पुण्यार्कवास्तुमंजूषा-121

गतांश से आगे....

अध्याय २१. गृहारम्भ-पद्धति और पूजा-सामग्री


शिलान्यास(गृहारम्भ)-- ध्यातव्य है कि गृहकार्यारम्भ में शब्द- "शिला" है,ईष्टिका नहीं,जिसका न्यास(स्थापन) करना है।शास्त्रीय और आभियान्त्रिक दृष्टि से(भी)शिला अधिक महत्त्वपूर्ण है- ईष्टिका की तुलना में।अतः उचित है कि शिला न्यास पत्थर की बनी सुडौल ईंटों से ही किया जाय।वेडौल पत्थर(वोल्डर)का उपयोग न किया जाय,और न मिट्टी से बने ईंटों का।इनकी संख्या सुविधा और उपलब्धि के अनुसार पांच,सात,या ग्यारह होना चाहिए।पूजन के पश्चात् इन्हें गर्त में स्थापित करने का भी एक विशेष क्रम होना चाहिए,जिसे नीचे के चित्र से स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है।सर्वप्रथम प्राणप्रतिष्ठित-पूजित खदिर(खैर) की एक खूटी(शेष दस खूँटियों को पूर्व निर्दिष्ट दशो दिशाओं में गाड़ना है)को गर्त के मध्य में गाड़ दें,और उसके ऊपर वास्तुदेवमूर्ति को ताम्रपात्र में रख कर स्थापित कर दें।ऊपर से ढक्कन डाल कर,उनके इर्द-गिर्द पत्तल-दोने में धान का लावा,जौ का सत्तू और नदी का शैवाल,तथा थोड़ा जल रख दें।वस्तुतः यह उनके भोजन के निमित्त दिया जाता है।तदुपरान्त उनके पार्श्व में पहली ईंट दक्षिण दिशा में(क्रमांक 1)को स्थापित करेंगे,पुनः क्रमांक 2,3,4,5 को।पांच से अधिक सात की संख्या हो तो पांच के विपरीत यानी ईशान से नैऋत्य को छूते हुए छठी ईंट को स्थापित करेंगे-गुणा के चिह्न की तरह,तथा सातवीं को ठीक बीच में पूर्व-पश्चिम इस प्रकार रखेंगे कि  पांच-छःसे बने गुणाकृति को काटते हुए स्थापित हो।आठवीं तदभांति ही उत्तर-दक्षिण- पांच-छः-सात को काटते हुए स्थापित होगी।नवीं ईंट को पुनः दक्षिण में,दशवीं को पश्चिम में और ग्यारहवीं को उत्तर दिशा में रखेंगे।इस प्रकार सभी दिशायें पूर्ण बन्ध हो गयी,पूरव दिशा में सिर्फ एक ही ईंट रखी जा सकी है,यानी पूरब का खुलापन बन्धित होते हुए भी हल्का है,क्यों कि वहाँ अन्तिम ईंट नहीं रखी गयी है।


क्रमशः....

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