पुण्यार्कवास्तुमंजूषा-119

गतांश से आगे...अध्याय उन्नीस का तीसरा और अन्तिम भाग

वास्तु-पूजा-शान्ति-यज्ञ किससे करायें?
यह प्रश्न भी अति विचारणीय है।मनुमहाराज ने तो बड़ी कठोरता दिखलायी है-
असीजीवी मसीजीवी देवलो ग्रामयाचकः।
धावकः पाचकश्चैव षडेते ब्राह्मणाधमाः।।
न वै कन्या न युवतिर्नाल्पविद्यो न बालिशः।
होता स्यादग्निहोत्रस्य नार्तो नासंस्कृतस्तथा।।
नरके हि पतन्त्येते जुह्वन्तः स च यस्य तत्।
तस्माद्वैतानकुशलो होता स्याद्वेदपारगः।।ब्राह्मणस्त्वनधीयानस्तृणाग्निरिव शाम्यति।तस्मै हब्यं न दाताव्यं न हि भस्मनि हूयते।।नक्षत्रसूची खलु पापरुपो हेयः सदा सर्वसुधर्मकृत्ये..।
स्कन्दपुराण में कहा गया है-
पाखण्डिनश्च पतिता ये चान्ये नास्तिका द्विजाः।
पुण्यकर्मणि तेषां वै सन्निधिर्नेष्यते क्वचित्।।
उक्त शास्त्र वचनों का अभिप्राय किसी ब्राह्मण विशेष को उत्कृष्ट और किसी को नीचा दिखाना नहीं है,प्रत्युत कर्म और ज्ञान की महत्ता को लक्षित किया गया है। समान्य विचारणीय है कि क्या हम किसी डॉक्टर के पुत्र को चिकित्सा के लिए नियुक्त कर लें...या ईन्जीनियर का बेटा ईन्जीनियर ही होगा...या कि जज का बेटा जज की पद पर आसीन हो जायेगा? यदि ऐसा नहीं हो सकता तो फिर किसी वैदिक-कर्मकाण्डी-ज्योतिषी-वास्तुविद का बेटा भी पैतृक गुणग्राही हो ही जायेगा- कैसे सम्भव है?पराम्परा के निर्वाह में हम ज्ञान के औचित्य को विसार देते हैं,और मोह वस वंशानुगत(कुलपुरोहित)को बिना सोचे समझे अंगीकार कर लेते हैं।परिणाम यह होता है कि योग्य कर्मकाण्डी ब्राह्मण के चुनाव में चूक जाते हैं। श्रौत-स्मार्तादि समस्त कर्मों में योग्य ब्राह्मण का चयन करना चाहिए।कुलपुरोहित यदि अयोग्य हैं तो उन्हें आंशिक दान-दक्षिणादि देकर क्षमा मांग ले, किन्तु उनसे कार्य कराना उचित नहीं है।

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क्रमशः....

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