गतांश से आगे... अध्याय 23 भाग 2
क्रमशः....
गृहप्रवेश प्रक्रियाः- गृहप्रवेश की पूरी प्रक्रिया सुविधा और
स्थिति के अनुसार एक दिवसीय से लेकर तीन,पांच,सात,नौ,ग्यारह दिवसीय तक की हो सकती
है। अधिकस्य अधिकःफलं वाली बात है।श्रद्धानुसार लोग नवचण्डी,शतचण्डी आदि विशेष
अनुष्ठान के पश्चात् गृहप्रवेश करते हैं।विष्णुभक्त विष्णुसहस्रनाम का अष्टोत्तरशत
पाठ,रामायण वा रामचरितमानस का नवाह
परायण.श्रीमद् भागवत सप्ताह वा देवीभागवत नवाह्निक, आदि भी कराये जा सकते
हैं।सर्वसुलभ हनुमान चालीसा का अष्टोत्तरशत (१०८)पाठ या एक अहोरात्र(चौबीस घंटे)का
अखण्ड हरिकीर्तन भी कराया जा सकता है।
ये सभी आंगिक कार्य सम्पन्न हो जाने के बाद मुख्य
कार्य दिवसीय चर्चा, अब की जा रही है—पूर्व अध्याय में दिये गये गृहप्रवेश मुहूर्त
के अनुसार अनुकूल समय का चुनाव करके, नवनिर्मित भवन के मुख्य द्वार,और यथासम्भव
आन्तरिक कक्षों को भी वन्दनवार से सजावे। मुख्य द्वार पर दोनों ओर केले के
स्तम्भ(अभाव में पत्तियां मात्र)से सजावे,तथा द्वार के दोनों ओर अष्टदल कमल बना
कर, एक-एक मांगलिक कलश भी सजावे,जिसपर दो द्वारपालों की स्थापना की जाती है,साथ ही
द्वारमात्रिक की भी यहां पूजा होती है।आम और अशोक की पत्तियों के साथ-साथ उपलब्ध
फूलों का प्रयोग वन्दनवार के लिए करना चाहिए।आजकल लोग भवन को कागज और प्लास्टिक के
कृत्रिम फूल,गुब्बारे,और विजली के झालरों से सजा
देते हैं। युगानुरुप यह गलत नहीं है;किन्तु प्राकृतिक सजावट का अपना
वास्तुगत महत्त्व है- इसे न भूलें।
अन्तर्वाह्य सजावट के बाद,अब भवन के मध्य स्थान
वा सुविधानुसार (पूरब/ ईशान/अग्नि क्षेत्र में पड़ने वाले) किसी बड़े कक्ष में
गृहप्रवेश सम्बन्धी वास्तुपूजा के लिए आगे दिये गये चित्रानुसार पूजा मण्डल को
सजावे।विधिवत वास्तुपूजा हेतु ५×७, ७×९, ९×११ या ११×१६ फीट के वास्तुमण्डल की
परिकल्पना करे।बहुत छोटे मंडल में सभी वेदियों का सही निर्माण-पूजन करने में
कठिनाई होती है,अतः समुचित स्थान का चुनाव आवश्यक है।सर्वप्रथम, चयनित पूजा कक्ष
में चारों ओर थोड़ी जगह छोड़ते हुए,अनुकूल आकार का मण्डल निर्माण चावल/गेहूँ के
आंटे और हल्दी चूर्ण के सहयोग से कर ले।इसके बाद धुले हुए स्वच्छ नयी दो-दो ईटों
से (१०’’×१०’’),चित्र में दिये गये स्थानों पर इन्द्र,अग्नि आदि दसों दिक्पालों की
वेदी बनावे।उन वेदियों को यथोचित नवीन वस्त्र से आक्षादित भी अवश्य करे।पुनः दसों
वेदियों पर स्वस्तिक या अष्टदल कमल बनाकर, छोटे-छोटे कलश-ढक्कन, पल्लवादि से
अलंकृत कर सजादे;और उक्त दशों वेदियों को मौली धागे के सहयोग से आपस में जोड़ दें-
इस प्रकार आपका वास्तुपूजा मण्डल चारों ओर से सुरक्षित हो गया।ऐसा करने के बाद,
अनावश्यक किसी व्यक्ति का प्रवेश इस घेरे में वर्जित है,सिर्फ यजमान पति-पत्नी और
आचार्य ही इस मण्डल में प्रवेश करें।अन्य सहयोगी मुख्य मंडल से बाहर रह कर ही
कार्य करें।
अब घेरे के अन्दर(चित्र में दिये गये संकेत के
अनुसार)ईशान में रुद्र कलश,और मध्य में प्रधान कलश हेतु ईटों की वेदी बनावें।विशेष
अलंकृत करने की स्थिति हो तो, रुद्रकलश हेतु एकलिंगतोभद्र वेदी,एवं प्रधान कलश
हेतु सर्वतोभद्रवेदी भी बना सकते हैं।इन दोनों का चित्र इसी प्रसंग में आगे दिया
गया है।सामान्य रुप से करना हो तो,सभी वेदियों को अष्टदल,स्वस्तिक आदि मांगलिक
चिह्नों से अलंकृत करें।ईशान क्षेत्र में,रुद्र कलश के समीप ही नौ कोष्ठकों वाले
मण्डल में सूर्यादि नवग्रहों के लिए ४+४ ईटें,यानी २०’’×२०’’की वेदी बनावें।इसी
भांति अग्नि कोण में षोडशमात्रिका हेतु ३०’’×३०’’ की,तथा वायु कोण में क्षेत्रपाल
हेतु ३५’’×३५’’ एवं नैऋत्य कोण में चौंसठ पद वास्तु मंडलदेवों के लिए ३५’’×३५’’ या ४०’’×४०’’ की वेदी बनावें। इस नैऋत्य कोण
वाली वेदी पर ही मध्य भाग में (मध्य के आठ कोष्ठकों पर)अष्टदल बनाकर जौ का छिड़काव
कर वास्तुकलश की स्थापना करनी होती है।पूजामंडल के मध्य में प्रधान कलश के आगे
दोने/ पत्रावली या काष्ठपीठिका पर क्रमशः गणेशाम्बिका, और उनके दायें-बायें
पंचलोकपाल,तथा सप्तघृतमात्रिका को स्थापित करना चाहिए।यहीं पर एक ओर
चतुःषष्ठीयोगिनी को भी स्थापित करें।नवग्रहादि विभिन्न वेदियों को रंगीन चावल या
सुविधानुधार रंगों की सहायता से बनाना चाहिए।रंगयोजना का यहाँ विशेष महत्त्व है-इसका
ध्यान रखें। घृतमिश्रित पीले सिन्दूर से,कपड़े पर घृतमात्रिका बनाना सुविधाजनक
होता है।लकड़ी के तख्त को वस्त्रावेष्ठित करके भी बनाया जा सकता है।क्रमशः....
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