- कश्छप,मछली,क्रिकलास(गिरगिट)की भी पूजा करके स्थापन करना चाहिए।साथ ही संक्षिप्त रीति से सभी देवों सहित,वास्तुहोम भी अति आवश्यक है।
Ø ध्यातव्य है कि शुभमुहूर्त में,पूरे विधान से स्थापित शिला(शिलान्यास) का भी सीमित काल होता है।प्रायः लोग मान लेते हैं कि शिलान्यास कर लिया गया,अब कभी भी कार्यारम्भ किया जा सकता है।किन्तु बात ऐसी नहीं है।सूर्य के अयन परिवर्तन से शिलान्यास-प्रभाव अक्षम हो जाता है।प्रसंगवस यहाँ स्पष्ट कर दूँ कि मकर से मिथुन तक सूर्य उत्तरायण और कर्क से धनु तक दक्षिणायन कहलाते हैं।मान लिया किसी ने मिथुन के  सूर्य में शिलान्यास किया है।ऐसी स्थिति में महीने भर में ही शिलान्यास क्रिया व्यर्थ हो जायेगी।मकर में किये रहने पर छः महीने तक वैध रहेगी।कथन का अभिप्राय ये है कि शिलान्यास के तुरत बाद निर्माण कार्य प्रारम्भ कर देना चाहिए।अन्यथा अयनदोष लागू हो जाता है,जिसके निवारण के लिए पुनः गणेशाम्बिकापूजन करके वास्तुहोम और बलि का विधान है।ऐसा नहीं करने से निर्माणकार्य वाधित होने की आशंका रहती है।
Ø शिलान्यास के पश्चात् मुख्यद्वार की स्थापना के समय भी संक्षित रुप से वास्तुदेवता तुष्ट्यर्थ बलि,होमादि अवश्य करना चाहिए।हो सके तो शिलान्यास के समय की पूर्वार्द्ध क्रियाओं(गणेशाम्बिका से कलश स्थापन-पूजन तक की क्रिया)को सम्पन्न करके संक्षिप्त वास्तुहोम करना चाहिए।
Ø गृहनिर्माण कार्य पूर्णतः सम्पन्न हो जाने के पश्चात् विशेष रुप से शुभ मुहूर्त का विचार करके पूरे विधि-विधान से गृहप्रवेश-सह वास्तुपूजा का विधान है।ध्यातव्य है कि इस समय नाग-नागिन,कछुआ,मछली,गिरगिट आदि की पूजा नहीं की जाती,बल्कि वास्तुपुरुष(अधोमुखसुप्त मानवाकृत्ति)की स्थापना करके पूजा करनी चाहिए,और पूजा समाप्ति के पश्चात् अन्य देवों को तो विसर्जित कर देते हैं,पर वास्तुपुरुष को समादर पूर्वक उठा कर भवन के अन्दर अग्निकोण में गर्तकर्मविधान (आगे गृहप्रवेश प्रकरण में द्रष्टव्य) से स्थापित कर दिया जाता है।इस कार्य के लिए वास्तुपुरुष की तांबे या पीतल की यन्त्राकृति बाजार में उपलब्ध है।न मिल सके तो पान या पीपल के पत्ते पर उक्त मानवाकृति का अष्टगन्ध से लेखन करके प्रयोग में लाया जा सकता है।
Ø प्रतिवर्ष वास्तुशान्ति करने का विधान है।(मत्स्यपुराण अ.-२६८)
Ø न हो सके तो, प्रतिवर्ष कम से कम वास्तु बलि और होमकार्य मात्र अवश्य होना चाहिए।
Ø प्रत्येक बारह वर्षों पर अनिवार्य रुप से विशेष विधान से वास्तु-शान्ति-कर्म सम्पन्न होना चाहिए।
कभी भी भवन में तोड़-फोड,बदलाव आदि होते हैं तो कार्यारम्भ में आदेश प्राप्ति-निमित्त वास्तु बलि और कार्य समाप्ति पर विशेष वास्तु पूजा,होम,बलि आदि अवश्य करना चाहिए।ऐसा नहीं करने का भयंकर दुष्परिणाम गृहवासी को सहना पड़ता है।अस्तु।
क्रमशः... 

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