पुण्यार्कवास्तुमंजूषा-120

गतांश से आगे....अध्याय बीस(सम्पूर्ण)

                            अध्याय २०. गृहारम्भ-मुहूर्त
    किसी कार्य को करने के लिए तदनुकूल काल-निर्धारण पर महर्षियों ने काफी जोर दिया है।विभिन्न ज्योतिष-ग्रन्थों में इसके औचित्य और महत्त्व पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है।जिस प्रकार जातक ग्रन्थों में मनुष्य के जन्म समय,स्थान आदि के आधार पर ग्रह-गणित करके,किसी जातक के भूत-भविष्य-वर्तमानादि का ज्ञान किया जाता है,जो सिद्धान्ततः काफी सटीक होता है,तथा सुरक्षा और सावधानी की दृष्टि से भी इनका ज्ञान और उपयोग महत्वपूर्ण है;ठीक उसी प्रकार वास्तु सम्बन्धी कार्यों के लिए भी सुनिश्चित काल-निर्धारण किया गया है।इसके पालन से सर्वविध लाभ,और अवज्ञा से सर्वविध हानि की आशंका रहती है।अतः सर्वथा पालनीय हैं, वास्तु-कार्य-मुहूर्त।
    भवन-निर्माण की सारी योजना(भूमि चयन,परीक्षण,सामग्री-व्यवस्था) पूरी हो जाने के बाद निर्माणारम्भ की बात आती है।वैज्ञानिक और शास्त्रीय दृष्टि से सर्वविध अनुकूल समय का चुनाव करना चाहिए। समय यानी काल के विभिन्न घटकों- वर्ष,अयन,मास,पक्ष,तिथि,वार, नक्षत्र, योग, करण एवं लग्नादि की शुद्धि तथा शुभग्रहों के उदयास्त, बाल-वृद्धादि अनुकूलता पर ही हमारी भवन-निर्माण-योजना का वर्तमान और भविष्य निर्भर है। इनकी अवज्ञा से प्रायः अन्य चीजें सही रहने पर भी प्रतिकूल प्रभाव लक्षित होता है। यथा- किसी ने अन्य वास्तु-नियमों का सम्यक् पालन करते हुए भवन निर्माण किया,किन्तु यदि प्रमाद वा अज्ञान वश अनुकूल काल-चयन में चूक गया,तो मात्र इतने से ही घोर संकट का सामना करना पड़ सकता है।काल की महत्ता को हम कतई नजरअन्दाज नहीं कर सकते। वास्तु कार्य में गृहारम्भ,मुख्यद्वार-स्थापन द्वारशाखा-स्थापन,परिसर निर्माण,और गृह-प्रवेश हेतु मुहूर्त-विचार अत्यावश्यक है।
वास्तुकार्य सम्बन्धी विभिन्न मुहूर्तों(किसी कार्य को करने का अनुकूल काल) की चर्चा पूर्व अध्यायों में भी प्रसंगवश यत्र-तत्र की जा चुकी है।यहाँ इस मुहूर्त-विशिष्ट अध्याय में विशेष रुप से चर्चा की जा रही है।
न्यास(खात) की दिशा- सर्व प्रथम,गृहारम्भ के लिए शिलान्यास(खात)की दिशा और काल पर विचार करते हैं। इस सम्बन्ध में एक प्रमाण मिलता हैः-
क्षेत्रभित्तिशिलान्याशस्स्तम्भस्यारोपणं तथा।
पूर्वदक्षिणयोर्मध्येकुर्यादित्याह कश्यपः।।
उक्त वचनानुसार,कश्यपादि कुछ ऋषियों का मत है कि कार्यारम्भ अग्निकोण से ही करना चाहिए।प्रायः लोग यही करते भी हैं।वस्तुतः यह स्थिरवास्तु के नियम के अनुसार सही है,जबकि वास्तुपुरूष की तीन स्थितियाँ होती हैं-स्थिर,चर और नित्य। इनका उपयोग अलग-अलग कार्यों में होता है।साथ ही यह भी सिद्धान्त है- देवालये गेहविधौ जलाशये राहोर्मुखं शम्भुदिशो विलोमतः। मीनार्कसिंहार्कमृगार्कतस्त्रिभे खाते मुखात् पृष्टविदिक् शुभा भवेत्।। (मु.चि.वा.प्र.१९)
मुख्य बात यह है कि किसी भी प्रकार के शिलान्यास में वास्तुपुरूष की चरस्थिति का प्रयोग करना चाहिए।चर स्थिति में भी वास्तुदेव  तीन प्रकार से  अन्तःगतिवान हैं(मूलतः गति-दिशा एक ही है),जबकि देवालयारम्भ, गृहारम्भ, और जलाशयारम्भ हेतु विचार-प्रक्रिया का आधार अलग-अलग है।तदनुसार,विभिन्न वास्तुशास्त्रों में  मुख्यतः इनके शिलान्यास में विशेष रुप से दिग्भेद(दिशाओं का अन्तर)का वर्णन है। आगे एक सारणी के माध्यम से इसे स्पष्ट किया जा रहा है-
(ध्यातव्य है कि यह सारणी सूर्य-राशि पर आधारित है)
गृहारम्भ
सिंह,कन्या, तुला
वृश्चिक,धनु, मकर
कुम्भ,मीन,मेष
वृष,मिथुन, कर्क
देवालयारम्भ
मीन,मेष,वृष
मिथुन,कर्क,सिंह
कन्या,तुला, वृश्चिक
धनु,मकर, कुम्भ
जलाशयारम्भ
मकर,कुम्भ,मीन
मेष,वृष, मिथुन
कर्क,सिंह, कन्या
तुला,वृश्चिकधनु
राहु मुख
ईशान
वायव्य
नैऋत्य
आग्नेय
राहु पुच्छ
नैऋत्य
आग्नेय
ईशान
वायव्य
राहु पृष्ठ
आग्नेय
ईशान
वायव्य
नैऋत्य
इस सारणी में निम्न बातें मुख्य रुप से स्पष्ट हैः-
(१)    सूर्य के राशि परिवर्तन से खात की दिशा में परिवर्तन हो रहा है,जो वामावर्त(anticlock) गत्यमान है।इसमें(खात की दिशा) चन्द्रमा का विचार नहीं करना है।(ध्यातव्य है कि स्थान विशेष पर कहीं सूर्य, कहीं चन्द्रमा,तो कहीं अन्य ग्रहों के आधार पर गणना की जाती है।)
(२)   वास्तुदेवता अपने मूल स्थान(ईशान कोण) से तीन-तीन महीनों पर, वामावर्त क्रम से भ्रमण करते हुए क्रमशः वायु,नैऋत्य,आग्नेय कोणों में वास करते हैं।
(३)  आवासीय वास्तु के लिए शिलान्यास का जो स्थान होगा,मन्दिर के लिए उससे विलकुल भिन्न स्थान का चयन करना पड़ेगा,और जलाशय के लिए उससे भी भिन्न स्थान।
(४)  गृहारम्भ में गणना सिंह-कन्या-तुला राशि क्रम से, देवालयारम्भ में मीन-मेष-वृष राशि क्रम से,तथा जलाशयारम्भ में मकर-कुम्भ-मीन राशि क्रम से करनी चाहिए,जैसा कि ऊपर की सारिणी में स्पष्ट किया गया है।
(५)शिलान्यास हमेशा राहु(वास्तुपुरुष) के पृष्ठ में ही होना चाहिए।मुख और पुच्छ भाग में कदापि नहीं।यहाँ एक बात और स्पष्ट कर दूँ कि हृषीकेशादि पञ्चाङ्ग में अधूरी चर्चा करके भ्रामक स्थिति पैदा कर दी गयी है। परिणामतः कम जानकार लोग गलत दिशा का चुनाव कर बैठते हैं।आये दिन खात-दिशा निर्धारण में मुझे स्थानीय लोगों से विवाद का सामना करना पड़ता है-लोग पुच्छ और पृष्ट का अन्तर ही नहीं समझ पाते,और उक्त पंचांग का प्रमाण प्रस्तुत कर देते हैं।इस सम्बन्ध में गीताप्रेस का भवनभास्कर,और राष्ट्रिय संस्कृत संस्थानम् का भारतीय वास्तुशास्त्र बिलकुल स्पष्ट मार्गदर्शन करता है।वहाँ तीनों कार्यों के लिए अगल-अलग चक्र दर्शाये गये हैं।
(६) गृहप्रवेशादि प्रसंग में पूजा करते समय वास्तुदेवता के सिर की स्थिति कोणों के वजाय दिशाओं में मान्य है।यथाः-
भाद्रत्रये शिरः प्राच्यां याम्यां मार्गत्रये शिरः।
फाल्गुनत्रितये पश्चाच्छिरो ज्येष्ठत्रयोत्तरे।।
अर्थात् भादो,आश्विन,कार्तिक महीने में वास्तुदेव पूर्वशीर्ष;अगहन, पौष, माघ में दक्षिणशीर्ष;फाल्गुन,चैत्र,वैशाख में पश्चिमशीर्ष,एवं ज्येष्ठ, आषाढ़, श्रावण में उत्तरशीर्ष होते हैं। तदनुसार ही कलश पर उनकी मूर्ति स्थापित करनी चाहिए।अस्तु।

किञ्चित विशेषः- वास्तुविदों का मत है कि समस्त गृहकार्य में सौरमास की ही प्रधान्ता है।परन्तु व्यावहारिक रुप से देखते हैं कि विभिन्न पंचांगों में मुहूर्त क्रम सुविधानुसार चान्द्रमास पर ही आधारित मिलता है।यद्यपि इसमें पंचांगकर्ता का प्रयास होता है कि सौर-संक्रान्ति का ध्यान रखकर ही चान्द्रमासों में मुहूर्त निर्देश किया जाय।पूर्व प्रसंगों में भी इस सम्बन्ध में यदाकदा निर्देश(विचार) दिया गया है।वास्तुशास्त्र के सामान्य पाठकों की सुविधा के लिए,यहाँ पुनः स्पष्ट कर दूँ कि मेष राशि में सूर्य के रहने पर चैत्र मास में,वृषराशि में सूर्य के रहने पर ज्येष्ठ मास में,कर्क राशि में सूर्य के रहने पर आषाढ़ मास में,सिंह राशि में सूर्य के रहने पर भाद्र मास में, तुला राशि में सूर्य के रहने पर आश्विन मास में,वृश्चिक राशि में सूर्य के रहने पर कार्तिक मास में,मकर राशि में सूर्य के रहने पर पौष मास में,तथा मकर वा कुम्भ दोनों में किसी राशि में सूर्य के रहने पर माघ मास में भी गृहारम्भ किया जा सकता है,जबकि चान्द्रमास निर्देश क्रम में इन मासों को निषिद्ध सूची में रखा गया है।इसी क्रम में पुनः कहा गया है कि कन्या का सूर्य हो तो कार्तिक मास में,और धनु का सूर्य हो तो माघ मास में गृहारम्भ कदापि नहीं करना चाहिए।यहाँ एक बात और ध्यान में रखने योग्य है कि मास-गणना कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा तिथि से शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा तिथि तक करनी चाहिए।ऐसा इस कारण कहना पड़ रहा है,क्यों कि तिथि गणना क्रम में- शुक्लपक्ष प्रतिपदा को १, अमावश्या को ३०,और पूर्णिमा को १५ क्रमांक दिया गया है- इससे सामान्य पाठक भ्रमित न हों।
  
अब आगे गृहारम्भ मुहूर्त सम्बन्धी अन्य बातों की चर्चा करते हैः-
१)सूर्य राशि के अनुसार मेष,वृष,कर्क,सिंह,तुला,वृश्चिक,मकर और कुम्भ में गृहारम्भ प्रशस्त है।मिथुन,कन्या,धनु,और मीन राशि के सूर्य रहने पर गृह-निर्माण कार्य निषिद्ध है। नीचे की सारणी में इसके परिणामों को स्पष्ट किया गया है,साथ ही दूसरी सारणी में चान्द्रमासानुसार गृहारम्भ फल को दर्शाया गया हैः-
  

              सूर्यराश्यानुसार              चान्द्रमासानुसार                          
क्रम
राशि
शुभाशुभ परिणाम
मेष
अतिशुभ
वृष
धन-वृद्धि
मिथुन
मृत्यु
कर्क
शुभ
सिंह
सेवक-
वृद्धि
कन्या
रोग-व्याधि
तुला
सौख्य
वृश्चिक
धनवृद्धि
धनु
महान हानि
१०
मकर
धनाप्ति
११
कुम्भ
रत्नादि लाभ
१२
मीन
रोग,
भय
क्रम
मास
शुभाशुभ परिणाम
चैत्र
शोक
वैशाख
धन-धान्य,पुत्र,
आरोग्य-प्राप्ति
ज्येष्ठ
मृत्यु,विपत्ति
आषाढ़
पशु-हानि
श्रावण
पशु,धन,मित्र-
वृद्धि
भाद्र
सर्वविध ह्रास,
दरिद्रता
आश्विन
पत्नी-नाश,कलह,
क्लेश
कार्तिक
पुत्र,धन,आरोग्य-
प्राप्ति,भृत्यहानि
अगहन
भोज्यपदार्थ एवं
धन-प्राप्ति
१०
पौष
चौरभय(मतान्तर-
लक्ष्मीप्राप्ति)
११
माघ
अग्निभय
१२
फाल्गुन
वंशवृद्धि,
लक्ष्मी-प्राप्ति

                           





























नोटः- 1.कुछ विद्वानों के मतानुसार गृहारम्भ-कार्य में आषाढ़ और पौष को शुभ एवं कार्तिक को अशुभ माना गया है।
2.सूर्यराशि और चान्द्रमासों के सामन्जस्य पर भी ध्यान देना चाहिए;जैसा कि इसी अध्याय में पूर्व में कह आये हैं- कन्या का सूर्य हो तो कार्तिक मास में,और धनु का सूर्य हो तो माघ मास में गृहारम्भ कदापि नहीं करना चाहिए।
3.ईंट-पत्थर के घर में मासदोष का विचार करना चाहिए।लकड़ी या घास-फूस के घर बनाने में इसका विचार करना आवश्यक नहीं है।
4.सूर्य की राशि और चन्द्रमा के महीनों का तालमेल बैठाते हुए श्री रामदैवज्ञ ने मु.चि.वा.प्र.१५ पूर्वार्द्ध में निर्देश किया है कि कुम्भराशि का सूर्य हो तो फाल्गुन में,कर्क वा सिंह का सूर्य हो तो श्रावण में,मकर राशि का सूर्य हो तो पौष में पूर्व और पश्चिम मुख गृह का कार्यारम्भ करना चाहिए।तथा मेष वा वृष का सूर्य हो तो वैशाख में,तुला वा वृश्चिक का सूर्य हो तो अगहन में उत्तर वा दक्षिण मुख गृह का शुभारम्भ करना चाहिए।इस प्रकार स्पष्ट है कि भवन की दिशा के अनुसार भी कार्यारम्भ का काल निर्भर है।यथा-
कुम्भेऽर्के फाल्गुने प्रागपरमुखगृहं श्रावणे सिंहकर्क्योः।
पौषे नक्रे च याम्योत्तरमुखसदनं गोजगेऽर्के च राधे।।

गृहारम्भ में पक्ष विचारः- शुक्लपक्ष में गृहारम्भ करना चाहिए।कृष्णपक्ष में चौर भय,और धन-हानि की आशंका रहती है।किंचित ऋषियों के मत से कृष्णपक्ष की पंचमी तिथि तक गृहारम्भ किया जा सकता है यानी द्वितीया,तृतीया और पंचमी।

गृहारम्भ में तिथि विचारः द्वितीया,तृतीया,पंचमी,षष्ठी,सप्तमी,दशमी, एकादशी,द्वादशी,त्रयोदशी, और पूर्णिमा तिथियाँ गृहारम्भ-कार्य में प्रशस्त कही गयी हैं।शेष अग्राह्य हैं।प्रतिपदा दारिद्रदायक,चतुर्थी धननाशक,अष्टमी उच्चाटक,नवमी धन-नाशक और शस्त्रघाती,चतुर्दशी सुत-कलत्र नाशक,और अमावश्या राजभयदायक कहा गया है।अतः इनसे सर्वदा परहेज करना चाहिए।

तिथि-विचार विशेषः- भूखण्ड की स्थिति के अनुसार प्रवेशद्वार का निश्चय तो पूर्व में ही हो जाता है,जैसे- किसी दक्षिणमुखी भूखण्ड में चाह कर भी हम पूर्वमुखीद्वार स्थापित नहीं कर सकते।शिलान्यास करते समय तिथियों के चयन में भी इस बात का ध्यान रखना आवश्यक है कि प्रस्तावित भवन में प्रवेश किस दिशा से होगा।

यानी द्वार-दिशा और गृहारम्भ-तिथि में भी आपसी सम्बन्ध है।श्री रामदैवज्ञ ने अपने ग्रन्थ- मुहूर्तचिन्तामणि-वास्तुप्रकरण श्लोक १७ में इस आशय का संकेत दिया है।
यथा- पूर्णेन्दुतः प्राग्वदनं नवम्यादिषूत्तरास्यं त्वथ पश्चिमास्यम्।
     दर्शादितः शुक्लदले नवम्यादौ दक्षिणास्यं न शुभं वदन्ति।।
अर्थात् पूर्णिमा से कृष्णाष्टमी तक पूर्वमुख,कृष्णपक्ष नवमी से चतुर्दशी तक उत्तर मुख,अमावश्या से शुक्लाष्टमी तक पश्चिममुख,तथा शुक्लपक्ष नवमी से चतुर्दशी पर्यन्त दक्षिणमुख भूखण्ड पर शिलान्यास न करे।(नोट-यहाँ यह शंका हो सकती है कि यह निर्देश मुख्यद्वार-स्थापन हेतु है,किन्तु गृहारम्भ में भी इसका ध्यान रखना उचित प्रतीत हो रहा है।)
गृहारम्भ में वार विचारः- सोम,बुध,गुरु,शुक्र और शनि- ये प्रशस्त वार हैं गृहारम्भ के लिए।ध्यातव्य है कि शनि पापग्रह हैं,फिर भी भवन कार्य में इनके वार को ग्रहण किया गया है।वस्तुतः शनि कठोर न्यायिक हैं।प्रथम दृष्ट्या कष्टकर प्रतीत होने वाला परिणाम भी मानव-मार्जन के लिए होता है,न कि दुर्भावना से। रवि और मंगलवार को गृहारम्भ कदापि नहीं करना चाहिए,अन्यथा भारी अनिष्ट की आशंका रहती है।

गृहारम्भ में नक्षत्र विचारः- श्रीरामदैवज्ञ ने मु.चि.वा.प्र.श्लोक १५ के तृतीय चरण (मात्र)में नक्षत्र-निर्देश किया है-
मार्गे जूकालिगे सद्ध्रुवमृदुवरुणस्वातिवस्वर्कपुष्यैः  - अर्थात् मृदुसंज्ञक (मृगशिरा,रेवती,चित्रा,अनुराधा),ध्रुवसंज्ञक(रोहिणी,उत्तराफाल्गुनी,उत्तराषाढ़, उत्तरभाद्रपद)तथा शततारका,स्वाती,धनिष्ठा,हस्ता और पुष्य नक्षत्रों में  गृहारम्भ करना चाहिए।किंचित ग्रन्थकारों ने अश्विनी,पुनर्वसु,ज्येष्ठा और मूल को भी ग्रहण किया है।इनमें अश्विनी और पुनर्वसु तो ग्राह्य कहे जा सकते हैं,किन्तु मूल और ज्येष्ठा दारुणसंज्ञक नक्षत्रों को क्यों कर ग्रहण किया जाय- विचारणीय है।

गृहारम्भ में लग्न विचारः- वृष,सिंह,वृश्चिक और कुम्भ(सभी स्थिर लग्न) उत्तम कोटि में रखे गये हैं।मिथुन,कन्या,धनु,मीन(सभी द्विस्वभाव लग्न)मध्यम कोटि में हैं।मेष,कर्क,तुला,मकर(सभी चर लग्न)त्याज्य हैं।लग्न के सम्बन्ध में ज्ञातव्य है कि अपने स्वामीग्रह और अन्य शुभग्रहों की दृष्टि हो तो अति उत्तम होता है।जिस लग्न का चयन किया जा रहा हो उससे छठे और आठवें भाव में शुभग्रहों का होना अच्छा नहीं है।आठवां और बारहवां भाव शुभपाप(उभय)रहित यानी पूर्णतः रिक्त होना चाहिए।छठे,तीसरे और ग्यारहवें भाव में पापग्रहों का होना उत्तम है।शेष यानी १,४,५,७,९,१० वें भाव में शुभग्रहों का होना उत्तम है।

गृहारम्भ में अन्याय विचारः-
(अ) भद्रा(भद्रा एक करण है),तथा वज्र,व्याघात, शूल,गण्ड,व्यतीपात,अतिगण्ड, विष्कुम्भ,परिघादि सभी कुयोग,एवं सूर्य-चन्द्र ग्रहणादि,तथाच शुभ ग्रहों का अस्त-बाल-वृद्धादि काल,क्षयमास दोषादि गृहारम्भ में वर्जित हैं।
(आ) भूमि शयन - गृहारम्भ में भूमि की जाग्रत वा सुप्तावस्था का ज्ञान रखना भी परमावश्यक है।विद्वानों का मत है कि सूर्य जिस नक्षत्र पर होते हैं उससे ५,७,९,१२,१९,२६वें नक्षत्र में भूमि शयन करती हैं।इस सिद्धान्त में किंचित मतान्तर भी है।यथा-सूर्य संक्रान्ति से ४,७,९,१५,१९,२६वें दिन भूमि शयन करती हैं।
(इ) गृहारम्भ में चन्द्रमा-विचारः- किसी भी शुभकार्य में चन्द्रमा की अनुकूलता का विचार करना भी अति आवश्यक है।भूस्वामी की नाम राशि(जन्म राशि नहीं)से कार्यदिवसीय चन्द्रमा का विचार करना चाहिए।नामराशि से कार्यदिवसीय चन्द्रमा का छठे वा आठवें रहना अशुभ है।बारहवें होने पर विशेष अर्चना करके कार्य किया सकता है।जैसे चन्द्रशेखर(मेषराशि) वाले को कन्या वा वृश्चिक पर चन्द्रमा के रहने पर कार्यारम्भ नहीं करना चाहिए,तथा मीन के चन्द्रमा को पूजित कर कार्य किया जा सकता है।ध्यातव्य है कि यह नियम सर्वत्र पालनीय है।
(ई) भौम-शनि आक्रान्त नक्षत्रों का ज्ञान करके पूर्णतः शुद्ध नक्षत्र का ही चयन करना चाहिए।अर्थात् जिन नक्षत्रों पर ये संचरित हों उसका चुनाव न करें।
(उ) हस्ता,पुष्य,रेवती,मघा,पूर्वाषाढ,मूल- इनमें से किसी नक्षत्र पर मंगल की युति हो,और मंगलवार भी हो तो,ऐसे समय में गृहारम्भ करने से अग्निभय और शत्रुपीड़ा की आशंका रहती है।
(ऊ) पूर्वभाद्रपद,उत्तरभाद्रपद,ज्येष्ठा,अनुराधा,स्वाति,भरणी- इनमें से किसी नक्षत्र पर शनि की युति हो,और शनिवार भी हो तो ऐसे समय में गृहारम्भ करने से भूत, राक्षस आदि के उपद्रव की आशंका रहती है।(अन्य नक्षत्रों का शनिवार ग्राह्य है)
गृहारम्भ में किंचित विशेष योगः-
(क)                         श्रावणमास,शुक्लपक्ष,शुक्र/शनिवार,सप्तमी-तिथि,स्वाती/शतभिषा नक्षत्र, सिंह लग्न- ये "स"कार मिलन गृहारम्भ में अति उत्तम संयोग है।ऐसे मुहूर्त में कार्यारम्भ करने से पुत्र,धन-धान्य,सुखादि की वृद्धि होती है।
(ख)                        पुष्य,उत्तराफाल्गुनी,उत्तराषाढ़,उत्तरभाद्रपद,रोहिणी,मृगशिरा,श्रवण,आश्लेषा, पूर्वाषाढ़- इन नक्षत्रों पर गुरु का संचरण हो या गुरुवार पड़ता हो तो पुत्र और सम्पदादायक उत्तम गृहारम्भ-योग बनता है।ध्यातव्य है कि आश्लेषा और पूर्वाषाढ़ ग्राह्य नक्षत्र-सूची में नहीं हैं,फिर भी गुरु के प्रभाव से उत्तम योग-निर्माण होजाता है,यानी त्याज्य भी ग्राह्य हो गये।
(ग)                          विशाखा,अश्विनी,चित्रा,धनिष्ठा,शतभिषा,एवं आर्द्रा नक्षत्र पर शुभग्रह शुक्र का संक्रमण हो,या शुक्रवार हो तो गृहारम्भ धन-धान्यदायक हो जाता है।ध्यातव्य है कि यहाँ भी विशाखा और आर्द्रा- दो त्याज्य नक्षत्र शुक्र-संयोग से ग्राह्य सूची में आ गये हैं।
(घ)                         रोहिणी,अश्विनी,उत्तराफाल्गुनी,चित्रा,हस्ता- ये नक्षत्र बुध से युक्त हों या बुधवार हो तो गृहारम्भ उतिउत्तम कहा जाता है।

उक्त नियमों की स्पष्टी हेतु यहाँ एक सारणी प्रस्तुत है-
               गृहारम्भ-मुहूर्त-विचार-सारणी                           
शुभमास
वैशाख,श्रावण,कार्तिक,अगहन,फाल्गुन
शुभनक्षत्र
उत्तरात्रय,मृगशिरा,पुष्य,अनुराधा,धनिष्ठा,श्रवण,चित्रा,हस्ता,
स्वाती,रोहिणी,रेवती
शुभतिथि
,,,,,१०,११,१२,१३,१५.
शुभवार
सोम,बुध,गुरु,शुक्र,शनि
शुभलग्न
उत्तम२,,,११ मध्यम ,,,१२ अधम ,,,०.
लग्नशुद्धि
,,,१०,, में शुभग्रह। ३,६,११ में पापग्रह।
८,१२ पूर्ण रिक्त होने चाहिए।
शुभसूर्य
,,,,७,८,१०,११ राशियों पर संक्रमित
त्याज्य
गुरुशुक्रादिअस्त-बाल-वृद्धावस्था,षष्टाष्टम चन्द्रमा,भद्राकरण, वज्र,व्यतिपातादि सभी कुयोग, भूशयन, क्षयमासादि दोष

चक्रशुद्धि- उपर कहे गये सभी नियमों से ऊपर, एक नियम है- चक्रशुद्धि।वास्तुविद इसे वृषवत्सचक्र के नाम से सम्बोधित करते हैं।यानी एक बछड़े की आकृति कल्पित करके अपने इष्टकालिक सूर्यनक्षत्र को क्रमशः वत्स के शीर्षादि अंगों में स्थापित करते हैं।पुनः इष्टकालिक चान्द्र नक्षत्र तक गणना करते हुए आते हैं,और देखते हैं कि चान्द्र नक्षत्र वत्स के किस अंग में आरोपित है,और उसका परिणाम क्या है।इस चक्र के निर्णयानुसार ही कार्य करना चाहिए।यानी उक्त सभी मुहूर्त अनुकूल मिलते हुए भी यदि वत्सचक्र की शुद्धि(सुपरिणाम)नहीं है तो गृहारम्भ कदापि नहीं करना चाहिए।हाँ,वत्सचक्र शुद्ध होने पर मुहूर्त की अन्यान्य शर्तों में आंशिक कमी होने पर भी ग्रहण किया जा सकता है।आगे इस चक्र के आधारसूत्रों की चर्चा करते हैं—
गेहाद्यारम्भेऽर्कभाद्वत्सशीर्षे रामैर्दाहो वेदभैरग्रपादे।
शून्यं वेदैः पृष्ठपादे स्थिरत्वं रामैः पृष्ठे श्री युगैर्दक्षकुक्षौ।।
लाभो रामैः पुच्छगैः स्वामिनाशो वेदैर्नैःस्वं वामकुक्षौ मुखस्थैः।
रामैः पीडा सन्ततं वार्कधिष्ण्यादश्वै रुद्रैर्दिग्भिरुक्तं ह्यसत्सत्।।
                            (मु.चि.वा.१३,१४)

ध्यातव्य है कि आगे दिये गये चक्र में अभिजित सहित कुल अठाईस नक्षत्रों को रखा गया है।दूसरी बात हम यह देखते हैं कि प्रारम्भ के सात और अन्त के दस नक्षत्र अशुभ फलदायी हैं।मध्य में शेष ग्यारह नक्षत्र ही प्रशस्त हैं।इस प्रकार उक्त सभी नियमों का गहन विचार करते हए यथोचित पालन करना चाहिए;क्योंकि गृहनिर्माण रोज-रोज नहीं होता,और निर्माण का मूल उद्देश्य होता है- सुखशान्ति पूर्वक दीर्घकालिक निवास।अस्तु।


वृषवत्सचक्र
सूर्यनक्षत्रों में परिणाम
वत्सांग

३ अग्निभय
शीर्ष
                                          
४ शून्यता
अग्रपाद

४ स्थिरता
पृष्ठपाद

३ लक्ष्मीप्राप्ति
पृष्ठ

४ लाभ
दक्षिणकुक्ष

स्वामिनाश
पुच्छ

४ दरिद्रता
वामकुक्ष

३ पीड़ा
मुख



नोटः-दाहिनी ओर का टेवल खाली दीख रहा है।वस्तुतः सूर्यनक्षों के साथ दिया गया फल(परिणाम)यहां होना चाहिए था,किन्तु किसी कारण वश टेवल सही सेट नहीं हो पारहा है ब्लॉग पर।अतः कृपया इसे इसी भांति समझने का कष्ट करें।
                                 
 
 





                                         ---000---
क्रमशः.....जारी अगला अध्याय....

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