पुण्यार्कवास्तुमंजूषा-118

गतांश से आगे...अध्याय उन्नीस,भाग दो

वास्तु-पूजन कब-क्यों-कैसे की पुष्टि में यहाँ कुछ शास्त्र वचनों को उद्धृत करते हैं-
सूत्रपाते तथा कार्यं स्तम्भोच्छ्राये पुनः, द्वारबन्धोच्छ्रये तद्वत् प्रवेशसमये तथा। वास्तूपशमने तद्वत् वास्तुयज्ञस्तु पञ्चधा।।
अर्थात्    सूतपात(लेआउट),शिलान्यास,स्तम्भ(पीलर)स्थापन,मुख्यद्वार-स्थापन,तथा गृहप्रवेश- इन पांच समयों में वास्तुपूजन अवश्य करना चाहिए।इतना न कर सके तो भी,कम से कम शिलान्यास और गृहप्रवेश के समय तो समस्त प्रत्यूहव्यूह-विनाश हेतु वास्तुशान्ति कर्म सम्पन्न कराना ही चाहिए।वास्तुशान्ति कार्य कब और कैसे करना चाहिए,करने के क्या फायदे हैं,तथा नहीं करने से क्या हानि है- इस विषय पर भी उक्त अग्नि पुराण में विशदरुप से व्याख्या है।यथाः-
एतद्वास्तुपशमनं कृत्वा कर्म समाचरेत्। प्रसादभवनोद्यानप्रारम्भे परिवर्तने।।
पुरवेश्मप्रवेशे च सर्वदोषापनुत्तये। वास्तुपशमनं कृत्वा ततः सूत्रेण वेष्ठयेत्।।
रक्षोघ्नपावमानेन सूक्तेन भवनादिकम्। नृत्यमङ्गलवाद्यैश्च कुर्याद् ब्राह्मणवाचनम्।। अनेन विधिना यस्तु प्रतिसंवत्सरं बुधः। गृहे वाऽऽयतने कुर्यान्न सदुःखमवाप्नुयात्।। न च व्याधिभयं तस्य न च बन्धुधनक्षयः।
जीवेद्वर्षशतं स्वर्गे कल्पमेकं वसेन्नरः।।
समयोचित रुप से वास्तुपूजन की प्रशस्ति के बाद पश्चात् इसकी अवहेलना से होने वाली हानि को ईंगित करते हैं—
गृहादिकरणे यत्र नार्चिता वास्तुदेवता।  तत्र शून्यं भवेत्सर्वं रक्षोविघ्नादिभिर्हतम्।।
तस्माद्वास्त्वर्चनं कार्यं सम्यक्सदनमीप्सुभिः।
वित्तशाठ्यं न कुर्वीत यदीच्छेत्क्षेममात्मनः।।
तात्पर्य यह है कि वास्तुपूजन तत्परतापूर्वक समय पर सम्पन्न करना चाहिए। अन्यथा भूत-प्रेत,राक्षसों तथा अन्यान्य विघ्नों की आशंका सदा बनी रहती है। इतना ही नहीं,वास्तुपूजन में वित्तशाठ्य(कंजूसी)भी न करे- वित्तशाठ्यं न कुर्वीत सति द्रव्ये फलप्रदम्(याज्ञवल्क्यस्मृति) । व्यवहारिक रुप से देखा जाता है कि या तो लोग सीधे नजरअन्दाज कर देते हैं,या महत्त्व समझकर कुछ करते भी हैं तो अत्यल्प- बिलकुल ना के बराबर। मकान बनाने में लाखों-करोड़ों लगा देंगे,किन्तु वास्तुपूजा के नाम पर पांच-दश हजार भी खर्च करना भारी लगता है।जबकि चाहिए ये कि भवन की स्थिति(बनावट)के अनुसार वास्तुपूजन कार्य भी न्यूनाधिक अलंकार पूर्वक किया जाय।साधारण घर की पूजा और भव्य भवन की पूजा एक समान करना शास्त्रोचित नहीं कहा जा सकता। शास्त्रों  में विभिन्न प्रकार के यज्ञों की चर्चा है।वास्तुशान्ति कार्य भी एक प्रकार का यज्ञ ही है। श्रीमद्भगवतगीता(३-१०) में श्रीकृष्ण ने यज्ञ की आवश्यकता पर बल देते हुए कहा है-
सहयज्ञा प्रजा सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः।
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्।।
"सृष्टि के प्रारम्भ में पितामह ब्रह्मा ने प्रजाओं के सृजन के साथ यज्ञों का भी सृजन किया,और प्रजा से कहा कि तुम सब इस यज्ञ से वृद्धि को प्राप्त होओ, और यह यज्ञ तुम लोगों की वाञ्छा पूर्ति में सहायक हो।" यज्ञ-प्रसंग में इसी अध्याय में आगे ३-११ में कहते हैं-देवान् भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः।
परस्परं भावयन्तः श्रेयःपरमवाप्स्यथ।।
अर्थात् यह यज्ञ विधिपूर्वक-सांगोंपांग होना चाहिए।विधिहीन,क्रियाहीन, भावहीन यज्ञ का कोई औचित्य नहीं है।दान-दक्षिणादि में वितशाठ्य (कंजूसी)न करे।इस सम्बन्ध में श्रीमद्भगवतगीता १७-१२ में कहते हैं-
विधिहीनमसृष्टान्नं मन्त्रहीनमदक्षिणम्।
श्रद्धाविरहितं यज्ञं तामसं परिचक्षते।।
वेद,स्मृति,पुराणादि नाना ग्रन्थों में यज्ञविधान का निर्देश किया गया है।यज्ञ की परिभाषा इस प्रकार कही गयी है-
देवानां द्रव्यहविषामृक्सामयजुषां तथा।
ऋत्विजां दक्षिणानां च संयोगो यज्ञ उच्यते।।
अर्थात् देवता,हविर्द्रव्यादि,ऋक्सामयजुर्वेद-मन्त्र,ऋत्विक,और दक्षिणा- इन पाँचों का सविधि एकत्रण ही यज्ञ कहलाता है।संसार का सामान्य व्यावहारिक कार्य भी विधिहीन या विधिविपरीत होने पर सुन्दर और सुचारु नहीं हो सकता,तो वास्तु-सुख की सम्यक् प्राप्ति इसके वगैर कैसे हो सकती है?वास्तु शान्ति-पूजा कर्म में हमारा संकल्प होता है- कायिक,मानसिक,वाचिक,सांसर्गिक,चतुर्दिक चतुर्विध दुरित की निवृत्ति,दैहिक,दैविक,भौतिक- तापत्रय के विनाश पूर्वक धमार्थकाममोक्षादि पुरुषार्थ चतुष्ट्य की सिद्धि,श्रुतिस्मृतिपुराणोक्त फलप्राप्ति,ऐश्वर्य,आरोग्यादि समस्त अभीष्ट की सिद्धि इत्यादि।अतः ऐसे महान और पुनीत कर्म में विधिहीनता कैसे क्षम्य होगी?अतः कर्तव्याकर्तव्य की विवेचना वाले शास्त्र का अवलोकन कर- शास्त्र के निर्देशानुसार ही कर्म करना चाहिए।इस सम्बन्ध में भी हमें अन्यत्र देखने जाने की आवश्यकता नहीं है। श्रीमद्भगवतगीता १६-२३,२४ ही प्रर्याप्त प्रमाण है।यथा-
यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः।
न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परांगतिम्।।
तस्मात्शास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ।
ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्मकर्तुमिहार्हसि।।
विधिहीन,क्रियाहीन यज्ञ केवल निष्फल ही नहीं,प्रत्युत प्रत्यवायजनक (विपरीत फलदायी)भी होता है- इसका ध्यान रखना चाहिए।किसी भी यज्ञ के लिए अन्न,वस्त्र,द्रव्यादि वस्तुव्यवस्था की जिम्मेवारी याजक (यजमान)पर होती है,और विधि सम्पादन,मन्त्रोच्चारण की शुद्धि आदि कर्म आचार्यादि पर निर्भर है।इन दोनों के संयोग से ही यज्ञ की सिद्धि होती है।त्रुटि से नुकसान भी उतनी ही मात्रा में होने की आशंका रहती है।मनुस्मृति का वचन है- यज्ञ हमारा परम मित्र है तो परम शत्रु भी हो सकता है- क्रियाहीनता से।
ऐसा नहीं है कि गरीब और अमीर के लिए नियम समान है।यदि सच में कोई धनहीन है,तो उसे सुविधा है कि बड़े यज्ञ न करके सामान्य जपार्चन,होमादि मात्र ही सम्पन्न करे,किन्तु जो भी हो पूरे विधिविधान से- यानी जिस कार्य की जितनी मर्यादा शास्त्रविहित है,न कि मनमाने ढंग से।किन्तु आजकल ठीक इसके विपरीत ही देखा जाता है प्रायः।व्यर्थ के झाड़फानूस और सजावट में लाखों फूंकने के लिए धन हो जाता है,किन्तु कर्मकाण्ड सम्बन्धी जरुरतें भारी लगती हैं- पूजापाठ के नाम पर घटिया से घटिया सामान ही खरीदने का प्रयास किया जाता है।बाजार भी ग्राहकों के अनुसार ही है- पांड़ेमार्का धोती-साड़ी खूब मिलता है पूजा के नाम पर।दुकानदार पूछता है कि पूजा वाला घी चाहिए या कि खाने वाला?इस चतुराई से तो अच्छा है कि पूजा करें ही नहीं।इतना ही नहीं मकान बनवाने में उचित-अनुचित रुप से नगरनिगम,ईंजीनियर,ठेकेदार,तहसीलदार,सिपाही,क्षेत्रीय दादालोग आदि लाखों खा-पका जाते हैं,किन्तु कर्मकाण्डीय दक्षिणा बकाया रह जाता है।इस सम्बन्ध में भी शास्त्रीय निर्देश है—
यज्ञे दक्षिणया साकं पत्रेण च फलेन च।कर्मिणो फलदाता चेत्येवं वेदविदो विदुः।।कृत्वा कर्म च तस्यैवं तूर्णं दद्याच्च दक्षिणाम्।तत्कर्म फलमाप्नोति वेदैरुक्तमिदं मुने।।मुहूर्ते समतीते तु भवेच्छतगुणा हि सा।त्रिरात्रे तद्दशगुणा सप्ताहे द्विगुणा ततः।।मासे लक्षगुणा प्रोक्ता ब्राह्मणानं च वर्धते।संवत्सरे व्यतीते तु सा त्रिकोटिगुणा भवेत्।।(भावार्थ यह है कि यज्ञ की समाप्ति पर दक्षिणा संकल्प करते हुए तत्क्षण ही दक्षिणा दे दिया जाय,अन्यथा यज्ञफल की प्राप्ति नहीं होगी,और दक्षिणा में अकूत वृद्धि होने लगेगी- मास भर के विलम्ब से लक्षगुणित होजायेगा,और साल लगते-लगते तीनकरोड़गुणा...यानी अकूतराशि।

क्रमशः...

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