गतांश से आगे...
क्रमशः...
अध्याय २२—गृहप्रवेश-मुहूर्त
गृहप्रवेश-मुहूर्त
के सम्बन्ध में विचार करने से पूर्व ‘गृहप्रवेश’ की परिभाषा को समझ लेना उचित है।सामान्य
तौर पर गृहप्रवेश दो प्रकार का होता है-नूतन और जीर्ण;किन्तु किंचित आचार्यों ने
इसे तीन प्रकार का कहा है-सपूर्व,अपूर्व और द्वन्द्व। श्रीरामदैवज्ञ ने इसे इन
शब्दों में स्पष्ट किया हैः-
अपूर्वसंज्ञः प्रथमः प्रवेशो,यात्रावसाने च
सपूर्वसंज्ञः। द्वन्द्वामयस्त्वग्निभयादिजातस्त्वेवं प्रवेशस्त्रिविधः प्रदिष्टः।।
अर्थात् नूतन
गृहप्रवेश को अपूर्व,युद्धादि विजयोपरान्त राजाओं के राजभवनप्रवेश को सपूर्व, एवं
अग्न्यादि आपातकालिक कारणों से पुराने भवन में वापसी(प्रवेश)को द्वन्द्व प्रवेश की
संज्ञा दी गयी है।ध्यातव्य है कि यहाँ एक और प्रवेश छूट रहा है- वह है, किसी नवोढा
स्त्री का वधू प्रवेश।वस्तुतः यह चौथे
प्रकार में आता है। इसके सारे नियम विलकुल भिन्न हैं,और यह वास्तु का विषय भी नहीं
है।
गृहनिर्माण
का उद्देश्य है- सुखपूर्वक,दीर्घकाल तक वास।अब यह निर्माण चाहे जिस कारण से किया
जाय- सामान्य स्थिति में या कि आपात स्थिति में। घर अपना न हो,प्रत्युत किराये का
हो,जिसमें अल्पकालिक वास(कुछ मास-वर्ष) की ही सम्भावना हो,फिर भी किंचित प्रवेश-विचार
तो करना ही चाहिए- ऐसा ऋषियों का मत है।लम्बे प्रवास (यात्रा) के पश्चात् ‘घर
वापसी’ पर भी प्रवेश-विचार करने की बात कही गयी है।एक सामान्य नियम लोकचर्चित है
कि यात्रा प्रारम्भ के ठीक नौंवे दिन घर में वापसी न करे;किन्तु शास्त्रों में कुछ
विशेष निर्देश दिये गये हैं।यथा-
यात्राविवृत्तौ शुभदं प्रवेशनं मृदु-ध्रुवैः
क्षिप्त-चरैः पुनर्गमः। द्वीशेऽनले दारुणभे तथोग्रभे
स्त्रीगेहपुत्रात्मविनाशनं क्रमात्।। अर्थात् यात्रा से लौटने पर मृदु(मृगशिरा,अनुराधा,रेवती,चित्रा)
और ध्रुव(तीनों उत्तरा और रोहिणी) नक्षत्रों में प्रवेश शुभ है।क्षिप्र(हस्ता,अश्विनी,पुष्य,अभिजित)
और चर(स्वाती,पुनर्वसु,श्रवण, धनिष्ठा,शतभिष) नक्षत्र में प्रवेश करने पर पुनः
यात्रा की आशंका रहती है,यानी इसे मध्यम कहा जा सकता है;एवं विशाखा नक्षत्र में
वापसी से स्त्रीनाश,कृत्तिका नक्षत्र में अग्निभय,तथा दारुण(मूल,ज्येष्ठा,आर्द्रा,
आश्लेषा) नक्षत्रों में वापसी पुत्र नाशक,और उग्र(तीनों पूर्वा,भरणी,मघा)
नक्षत्रों की वापसी स्वयं के लिए घातक होता है।अतः लम्बी यात्रा के पश्चात् भवन
में प्रवेश करने हेतु भी प्रवेश-मुहूर्त विचार अवश्य करना चाहिए।नवनिर्मित भवन में
स्थायी निवास के उद्देश्य से प्रवेश करना- नूतन गृहप्रवेश कहलाता है।पुराने भवन
में तोड-फोड़(मरम्मत,जीर्णोद्धार)के पश्चात् पुनर्वास को जीर्ण गृहप्रवेश कहा गया है।निजी(प्राइवेट) किराये
के मकान,अथवा सरकारी आवासों में
स्थानान्तरण भी इसी श्रेणी में आता है।संक्षेप में कह सकते हैं कि नवनिर्मित भवन
में समय पर विधिवत प्रवेश,अपूर्व प्रवेश है;और भवन तो नवीन ही है,पर प्रवेश किंचित
कारणों से बाधित होगया हो तो सपूर्व प्रवेश है, तथा जीर्ण गृहप्रवेश द्वन्द प्रवेश
है।
मुहूर्तचिन्तामणि,गृहप्रवेश प्रकरण में कहा गया
है-
सौम्यायने ज्येष्ठतपोऽन्त्यमाघवे यात्राविवृत्तौ
नृपतेर्नवे गृहे। स्याद्वेशनं द्वाःस्थमृदुध्रुवोडुभिर्जन्मर्क्षलग्नोपचयोदये
स्थिरे।।(१३-१) जीर्णे गृहेऽग्न्यादिभयान्नवेऽ मार्गोर्जयोः
श्रावणिकेपि सन्स्यात्। वेशोऽम्बुपेज्यानिलवासवेषु नाऽऽवश्यमस्तादिविचारणाऽत्र।।(१३-२) अर्थात् उत्तरायण सूर्य में,ज्येष्ठ,माघ,फाल्गुन,वैशाख
आदि महीनों में,मृदु,ध्रुव संक्षक नक्षत्रों में,अपनी जन्म राशि वा लग्न से उपचय(३,६,१०,११)तथा
स्थिर (वृष,सिंह,कुम्भ)लग्नों में गृहप्रवेश उत्तम कहा गया है।पुराने तथा आपातकाल,
अग्न्यादि भयपीड़ित स्थिति में (नवनिर्मित भी) दक्षिणायण सूर्य में भी प्रशस्त
है।यानी उक्त मासों के अतिरिक्त कार्तिक,अगहन, श्रावण मास में, शततारका,पुष्य,स्वाती,धनिष्ठा
आदि नक्षत्रों में भी श्रेष्ठ है।विशेष बात यह है कि जीर्णादि गृहप्रवेश में
गुरुशुक्रादि ग्रहों के उदयास्त का विचार करना भी आवश्यक नहीं है।
गृहप्रवेश में विचारणीय बातें —
१.अयन-नूतन गृहप्रवेश उत्तरायण सूर्य (मकर,कुम्भ,मीन,मेष,वृष,मिथुन
राशियों)में, और जीर्णादि गृहप्रवेश उत्तरायण वा दक्षिणायण किसी भी स्थिति में
होता है।
२.मास-वैशाख,ज्येष्ठ,फाल्गुन एवं माघ अतिउत्तम,श्रावण,कार्तिक,अगहन
मध्यम है। क्षयमास,अधिकमास और खरमास भी सर्वदा वर्जित हैं।
३.पक्ष-शुक्ल पक्ष प्रशस्त है।कृष्ण पक्ष की दशमी
तक ही ग्राह्य है।किंचित मत से कृष्णपक्ष नूतनगृहप्रवेश में ग्राह्य नहीं है।
४.तिथि- (क) चौथ,चतुर्दशी,नवमी(तीनों रिक्ता),अमावश्या
और पूर्णिमा अग्राह्य हैं।किंचित मत से पूर्णिमा ग्राह्य है।
(ख) द्वारदिशानुसार भी प्रवेश तिथि का संकेत मिलता है।पूर्व द्वार हो तो
पूर्णा, दक्षिण द्वार हो तो नन्दा,पश्चिम द्वार हो तो भद्रा,और उत्तर द्वार हो तो
जया तिथियों को ग्रहण करना चाहिए।यथा- पूर्णे तिथौ प्राग्वदने गृहे शुभो
नन्दादिके याम्यजलोत्तरानने।।(मु.चि.वा.प्र.५ उत्तरार्द्ध)
५.नक्षत्र- ध्रुव,मृदु,क्षिप्र,चर,और मूल संज्ञक
नक्षत्रों में प्रवेश उत्तम है।यानी रोहिणी, मृगशिरा,उत्तराफाल्गुन,उत्तराषाढ़,उत्तरभाद्र,चित्रा, अनुराधा, रोहिणी और रेवती उत्तम हैं,तथा पुष्य, धनिष्ठा,और
शतभिष मध्यम हैं।
६.वार- सोम,बुध,गुरु,शुक्र और शनिवार ग्राह्य
है।यानी मंगल और रवि निषिद्ध हैं।
७.लग्न- स्थिर(वृष,सिंह,वृश्चिक,कुम्भ)लग्न उत्तम
और चर(मिथुन,कन्या, धनु,और
मीन)लग्न मध्यम कहे गये हैं।लग्न के सम्बन्ध में विशेष बात यह है कि गृहस्वामी के
जन्मलग्न से तीसरा,दशवां,और ग्यारहवां राशि- लग्न
अतिशुभ है।
८.लग्नशुद्धि- लग्नशुद्धि से तात्पर्य है
कि जिस लग्न में प्रवेश करना है वहाँ से गणना करने पर १,२,३,५,७,९,१०,११
स्थानों में शुभग्रह, एवं
३,६,११ स्थानों में पापग्रह,तथा ४,८ शुभाशुभ रहित यानी पूर्ण रिक्त होना चाहिए।
९.कुम्भचक्रशुद्धि- इसकी अनिवार्यता सर्वोपरि है,यानी
अन्यान्य सारी स्थितियाँ शुद्ध होने पर भी इसकी अशुद्धि रहने पर गृहप्रवेश कार्य
नहीं करना चाहिए।इस चक्र की परीक्षा हेतु चयनित काल के सूर्य नक्षत्र से चयनित काल
के चन्द्र नक्षत्र तक की गणना की जाती है- एक कलश की आकृति में सभी नक्षत्रों को
क्रमवार सजा कर।प्रथम पांच के परिणाम अशुभ,पुनः आठ के परिणाम शुभ,पुनः आठ के
परिणाम अशुभ और अन्तिम छः के परिणाम शुभ कहे गये हैं।इसकी स्पष्टी हेतु आगे
दिये गये चक्र का अवलोकन करें।
१०.चन्द्रशुद्धि- किसी भी शुभकार्य में
स्वामी(कार्यकर्ता)की नामराशि (जन्मराशि नहीं) के अनुसार कार्यदिवसीय चन्द्रमा की
स्थिति का विचार कर लेना चाहिए। नामराशि से चौथे,आठवें चन्द्रमा सदा अशुभ फलदायी
होते हैं।बारहवें होने पर पूजित होकर शुभ हो जाते हैं,तथा शेष स्थानों पर
शुभफलदायी कहे गये हैं।
११.वामरवि विचार-गृहप्रवेश के लिए चयनित लग्न से तात्कालिक
सूर्य स्थिति की गणना करके वामरवि की जानकारी की जाती है।प्रवेशकार्य में वामरवि
को अतिशुभ माना गया है।प्रवेश लग्न से ८,९,१०,११,१२वें स्थान में सूर्य होतो
पूर्वमुख वाले गृह के लिए वामरवि कहलायेगा।इसी भांति ५,६,७,८,९वें स्थान में होने
पर दक्षिणमुख गृह के लिए शुभ होगा,तथा २,३,४,५,६वें स्थान पर होने पर पश्चिममुख
गृह के लिए शुभ होगा,एवं ११,१२,१,२,३ में होने पर उत्तरमुख गृह के लिए वामरवि कहा
जायेगा।यथा- वामोरविर्मृत्युसुतार्थलाभतोऽर्के पञ्चभे प्राग्वदनादिमन्दिरे...(मू.चि.वा,प्र.५
पूर्वार्द्ध)
गृहप्रवेश में विचारणीय उक्त बातों को निम्नांकित
चक्रों से स्पष्ट किया जारहा हैः-
कुम्भचक्रः- वक्त्रे भू रविभात् प्रवेशसमये
कुम्भेऽग्निदाहः कृता, प्राच्यामुद्वसनं कृता यमगता लाभः कृताः पश्चिमे।श्रीर्वेदाः
कलिरुत्तरे युगमिता गर्भे विनाशो गुदे, रामः स्थैर्यमतः स्थिरत्वमनलाः कण्ठे भवेत्
सर्वदा।।(मु.चि.वा.प्र.६)
उक्त श्लोक का आशय निम्नांकित सारणी में स्पष्ट
है-
स्थान/दिशा
|
नक्षत्रसंख्या
|
फलाफल
|
मुख
|
१
|
अग्निदाह
|
पूर्व
|
४
|
चिन्ता
|
दक्षिण
|
४
|
लाभ
|
पश्चिम
|
४
|
धनप्राप्ति
|
उत्तर
|
४
|
कलह
|
गर्भ
|
४
|
विनाश
|
पाद
|
३
|
स्थिरता
|
कण्ठ
|
३
|
स्थिरता
|
यानी प्रारम्भ के पांच नक्षत्र त्याज्य हैं,पुनः
आठ नक्षत्र ग्राह्य हैं,उसके बाद के आठ भी त्याज्य हैं,तथा अन्तिम छः नक्षत्र
ग्राह्य हैं।
नूतनगृहप्रवेश मुहूर्त सारणी-
अयन
|
उत्तरायण
|
मास
|
वैशाख,ज्येष्ठ,फाल्गुन,माघ उत्तम तथा
कार्तिक,अगहन मध्यम; क्षयमास,अधिकमास और खरमास सर्वदा वर्जित
|
पक्ष
|
सम्पूर्ण शुक्लपक्ष उत्तम,तथा कृष्ण दशमी
पर्यन्त ग्राह्य
|
तिथि
|
चौथ,नवमी,चतुर्दशी और आमावश्या छोड़कर
|
वार
|
सोम,बुध,गुरु,शुक्र,एवं शनि
|
नक्षत्र
|
रोहिणी,मृगशिरा,उत्तरातीनों,चित्रा,अनुराधा
और रेवती
|
लग्न
|
वृष,सिंह,वृश्चिक,कुम्भ
उत्तम;मिथुन,कन्या मीन मध्यम
|
लग्नशुद्धि
|
लग्न से
१,२,३,५,७,९,१०,११ भाव में शुभग्रह,तथा ३,६,११ में पापग्रह,तथा ४,८ पूर्ण रिक्त
|
चन्द्रशुद्धि
|
स्वामी
के नाम राशि से चौथे,आठवें अशुभ,बारहवें पूजितशुभ
|
वामरवि
|
वामरवि
विचार पूर्व विवरण में देखें
|
जीर्ण(द्वन्द्व)गृहप्रवेश मुहूर्त -इस सम्बन्ध में विशेष बात यह है कि
दक्षिणायन सूर्य में भी हो सकता है,तथा इसमें गुरु-शुक्रादि ग्रहों के उदयास्त का
विचार अनिवार्य नहीं है।
-----()()----क्रमशः...
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