पुण्यार्कवास्तुमंजूषा-123

गतांश से आगे...अध्याय 21-भाग 3

गृहारम्भ-पद्धति का औचित्यः-
      यूँ तो बाजार में बहुत सी पुस्तकें उपलब्ध हैं,किन्तु इस नयी पुस्तक की आवश्यकता और उपयोगिता कई कारणों से मुझे प्रतीत हुयी। अब तक कोई भी पुस्तक ऐसी नहीं मिली जो सामान्य ज्ञान वालों के लिए पूर्णतः उपयोगी हो।प्रायः एक छोटा सा काम करने के लिए कई पुस्तकों का सहयोग लेना पड़ता है।विद्वानों को तो सभी विधियाँ ज्ञात रहती है,सभी मन्त्र करीब-करीब कण्ठाग्र रहते हैं,किन्तु नये,अनभ्यासी और अल्पज्ञानी लोगों को काफी परेशानी होती है।कहीं मन्त्र अधूरे लिख कर,मात्र संकेत दिये रहते हैं,कहीं मात्र वैदिक मन्त्रों की चर्चा रहती है,कहीं पूजा-पद्धति तो पूरी रहती है,पर होमादि के लिए वासिष्ठी की जरुरत पड़ जाती है। कहीं क्षेत्रपाल गायब हैं,तो कहीं चतुःषष्टियोगिनी। इन सभी बातों को ध्यान में रखते हुए मैंने इस पद्धति की योजना बनायी,जो आपके समक्ष प्रस्तुत है।अस्तु।
समस्त मांगलिक कार्यों के आरम्भ में ग्रहयज्ञ(यथास्थिति- संक्षिप्त/विस्तार/ अतिविस्तार विधि से)करने से समस्त विघ्नवाधाओं का शमन होकर,सुख-शान्ति-समृद्धि की प्राप्ति होती है।जैसा कि कहा गया है—कार्यारम्भेषु सर्वेषु प्रतिष्ठास्वध्वरेषु च। नववेष्म प्रवेशे च गर्भाधानादिकर्मसु।। आरोग्यस्नानसमये सङ्क्रान्तौ रोगसम्भवे। अभिचारेषु वा कुर्यात् ग्रहशान्तिविधानतः।। सोऽभीष्ट- फलमाप्नोति निर्विघ्नेन न संशयः।।
गृहारम्भ/गृहप्रवेश की पूजा-पद्धति क्या हो- इस सम्बन्ध में वशिष्ठसंहिता, विश्वकर्मप्रकाश तथा मत्स्यादि पुराणों में विशद निर्देश है।पूजा का क्रम निम्नांकित प्रकार से होना चाहिए।यथा-
आदौ सम्पूज्य गणपं दिक्पालान् पूजयेत्ततः।
धरित्रीकलशं स्थाप्य मातृकापूजयेत्ततः।।
नान्दीश्राद्धं ततः कुर्यात् पुण्याहं वाचयेत्ततः।
अग्निसंस्थापनार्थाय मेखलात्रयसंयुतम्।।
कुण्डं कुर्याद्विधानेन योऽर्चाकारं विशेषतः।
स्थण्डिलं वा प्रकुर्वीत मतिमान् सर्वकर्मसु।।
ततो ग्रहार्चनं वास्तुपूजाविधिमतः परम्।
पदस्थान् पूजयेद्देवान् त्रिंशत्पञ्दशैव च।।
वास्तुमण्डलमध्ये तु ब्रह्मस्थाने प्रपूजयेत्।
सुरुपां पृथिवीं तत्र स्थापयेद् रुपनिर्मिताम्।।
होमस्त्रिमेखलेकार्यः कुण्डे हस्तप्रमाणके।
यवैः कृष्णतिलैस्तद्वत् समिद्भिः क्षीरवृक्षजैः।।
पलाशैः खादिरैर्वापि मधुसर्पिः समन्वितैः।
कार्यस्तु पञ्चभिर्बिल्वैबिल्वबीजैरथापि वा।।
होमान्ते भक्षभोज्यैश्च वास्तुदेशे बलिं हरेत्।
नमस्कारान्तयुक्तेन प्रणावाद्येन सर्वतः।।
ततो व्याहृतिभिर्होमं स्विष्टकृद्धोममेव च।
पूर्णाहुति च जुहुयात् संस्रवप्राशनं ततः।।
(उक्त निर्देशों के आलोक में आगे पूजा-क्रम निर्दिष्ट है।हाँ,वर्तमान स्थिति, सुविधा और लोकाचार को ध्यान में रखते हुए,किञ्चित क्रम आगे-पीछे, संक्षिप्त-विस्तार कुछ भी हो सकता है।इतना अवश्य ध्यान रखा जाना चाहिए कि गृहारम्भ के समय भले ही संक्षिप्त विधि से काम लेलें,किन्तु गृहप्रवेश के समय यथासम्भव विस्तृत विधि का प्रयोग करना चाहिए।संक्षिप्त पुण्याहवाचन और नान्दीश्राद्ध भी यदि कर लिया जाय तो अति उत्तम है। अन्ततः ये दोनों कर्म पापमोचन सहित अभ्युदय हेतु किये जाते हैं।अस्तु।)

क्रमशः....

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